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Sunday, January 12, 2020

गरबूंदा  /  इंद्रायन
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इंद्रायन भारत सहित कई देशों में बेल के रूप में पाया जाता है। यह तरबूज के पत्तों के समान, फूल नर और मादा दो प्रकार के तथा गोल फल वाली बहुवर्षीय बेल होती है। जब यह बेल सूख जाती है तो कुछ वर्षों के बाद फिर से हरी हो जाती है। इसका हर भाग कड़वा होता है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में इसे गरबूंदा नाम से जाना जाता है। इस बेल के फल ये फल कच्ची अवस्था में हरे रेग के होते हैं और बाद में पकने के बाद पीले हो जाते हैं । फलो पर श्वेत रंग की धारियां पाई जाती हैं। फल गुद्देदार होता है जिसमें बीज भूरे, चिकने, चमकदार, लंबे, गोल तथा चिपटे होते हैं। इस बेल का प्रत्येक भाग कड़वा होता है।
इंद्रायन को लोक भाषाओं में गड़तुम्बा,गडूम्बा,
पापड़, पिंदा आदि नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे कोलोसिंथ तथा बिटर ऐपलनाम से जाना जाता है तथा वानस्पतिक नाम सिट्रलस कॉलोसिंथस हैं।
इंद्रायन की कुल तीन प्रकार होती हैं तथा दो अन्य वनस्पतियों को भी इंद्रायन कहा जाता है।
गडूंबा के फल के गुद्देदार होते हैं जिन्हें सुखाकर विभिन्न औषधियों के काम में लाते हैं। आयुर्वेदिक भाषा में यह शीतल, रेचक, पित्त, पेट के रोग, कफ,
कुष्ठ तथा ज्वर को दूर करने वाला कहा गया है। यह जलोदर, पीलिया और मूत्र संबंधित बीमारियों में प्रमुख रूप से काम में लाया जाता है वहीं श्वेत कुष्ठ रोग,खां सी, मंदाग्नि, खून की कमी और श्लीपद में भी उपयोगी कहा गया है।
गरबूंदा सूजन को उतारने वाला, वायु नाशक तथा स्नायु संबंधी रोगों जैसे लकवा, मिरगी, विस्मृति आदि में लाभदायक होता है। यह तीव्र विरेचक तथा मरोड़ उत्पन्न करने वाला होता है ऐसे में दुर्बल व्यक्ति को इसे नहीं देना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में कभी से लोग अपने पेट के रोगों को दूर करने के लिए फांकी बनाते आ रहे हैं वहीं पशुओं के विभिन्न रोगों को दूर करने के लिए काम में लेते आ रहे हैं।
रासायनिक दृष्टि से गडूंबा में ऐल्कलाड तथा कोलोसिंथिन नामक एक ग्लूकोसाइड पाए जाते हैं। इससे ज्वर उतरता है। इसका उपयोग तीव्र कोष्ठबद्धता, जलोदर, ऋतुस्त्राव तथा गर्भस्राव में भी किया जाता है।
लाल इंद्रायन की बेल बहुत लबी तथा पत्ते दो से छह
इंच के व्यास के, फूल नर और मादा तथा श्वेत रंग के, फल कच्ची अवस्था में नारंगी रंग के, किंतु पकने पर लाल तथा 10 नांरगी धारियों वाले होते हैं। फल का गूदा हरापन लिए काला होता है तथा फल में बहुत से बीज होते हैं। इस पौधे की जड़ बहुत गहराई तक जाती है और इसमें गांठें होती हैं। इसे श्वास और फुफ्फुस के रोगों में लाभदायक कहा बताया गया है।
जंगलों में भी एक इंद्रायन मिलती है जिसे छोटी इंद्रायन को लैटिन में क्यूक्युमिस ट्रिगोनस कहते हैं। इसकी बेल और फल छोटे होते हैं। इसके फल में भी कॉलोसिंथिन से मिलते जुलते तत्व होते हैं। इसका हरा फल स्वाद में कड़वा, अग्निवर्धक, स्वाद को सुधारने वाला तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करने वाला बताया गया है। रेगिस्तान में बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह गठिया मासिक धर्म, गर्भधारण, बालों की सुंदरता पेशाब की जलन, पेट दर्द, खांसी, श्वास, सिर दर्द, योनि रोग, मिर्गी, जलोदर कारण रोग, गांठ, बच्चों के रोग, महामारी, फोड़ा फुंसी, घाव, उपदंश, सांप के काटने, बिच्छू के जहर, सूजन, मस्तक पीड़ा, दंत कृमि, सफेद बाल, बहरापन आदि बीमारियों के काम में लाया जाता है। यह बहु औषधीय पौधा है। इस पौधे की 3 प्रजातियां पाई जाती है।
 इंद्रायन छोटी, बड़ी और लाल इंद्राय नाम से जाना जाता है। इंद्रायणी के बीजों में तेल पाया जाता है। इंद्रायन की कली में एक तरह का गोंद जैसे पदार्थ पाया जाता है। यह कई दवाओं में काम आता है। इंद्रायण का अधिक प्रयोग करने से कुछ स्थितियों में बचना चाहिए। यह बच्चों में, स्त्रियों में और गर्भवती स्त्रियों में
नुकसानदायक साबित होता है।
 इंद्रायन पशुओं में भी उतना ही लाभप्रद है जितना
मानव के लिए लाभप्रद है। ग्रामीण क्षेत्रों में कभी से फांकी बनाई जाती है और प्रयोग की जाती है। यह माना जाता है कि जब किसी रोगी को इनके फलों को अच्छी तरह पैरों से कुचलने दिया जाए और उसका मुंह कड़वा हो जाए तो उसके रोग दूर हो जाते हैं। यह पशुओं को पेट की बीमारियां दूर करने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है। ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पशुओं को चारे में देते हैं ताकि उनको किसी प्रकार की







दिक्कत ना आए। 
**होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़, हरियाणा***

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