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Wednesday, April 20, 2022

                               सर्दी गर्मी और पेड़ पौधे
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 यूं तो सर्दी और गर्मी स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होती है वहीं पेड़ पौधों के लिए भी लाभप्रद है। सर्दी गर्मी बढऩे की एक सीमा होती है लेकिन सीमा को यदि क्रास कर दिया जाए तो पेड़ पौधों के साथ नष्ट होने की समस्या आ जाएगी छोटे पौधे खत्म हो जाएंगे वही बड़े पौधों पर भी कुप्रभाव पड़ता है। यही हालात सर्दी की होती है छोटे पौधे जिनमें शाक एवंं झाड़ी लगभग समाप्त हो जाते हैं। गर्मी का बढऩा भूमिगत पानी को गहराई पर ले जाता है क्योंकि पानी की मांग बढ़ जाती है और दिनोंदिन अधिक से अधिक पानी का दोहन किया जाता है। इसके चलते भूमिगत जल स्तर हर वर्ष गिरता चला जाता है। सर्दी की बात करें तो सर्दी एक सीमा तक पेड़ पौधों के लिए लाभप्रद होती है। इस जगत में दो प्रकार के पेड़ पौधे होते हैं। कुछ सर्दी को पाकर ही फूल और फल देते हैं वहीं कुछ ऐसे पेड़ पौधे है जो गर्मी को पाकर ही फूल और फल देते हैं। यदि सदी बढ़ती चली जाए तो गमलों के पौधे भी नष्ट हो जाते हैं वही झाड़ी भी लगभग समाप्त होने के कगार पर चली जाती है। बड़े-बड़े पौधों के पत्ते जो झुलस जाते हैं और कई बार  सर्दी के कारण अनेकों पेड़ पौधे सूख जाते हैं।  इसी प्रकार गर्मी बढ़ती चली जाती है जो घातक प्रभाव डालती है। वैसे तो गर्मी के बढऩे से भूमि के अंदर घुसे हुए हानिकारक कीड़े फसलों के लिए घातक होते वह मर जाते हैं वही ज्यादा तपन से धूप भूमि में प्रवेश कर जाती है और गर्मी ज्यों ज्यों धरती में प्रवेश करेगी तो बारिश के बाद पानी का प्रभाव सकारात्मक होगा किंतु गर्मी की भी एक सीमा होती है हर वर्ष तापमान बढ़ता चला जा रहा है। यूं तो पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बन रही है।
क्या है ग्लोबल वार्मिंग-
आज के दिन एक समस्या ने पूरे विश्व को हिला कर रख रखा है वह है ग्लोबल वार्मिंग। दिनोंदिन प्रदूषण बढ़ रहा है, विशेषकर आग जलाना, उद्योग धंधे, कारखाने, फैक्ट्रियां, वाहन आदि का धुआं निकलता रहता जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड गैस 
निकलती है। कार्बन डाइऑक्साइड हवा में धरती के आसपास एक परत बना देती है जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों को जो कम तरंगदैध्र्य की होती हें उन्हें अपने अंदर से आने तो देती लेकिन जब धरती को गर्म कर देती और अधिक तीरंगदैध्र्य की किरणों के रूप में वापिस जाना चाहे तो उनको वापस नहीं जाने देती अपितु वापस धरती पर धकेल देती है जिसके चलते धरती का तापमान बढ़ता चला जाता है। इसे ग्लोबल वार्मिंग नाम दिया गया है। यह वार्मिंग विश्व के लिए संकट बन रहा है चूंकि तापमान बढ़ेगा तो धु्रवों की समस्त बर्फ पिंघल जाएगी और समुद्र तल एक सौ मीटर के करीब बढ़ जाएगा। जिसके चलते पानी शहरों की ओर दौडऩे लगेगा और लोग काल के ग्रास बन जाएंगे किंतु यह समस्या किसी एक देश की नहीं अपितु सभी देशों में पूरे संसार में चल रही है। धुआं कारखानों से, घरों से, हर जगह निकल रही है, पेड़ पौधे काटे जा रहे हैं परिणाम स्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है और ऑक्सीजन घटती जा रही है। यदि पेड़ पौधे लगाए जाए तो कार्बन डाइऑक्साइड पर काबू पाया जा सकेगा और ग्लोबल वार्मिंग से बचा जा सकेगा। इसका एकमात्र तरीका है अधिक से अधिक पेड़ लगाए। एक साधारण सा उदाहरण ग्लोबल वार्मिंग का- शीशा चढ़ी हुई कार जिसके अंदर देखते-देखते तापमान बढ़ जाता है क्योंकि शीशा ठीक उसी प्रकार कार्य करता है जैसे कार्बन डाइऑक्साइड की पर्त हवा में कार्य करती है। ऐसे में कार्बन डाइऑक्साइड को घटाने, पेड़ पौधे लगाने पर जोर देना चाहिए ताकि विश्व को एक गंभीर संकट से बचाया जा सके।
यदि सर्दी और गर्मी लगातार अपनी सीमा को लांघ जाएंगे तो निश्चित रूप से जीव जंतुओं पर बुरा प्रभाव पड़ेगा व पेड़ पौधे भी निश्चित रूप से कम होते चले जाएंगे। वैसे भी पेड़ पौधों को कम करने के लिए इंसान लगा हुआ है। उनको अधिक से अधिक काटकर नष्ट करने पर तुला हुआ है। किसी जमाने में हर गांव में बणी होती थी और ये बणियां जीव जंतु के लिए सुरक्षित स्थान होते थे। यहां गर्मी सर्दी में जीव जंतु पेड़ों के नीचे बैठकर आराम महसूस करता था किंतु अकेले कनीना की बात की जाए तो अधिकांश बणियां समाप्त कर दी गई है। आने वाले समय में शायद बनियों को ढूंढते रह जाएंगे क्योंकि भारी लूट मची हुई है । बणियों की देखरेख कोई करने वाला नहीं जिसके चलते दिनोंदिन लोग बणियों पर अतिक्रमण ़बढ़ते जा रहे हैं। यही कारण है कि जीव जंतु कम होते जा रहे हैं।

कनीना की बणियां एवं स्थितियां-
 धीरे-धीरे कनीना की बावनी भूमि से जंगलों(बेणियों) की आकार सिमटकर समाप्त होने को पहुंच चुका है। कभी आधा दर्जन बेणियों का स्वामी होता था किंतु आज बेणी के नाम पर अल्प  पेड़ बचे हैं। चारों ओर से अतिक्रमण की शिकार ही नहीं अपितु बेणियों का अस्तित्व ही समाप्त करके खेतों में बदल दिया गया है।

  कनीना की बेणियों कई नामों से जानी जाती थी जिनमें छोटी बेणी, बड़ी बेणी, रणास की बेणी, मानका की बेणी, पीपलवाली बेणी प्रसिद्ध होती थी किंतु वर्तमान में चारों ओर से संकीर्ण बना दिया है, बोरवैल बना डाले हैं, पेड़ काटकर खेती के रूप में काम में लिया जा रहा है, कूड़ा कचरा डाला जा रहा है, मिट्टी को उठाकर ले जाया जा रहा है वहीं पेड़ों की दिनरात कटाई की जा रही है। कुछ लोगों ने तो बणियों के पेड़ काटकर काफी मुनाफा कमा लिया है। वैसे तो ये लोग बड़े कहलाते हें किंतु पेड़ों की कटाई कर बेचने से पीछे नहीं हटते।
 नगरपालिका ने महज मिट्टी न उठाने संबंधित बोर्ड लगाकर अपने काम की इतिश्री समझ ली है। आज तक के इतिहास में किसी बेणी की पैमाइश करवाकर अतिक्रमण को नहीं रोका है जिसके चलते बेणियों का अस्तित्व संकट में है।
  जहां तक छोटी बेणी में धार्मिक स्थान बना दिए गए हैं वहीं कनीना का सामान्य बस स्टैंड बनवा दिया गया है। बड़ी बेणी में एक निजी संस्था को पट्टे पर 58 एकड़ जमीन दे डाली है। रणास की बेणी में सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगवा दिया है वहीं गंदे पानी को इक_ा करने के लिए जोहड़ बनवा दिया है और रही बात मानका की बेणी तथा पीपल वाली बेणी ये किसानों ने ही समाप्त कर दी है। पीपलवाली बणी में अगर कनीना न्यायालय एवं सरकारी कार्यालय बन जाता तो बेहतर होता आज किसी भी बेणी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। यह दुर्दशा आखिरकार किसानों ने, पेड़ माफिया ने तथा अन्य जनों ने कर डाली है। यदि नगरपालिका इन बेणियों की पैमाइश करवा दे तो सैकड़ों एकड़ जमीन पर पेड़ काटकर बनाई गई खेती को छोड़ते वक्त किसानों को बहुत दर्द होगा ही साथ में कुछ स्थानीय नेताओं की राजनीति पर गहरे संकट छा जाएंगे।

   आश्चर्यजनक पहलु यह है कि इन बेणियों में जिस किसी का जितना वश चला उसने उतने ही पेड़ समाप्त कर दिए हैं। यहां तक कि नलकूप बनाकर, भैंसों का बाड़ा, कूड़ा कचरा डालने का स्थान, मिट्टी उठाने का स्थान, यहां तक कि पक्के मकान बनाकर रहने का आरामदायक स्थान बना लिया है। जहां जंगली जीव रहते थे वहां उन जीवों को डराकर अन्यत्र भेज दिया और उस जगह आज इंसान रहने लगे हैं। कहावत है -राम नाम की लूट है लूटी जा सो लूट, कहावत शत प्रतिशत चरितार्थ होती है। कोई जितनी जमीन रोकना चाहे तो रोक सकते हैं, स्थानीय प्रशासन नाम की कोई चीज तो है ही नहीं।
 कभी बेणियों में सैर सपाटा के लिए लोग यह समझकर जाते थे कि साफ सुथरी हवा मिलेगी किंतु अगर अब को बेणी में जाएगा तो मरे हुए जीवों की बदबू, विवाह शादी का कूड़े कचरे की बदबू, मिट्टी कटाव से उड़ती धूल से सांस रोग, प्रदूषण युक्त हवा में रोग लेकर ही घर लौटेगा। और तो और लोगों ने मिट्टी को काट-काटकर बेच डाला है। पेड़ पौधों को रातोंरात काट डाला है। मिट्टी कटाव देखकर लगता है कि किसी पहाड़ी क्षेत्र में आ गए हैं।
  बेणियों के आस पास लोगों से बात करनी चाही तो उल्टे उनकी भौहें तन गई। अधिकारियों से बात करनी चाही तो मौन हो गए। कुछ पर्यावरण को चाहने वाले जन दबी जुबान में कहने लगे कि नगरपालिका को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

क्या कहते हैं अधिकारी-
नगरपालिका ने तो बोर्ड लगाकर स्पष्ट कर दिया है कि मिट्टी काटने वालों पर कार्रवाई की जाएगी। पेड़ पौधे काटने वालों को नहीं बख्शा जाएगा।
क्या है लोगों की मांगे-
* बेणियों के अस्तित्व को बचाया जाए।
*पेड़ काटने वालों पर निगरानी रखी जाए और उन पर जुर्माना किया जाए।
* सभी बेणियों की पैमाइश करवाई जाए और अतिक्रमण करने वालों पर केस दर्ज करवाए जाए। अब तक जितना उन्होंने नुकसान किया है उसकी भरपाई करवाई जाए।
* बेणियों में मरे हुए पशु एवं विवाह शादियों का कूड़ा कचरा डालने पर प्रतिबंध लगाया जाए और न माने उन पर जुर्माना किया जाए।
* बेणियों में गार्ड रखे जाए जो पेड़ काटने व अतिक्रमण करने वालों की सूचना विभाग को देते रहे।
घटा दिया है बणियों का आकार
-कितनी होती थी जमीन
 कनीना की सभी बणियों का आकार घटता ही जा रहा है। आधा दर्जन बणिया हैं जिनमें से कोई भी बणी अपने वास्तविक आकार से आधी भी नहीं बची है। सरकार एवं प्रशासन ने कभी इन बणिया की पैमाइश नहीं करवाई है। यही कारण है कि बणिया में पक्के मकान, ट्यूबवेल एवं अतिक्रमण करके पेड़ों को नष्ट कर दिया है वहीं जमीन को कब्जा लिया है।
  कनीना में करीब छह बणिया होती थी जिनमें से रणास, पीपलवाली, बड़ी बणी, छोटी बणी, मानका आदि प्रमुख थी। जहां बड़ी बणी में शिक्षण संस्थान, वाटर स्टोर केंद्र, गौशाला, आवास बनने के अतिरिक्त चारों ओर से अतिक्रमण के चलते बस नाम की बड़ी बणी रह गई है। इस बणी में पेड़ों को भारी क्षति हुई है और अभी भी अतिक्रमण जारी है। उधर छोटी बणी का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया है। रणास की बणी में कोई पेड़ नहीं बचा है तो मानका एवं पीपलवाली बणी अब सिकुड़ती जा रही हैं। इन बणिया में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, ट्यूबवेल, आवास बनाने तथा किसानों द्वारा अतिक्रमण के चलते आधी से भी कम रह गई हैं। नगरपालिका ने विगत दशकों से इन बणिया की न तो सुध ली है और न पैमाइश करवाई है। अगर सभी बणिया की सुध ली जाए तो प्राप्त जमीन को बोली पर छोड़कर करोड़ों रुपये की आय प्राप्त हो सकती है वहीं जंगली जीवों का संरक्षण हो सकता है।
कुछ जन अवैध पक्के मकान बनाकर बिजली कनेक्शन, पानी आदि सभी सुविधाएं लेकर के सरकार को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
  मिली जानकारी अनुसार कनीना पालिका के करीब 335 कनाल 16 मरला जमीन कृषि योग्य है वहीं कोटिया गांव के पास रणास की बेणी(जंगल)32 कनाल पांच मरला है जहां सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लग चुका है वहीं बड़ी बेणी करीब 800 कनाल की है जिसमें से 58 एकड़ डीएवी को 99 सालों के पट्टे पर, पांच एकड़ गौशाला के लिए तथा दस एकड़ वन विभाग एवं वाटर सप्लाई हेतु दिया हुआ है, 115 प्लाट भी बने हुए हैं। करोड़ों की लागत से कान्ह सिंह पार्क भी बना है। पीपलावाली बणी 125 कनाल, मानका वाली बणी 82 कनाल, दस मरला है।

  सभी बणियां चारों ओर से पेड़ काटकर संकीर्ण बना डाली हैं वहीं अवैध निर्माण करके बिजली पानी कनेक्षन भी ले रखे हैं। जंगली जीव लुप्त हो गए हैं वहीं जंगलों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। इनकी पैमाइश करवाकर पौधारोपण करवाने की मांग बढऩे लगी है।
आज जंगली जीव को देखा जाए तो पूर्णता खत्म होते जा रहे हैं। वैसे भी ट्यूबवेल के स्थान पर बोर आ गए हैं जहां पानी खेल एवं पाऊंडा तथा जल को सुरक्षित रखने के स्रोत खेतों में नहीं बचे जिसके चलते भीषण गर्मी की मार झेलते हुए पक्षी दाना और पानी के चाहत में मर जाते हैं। कभी इस क्षेत्र में शशक,काला तीतर, तीतर, बटेर, हरिण, गीदड़ और भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर भारी संख्या में होते थे किंतु अब यहीं कहीं देखने को मिलेंगे। यदि यही हालात चलती रही तो आने वाले समय में गर्मी और सर्दी का प्रभाव बढ़ता चला जाएगा और पेड़ पौधों की संख्या घटने के चलते इंसान की संख्या बढ़ती चली जाएगी और जीने के लिए पानी पेट्रोल पंप की भांति मिलेगा वहीं गैस सिलेंडर भी अपने साथ लेकर जाना पड़ेगा वरना इंसानों का जीना मुश्किल हो जाएगा जिससे पेड़ पौधे नष्ट किए जा रहे उधर से लगाए नहीं जा रहे हैं परिणाम यह है कि अधिक सर्दी और गर्मी जीव जंतु के लिए घातक साबित हो रही है।
 धीरे-धीरे कनीना की बावनी भूमि से जंगलों(बेणियों) की आकार सिमटकर समाप्त होने को पहुंच चुका है। कभी आधा दर्जन बेणियों का स्वामी होता था किंतु आज बेणी के नाम पर अल्प  पेड़ बचे हैं। चारों ओर से अतिक्रमण की शिकार ही नहीं अपितु बेणियों का अस्तित्व ही समाप्त करके खेतों में बदल दिया गया है।

  कनीना की बेणियों कई नामों से जानी जाती थी जिनमें छोटी बेणी, बड़ी बेणी, रणास की बेणी, मानका की बेणी, पीपलवाली बेणी प्रसिद्ध होती थी किंतु वर्तमान में चारों ओर से संकीर्ण बना दिया है, बोरवैल बना डाले हैं, पेड़ काटकर खेती के रूप में काम में लिया जा रहा है, कूड़ा कचरा डाला जा रहा है, मिट्टी को उठाकर ले जाया जा रहा है वहीं पेड़ों की दिनरात कटाई की जा रही है। कुछ लोगों ने तो बणियों के पेड़ काटकर काफी मुनाफा कमा लिया है। वैसे तो ये लोग बड़े कहलाते हें किंतु पेड़ों की कटाई कर बेचने से पीछे नहीं हटते।
 नगरपालिका ने महज मिट्टी न उठाने संबंधित बोर्ड लगाकर अपने काम की इतिश्री समझ ली है। आज तक के इतिहास में किसी बेणी की पैमाइश करवाकर अतिक्रमण को नहीं रोका है जिसके चलते बेणियों का अस्तित्व संकट में है।
  जहां तक छोटी बेणी में धार्मिक स्थान बना दिए गए हैं वहीं कनीना का सामान्य बस स्टैंड बनवा दिया गया है। बड़ी बेणी में एक निजी संस्था को पट्टे पर 58 एकड़ जमीन दे डाली है। रणास की बेणी में सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगवा दिया है वहीं गंदे पानी को इक_ा करने के लिए जोहड़ बनवा दिया है और रही बात मानका की बेणी तथा पीपल वाली बेणी ये किसानों ने ही समाप्त कर दी है। पीपलवाली बणी में अगर कनीना न्यायालय एवं सरकारी कार्यालय बन जाता तो बेहतर होता आज किसी भी बेणी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। यह दुर्दशा आखिरकार किसानों ने, पेड़ माफिया ने तथा अन्य जनों ने कर डाली है। यदि नगरपालिका इन बेणियों की पैमाइश करवा दे तो सैकड़ों एकड़ जमीन पर पेड़ काटकर बनाई गई खेती को छोड़ते वक्त किसानों को बहुत दर्द होगा ही साथ में कुछ स्थानीय नेताओं की राजनीति पर गहरे संकट छा जाएंगे।
   आश्चर्यजनक पहलु यह है कि इन बेणियों में जिस किसी का जितना वश चला उसने उतने ही पेड़ समाप्त कर दिए हैं। यहां तक कि नलकूप बनाकर, भैंसों का बाड़ा, कूड़ा कचरा डालने का स्थान, मिट्टी उठाने का स्थान, यहां तक कि पक्के मकान बनाकर रहने का आरामदायक स्थान बना लिया है। जहां जंगली जीव रहते थे वहां उन जीवों को डराकर अन्यत्र भेज दिया और उस जगह आज इंसान रहने लगे हैं। कहावत है -राम नाम की लूट है लूटी जा सो लूट, कहावत शत प्रतिशत चरितार्थ होती है। कोई
जितनी जमीन रोकना चाहे तो रोक सकते हैं, स्थानीय प्रशासन नाम की कोई चीज तो है ही नहीं।
 कभी बेणियों में सैर सपाटा के लिए लोग यह समझकर जाते थे कि साफ सुथरी हवा मिलेगी किंतु अगर अब को बेणी में जाएगा तो मरे हुए जीवों की बदबू, विवाह शादी का कूड़े कचरे की बदबू, मिट्टी कटाव से उड़ती धूल से सांस रोग, प्रदूषण युक्त हवा में रोग लेकर ही घर लौटेगा। और तो और लोगों ने मिट्टी को काट-काटकर बेच डाला है। पेड़ पौधों को रातोंरात काट डाला है। मिट्टी कटाव देखकर लगता है कि किसी पहाड़ी क्षेत्र में आ गए हैं।
  बेणियों के आस पास लोगों से बात करनी चाही तो उल्टे उनकी भौहें तन गई। अधिकारियों से बात करनी चाही तो मौन हो गए। कुछ पर्यावरण को चाहने वाले जन दबी जुबान में कहने लगे कि नगरपालिका को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
क्या है लोगों की मांगे-
* बेणियों के अस्तित्व को बचाया जाए।
*पेड़ काटने वालों पर निगरानी रखी जाए और उन पर जुर्माना किया जाए।
* सभी बेणियों की पैमाइश करवाई जाए और अतिक्रमण करने वालों पर केस दर्ज करवाए जाए। अब तक जितना उन्होंने नुकसान किया है उसकी भरपाई करवाई जाए।
* बेणियों में मरे हुए पशु एवं विवाह शादियों का कूड़ा कचरा डालने पर प्रतिबंध लगाया जाए और न माने उन पर जुर्माना किया जाए।
* बेणियों में गार्ड रखे जाए जो पेड़ काटने व अतिक्रमण करने वालों की सूचना विभाग को देते रहे।
घटा दिया है बणियों का आकार
-कितनी होती थी जमीन
 कनीना की सभी बणियों का आकार घटता ही जा रहा है। आधा दर्जन बणिया हैं जिनमें से कोई भी बणी अपने वास्तविक आकार से आधी भी नहीं बची है। सरकार एवं प्रशासन ने कभी इन बणिया की पैमाइश नहीं करवाई है। यही कारण है कि बणिया में पक्के मकान, ट्यूबवेल एवं अतिक्रमण करके पेड़ों को नष्ट कर दिया है वहीं जमीन को कब्जा लिया है।
  कनीना में करीब छह बणिया होती थी जिनमें से रणास, पीपलवाली, बड़ी बणी, छोटी बणी, मानका आदि प्रमुख थी। जहां बड़ी बणी में शिक्षण संस्थान, वाटर स्टोर केंद्र, गौशाला, आवास बनने के अतिरिक्त चारों ओर से अतिक्रमण के चलते बस नाम की बड़ी बणी रह गई है। इस बणी में पेड़ों को भारी क्षति हुई है और अभी भी अतिक्रमण जारी है। उधर छोटी बणी का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया है। रणास की बणी में कोई पेड़ नहीं बचा है तो मानका एवं पीपलवाली बणी अब सिकुड़ती जा रही हैं। इन बणिया में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, ट्यूबवेल, आवास बनाने तथा किसानों द्वारा अतिक्रमण के चलते आधी से भी कम रह गई हैं। नगरपालिका ने विगत दशकों से इन बणिया की न तो सुध ली है और न पैमाइश करवाई है। अगर सभी बणिया की सुध ली जाए तो प्राप्त जमीन को बोली पर छोड़कर करोड़ों रुपये की आय प्राप्त हो सकती है वहीं जंगली जीवों का संरक्षण हो सकता है।
कुछ जन अवैध पक्के मकान बनाकर बिजली कनेक्शन, पानी आदि सभी सुविधाएं लेकर के सरकार को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
  मिली जानकारी अनुसार कनीना पालिका के करीब 335 कनाल 16 मरला जमीन कृषि योग्य है वहीं कोटिया गांव के पास रणास की बेणी(जंगल)32 कनाल पांच मरला है जहां सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लग चुका है वहीं बड़ी बेणी करीब 800 कनाल की है जिसमें से 58 एकड़ डीएवी को 99 सालों के पट्टे पर, पांच एकड़ गौशाला के लिए तथा दस एकड़ वन विभाग एवं वाटर सप्लाई हेतु दिया हुआ है, 115 प्लाट भी बने हुए हैं। करोड़ों की लागत से कान्ह सिंह पार्क भी बना है। पीपलावाली बणी 125 कनाल, मानका वाली बणी 82 कनाल, दस मरला है।
  सभी बणियां चारों ओर से पेड़ काटकर संकीर्ण बना डाली हैं वहीं अवैध निर्माण कर





के बिजली पानी कनेक्षन भी ले रखे हैं। जंगली जीव लुप्त हो गए हैं वहीं जंगलों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। इनकी पैमाइश करवाकर पौधारोपण करवाने की मांग बढऩे लगी है।

Monday, April 18, 2022

                                  शामक
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एचिलोना कोलोना
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बर्नयार्ड मिलेट
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समा के चावल
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व्रत के चावल
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जंगली चावल

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सामा राइस
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मोरधन
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समा के चावल, व्रत वाले चावल, सामा राइस बनयार्ड मिलेर्ट, शमा के चावल जिन्हें अक्सर लोग शामक नाम से जानते हैं। इनका वैज्ञानिक नाम एचिलोना कोलोना है। एक घास से प्राप्त होने वाले बीज होते हैं जो व्रत के समय प्रयोग किए जाते हैं। ये देखने में बहुत छोटे, गोल आकार के होते हैं जो अक्सर कई नामों से जाने जाते हैं। अंग्रेजी भाषा में बर्नयार्ड मिलेट कहते हैं हिंदी में अक्षर मोरधन या समा के चावल का जाता है सामा चावल ,श्याम चावल आदि नामों से भी पुकारते हैं। सामा के चावल जंगली चावल भी कहा जाता है क्योंकि एक प्रकार जंगली घास से प्राप्त होते हैं इसलिए लोग इनको जंगली घास के चावल भी कहते हैं। वास्तव में हरियाणा मिलने वाले मकड़ा घास के बीज से बिल्कुल मिलते जुलते हैं। व्रत के समय यह चावल उपयोग में लाए जाते हैं जो आयुर्वेद की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं। वेद शास्त्रों में भी इनका उल्लेख मिलता है।
 जो लोग वजन घटाना चाहते हैं उनके लिए अच्छा माने जाते हैं। इन में शूगर/चीनी की मात्रा कम होती है ऐसे में शुगर पेशेंट/मधुमेह के रोगी भी प्रयोग कर सकते हैं। व्रत के समय व्यक्ति में स्फूर्ति/ ताकत ऊर्जा प्रदान करते है तथा प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं।  पाचन तंत्र को मजबूत बनाते हैं और फाइबर युक्त होते हैं इसलिए जिनमें कब्ज/बदहजमी की शिकायत हो उनके लिए बेहतर माने जाते हैं। इन्हें विभिन्न तरीकों से लोग प्रयोग करते हैं। विशेषकर व्रत के समय खिचड़ी, पूड़ी, कचोरी, पुलाव डोसा आदि अनेक पदार्थ बना सकते हैं।
समा के चावल सेहत के लिए लाभप्रद माने जाते क्योंकि इनमें ऊर्जा कम होती है, रुक्षांस  अधिक पाए जाते हैं जिन्हें आसानी से बचा सकते हैं। ग्लूटेन फ्री होते हैं तथा आयरन की मात्रा शरीर में प्रदान करते हैं।

इनका वैज्ञानिक नाम एचिलोना कोलोना है। अक्सर जब भुखमरी हो जाती है, अकाल पड़ जाता है अन्न का अभाव होता है तब ये प्रयोग किए जाते हैं। भारत में राजस्थान में पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। ये उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाए जाते हैं। पौधा अकसर दो से 8 फुट तक ऊंचाई का होता है तथा सीधा खड़ा मिलता है। तेजी से फैलने वाली एक घास होती है। जो अपने आप उग जाती है परंतु कुछ क्षेत्रों में इसकी खेती भी की जाने लगी है।
व्रत के समय अकसर सिंघाड़ा का आटा, कुट्टू का




आटा,साबुदाना एवं श्यामक आदि प्रयोग में लाए जाते हैं।
     डा. होशियार सिंह यादव,कनीना, हरियाणा

Friday, April 15, 2022

              स्वाद का खजाना है सूखे फल एवं सब्जियां
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इंसान की चाहत फल सब्जियों को लंबे समय तक खाने की होती रही है। पुराने वक्त मेें जब फल एवं सब्जियां जो अधिक मात्रा में पैदा होती थी उनको सूखाकर रख लेता था। यही कारण है कि उनका उपयोग लंबे समय तक करता था। आज भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में यह परंपरा देखने को मिलती है। इंसान के लिए गैर मौसम में भी फल सब्जियां खाने को मिल सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां सबसे पुरानी विधि सूखाने की रही है।  मई जून-जुलाई में भीषण गर्मी पड़ती है, इस गर्मी में किसी भी फल सब्जी को सूखाना आसान हो जाता है। वैसे तो छुहारा, किशमिश, हल्दी, सोंठ आदि कितने ही पदार्थ सूखाकर प्रयोग किए जाते हैं।
 एक समय था जब ग्रामीण क्षेत्रों में भारी मात्रा में बेर लगते थे जितने खा लेता था बाकी को सूखा लिया जाता था, उसे मेवा के रूप में प्रयोग करते थे और लोग ग्रामीण क्षेत्रों में सूखे बेर ही बेहतर मेवा माना जाता था और मेवा नाम से जानते थे। यद्यपि बेर का छुहारा, बाजार में मिलने वाले छुहारे से अलग होता है परंतु स्वाद कुछ हद क एक जैसा होता है। यही कारण है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेर को सूखाकर रखा जाता है और थोड़ी देर  पानी में डालकर प्रयोग किया जाता है।
बेर सूखाने की विधि उस समय ज्यादा कारगर थी जब जंगल में भारी संख्या में बेरी के पौधे होते थे। बागोंवाले तथा गोल वाले बेर जिन्हें पचेरी बेर कहते हैं, को सुखाकर छुहारा बनाते थे जिनको बड़े चाव से खाते थे। ग्रामीण लोगों के लिए विशेेषकर बच्चों के लिए ये सूखे बेर ही मेवे का काम करते थे। बेशक आज के जमाने में बादाम ,अखरोट, किशमिश न जाने कितने ही मेवे बाजार में आ गए हैं लेकिन प्राचीन समय के मेेवे सूखे बेेर होतेे थे। ग्रामीण क्षेत्रों में छाछ को भी सूखाकर उसे पानी में डालकर
ताजा छाछ तैयार कर लेते हैं, वह बात अलग है किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में झींझ जरूर खाई जाती थी। अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में जांटी का पेड़ होता है और इस पर लगने वाले फल को सांगर नाम से जाना जाता है। सांगर सब्जी कई स्थान  दामों पर बेचा जाता है किंतु जब सांगर का रंग पीला हो जाता है तो इसमें मिठास बढ़ जाता है। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कभी सांगर को सूखाकर रखा जाता था तथा विभिन्न प्रकार के शाक सब्जियां बनाने में प्रयोग कर ली जाती थी और जब सांगर पक जाता था तो उसे झींझ नाम सेे जाना जाता था। उसे पोटली में बांधकर पेड़ पर बांध देते थे ताकि बारिश में बहुत स्वादिष्ट बन बन जाए। लोग इन्हें लंबे समय तक खाते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में झींझ एक उत्तम मेवा माना जाता था। बेशक आजकल की युवा पीढ़ी सांगर का प्रयोग करते वक्त हिचकिचाते हैं। किसी जमाने में सांगर से दर्जनों प्रकार की सब्जियां आदि बनाते थे किंतु आजकल की युवा पीढ़ी सांगर को नहीं खाती तथा रोगों का कारण मानती है किंतु वह जमाना था जब सागर को दूरदराज से ढूंढ कर लाते थे। आज भी बुजुर्ग सागर को उनका नाम लेते ही उत्साहित हो जाते है।  
सांगर किसी जमाने में बहुत प्रसिद्ध सब्जी होती थी, विटामिन और खनिज लवण पाए जाते हैं, जब यह सूख जाता है तो इसका स्वाद मीठा होने के कारण बच्चे चाव से खाते हैं।
यह भी सत्य है कि कुछ बच्चे तो विलायती कीकर के फलों को भी बड़े चाव से खाते हैं किंतु उनकी बजाय झींझ बेहद पौष्टिक होता है।  किसान आज भी उन दिनों की याद करते हैं जब खेतों में जाते और किसी जांटी के नीचे बिखरी हुई झींझ इकट्ठी कर लेते थे। पूरा परिवार बड़े चाव से खाता










था। जो कुछ बाकी बची हुई को पोटली में बांधकर पेड़ से टांग दिया जाता था ताकि किसी भी वक्त उनको खाया जा सके लेकिन मानसून की बारिश के बाद इनका स्वाद अलग हो जाता था तथा यह न तो कठोर थी अपितु यह लचीली हो जाती और मन को लुभाती थी। वर्तमान में झींझ, बेर के छुहारे सब धीरे-धीरे लुप्त हो गए हैं और लोग को याद करके आज भी रो पड़ते हैं।

Thursday, April 7, 2022

 
                             कमल
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राष्ट्रीय पुष्प भारत
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 नेलुंबो न्यूसिफेरा
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संसार में अनेकों प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती है जिनमें सुंदर फूलों में से एक कमल का फूल है जो भारत देश का राष्ट्रीय फूल कहलाता है। यहां अनेक नामों से जाना जाता है। इसे जहां सरोज,जलज और पंकज,नीरज आदि कई नाम होते हैं। अंग्रेजी भाषा में लोटस नाम से जाना जाता है। कमल एकमात्र ऐसा पौधा होता है जो सदा पानी में खड़ा रहता है। इस पर अनेकों रंगों के फूल आते हैं, कहीं गुलाबी तो कभी सफेद। पत्ते लगभग गोल, छातानुमा जैसे होते हैं। फूलों के लंबा डंठल लगा होता है।
 कमल के तने लंबे, सीधे और खोखले होते हैं। पानी में कमल फैल जाता है, तने की गांठों से अनेकों जुड़े निकलती है जो पानी में ही रहती है। तालाब, जोहोड़,कीचड़ में भी देखा जा सकता है। कमल का आकार भी अलग अलग होता है ।  कमल के फूल में
पंखुडिय़ा गिरकर बीज बन जाते हैं। सूखने पर काले बीज हो जाते जिसे कमलगट्टा कहते हैं। इनको लोग सब्जियों में काम में लेते हैं। कमल की जड़ मोटी और अंदर से खोखली होती हैं। कुछ लोग कमल को खाने में प्रयोग करते वही आचार में भी इनका प्रयोग किया जाता है, जिसे कमल ककड़ी नाम से जाना जाता है। कमल की दो प्रजातियां प्रमुख रूप से पाई जाती है। कमल बहने वाले पानी या रुके हुए पानी में ही होता है ऐसे ही आती रहती है। कमल सुंदर फूलों के लिए जाने जाते हैं। यह फूल विभिन्न देवी-देवताओं के आसन्न के रूप में भी दिखाये जाते हैं। कमल और कुमुदिनी दोनों एक जैसे दिखने वाले पौधे हैं किंतु इन दोनों में अंतर होता है।
 कमल विभिन्न दवाओं में काम में लाया जाता है। फूलों को विशेष शृंगार एवं औषधियों में उपयोग में लेते हैं। सब्जियां भी कमल से  बनाते हैं। वही कमल के फूल के फूल माने जाते हैं।  विभिन्न पुराणों में भी कमल का वर्णन आता है। कमल के पत्तों से पंखे बनते हैं वही तने भोजन के काम आते हैं। कमल पर आधारित दिल्ली का बहाई मंदिर भी बनाया हुआ है। उद्यानों में देखा जाए तो विभिन्न प्रकार के कमल पाए जाते हैं। लोग घरों में भी आजकल पानी भर कर कमल को उगाने लग गए हैं। कमल अपने विशेष गुणों के लिए जाना जाता है।
 जहां कमल के फूल में जहां तनाव दूर करने का गुण मिलता है वही एंटी ऑक्सीडेंट भी पाया जाता है। एंटी इन्फ्लेमेटरी में काम में लेते हैं वहीं कमल के फूल से तैयार तेल बालों में लगाया जाता है। कमल के फूल से हर्बल टी बनाई जाती है जो शरीर  के लिए लाभप्रद है।कम




ल का तना फूल जड़ सभी काम में लेते हैं।
    -लेखक, डा होशियार सिंह यादव
फोटो एवं लेख सभी लेखक के अपने हैं।


Wednesday, April 6, 2022

 साबूदाना तथा कुट्टू
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साबूदाना, सागो, शाक्सस, राबिया
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साइक्स रिवॉल्युटा
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अक्सर जब जब व्रत आते हैं तो लोग कुट्टू और साबूदाना जमकर प्रयोग करते हैं। साबूदाना एक पौधे के तने से प्राप्त किया जाता है जिसे साबूदाना, सागो, शाक्सस, राबिया, सागो पाम आदि नामों से जाना जाता है क्योंकि इसमें बहुत अधिक मात्रा में स्टार्च मिलता है जो उष्णकटिबंधीय पाम के पेड़ों से निकाला जाता है।
व्रत के समय इसे दलिया, खिचड़ी, रोल, फ्राई, खीर, चिप्स तथा अन्य रूपों  में प्रयोग किया जाता है। वास्तव में साबूदाना हम बाजार में मोती जैसे रूप में मिलता है।
साबूदाना निकालने की हर बार आम के सागो पाम के पेड़ को काट दिया जाता है और तने को काटकर कुचल दिया जाता है। साबूदाना को तने से निकालने के अनेक तरीके है। पेड़ के तने से गुदा निकाल कर पानी में मिलाकर हाथों से गूंधा जाता है तत्पश्चात फिल्टर से गुजारा जाता है। इस फिल्टर किये पानी पेड़ के तने में एकत्रित किया जाता है खुला छोड़ दिया जाता है तत्पश्चात बचता है साबूदाने का चिपचिपा रेशेदार रूप जिसे ठोस अवस्था में बदला जाता है। बाकी जितनी शुद्धता से साबूदाना बनना चाहिए उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। इसलिए अनेकों प्रकार की चेंर्चाएं साबूदाना के विषय में प्रचलित है। क्योंकि यह पेड़ के तने से निकाला जाता है इसलिए व्रत में प्रयोग किया जाता है।
साबूदाना शरीर में पाचन शक्ति बढ़ाता है, हड्डी जोड़ों को मजबूत करता है। प्रोटीन की पूर्ति करता है, शरीर में फाइबर प्रदान करता है, रक्तचाप घटाता है तथा खून में रक्त की मात्रा निश्चित रखता है। भार को भी घटाने के लिए साबूदाना प्रयोग किया जाता है।
साबूदाना एक प्रकार के विशेष पाम द्वारा प्राप्त होता है इसे कई नामों से जाना जाता है इसका वैज्ञानिक नाम साइक्स रिवॉल्युटा है।यद्यपि इस पौधे के तने में जहरीला पदार्थ भी मिलता है किंतु बड़ी सावधानी से और बार-बार सफाई करके जहरीले पदार्थ निकाल दिए जाते हैं। जहरीले पदार्थ को साइकेसिन टोक्सिन नाम से जाना जाता है। इसे बार-बार धोकर ही दूर किया जा सकता है।
     कुट्टू
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बकव्हीट
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फेगोपाइरम एस्कुलेंटम

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नकली अनाज
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कुट्टू जो बहुत प्रसिद्ध आटा व्रत में प्रयोग किया जाता है जिसे विभिन्न रूपों में व्रत के समय प्रयोग किया जाता है किंतु पुराना होने के कारण जहरीला बन सकता है जिसे प्रयोग नहीं करना चाहिए।  वास्तव में कुट्टू एक प्रकार का पौधा है जो शाक रूप में पाया जाता है जिसे बकव्हीट कहते हैं इसका वैज्ञानिक नाम है फेगोपाइरम एस्कुलेंटम है, एक पौधा होता है इसके तिकोने बीज प्राप्त होते हैं।
वास्तव में कुट्टू एक कवर क्राप अर्थात जो भूमि को ढकने के काम आता है ताकि किसी प्रकार का मिट्टी कटाव या पोषक तत्व मिट्टी के न बह सके। इसलिए खेतों में उगाया जाता है किंतु यह फसल के रूप में नहीं उगाया जाता। कुछ लोग इसे गेहूं की तुलना देते हैं परंतु यह गेहूं से कोई संबंध नहीं रखता और ना ही गेहूं की तरह यह घास कुल का पौधा होता अर्थात यह घास कुल का पौधा नहीं होता। इसे नकली अनाज नाम से जाना जाता है जिसमें कार्बोहाइड्रेट मिलता है। यह सत्य है कि कुट्टू एक आटे की तरह प्रयोग किया जाता है।  परंतु यह अन्न नहीं माना जाता। यूनान और चीन आदि देशों में बहुत अधिक मात्रा में प्राचीन समय से मिलता था। यह थोड़े समय के लिए ही पैदा होता है जिसके गुच्छे के रूप में फूल आते हैं और इसकी मूसला जड़ पाई जाती है, इसके फूलों का रंग अक्सर सफेद, नीला, पीला आदि मिलता है।
रूस आज के दिन सबसे अधिक मात्रा में कुट्टू पैदा करता है।  वास्तव में कुट्टू में कार्बोहाइड्रेट वसा, प्रोटीन, कई विटामिन साथ में कैल्शियम, तांबा, लोहा, मैग्नीशियम, मैंगनीज, फास्फोरस, पोटैशियम, सेलेनियम, सोडियम, जिंक आदि मिलता है तथा इसमें विटामिन बी-1, बी-2,बी-3,बी-5,बी-9 और विटामिन-सी पाई जाती है।  सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें ग्लूटन अर्थात चेप नहीं पाया जाता है अर्थात इसके आटे को यदि गूथना चाहे तो गूंधने में बहुत परेशानी आती है । इसके आटे में यद्यपि सामान्य रूप से प्रयोग किया जाए और ताजा रूप में प्रयोग किया जाए तो नुकसान नहीं करता वरना अधिक मात्रा में और इसमें पुराने आटे को प्रयोग करने से शरीर को नुकसान दे सकता है। लोग व्रत के समय इसे अनेक रूपों में प्रयोग करते हैं। लोग इसकी चाय, व्हिस्की, बियर ,पराठे, रोटी, पकोड़ा तथा विभिन्न रूपों में प्रयोग करते हैं। मगर व्रतों में सावधानी से कुट्टू प्रयोग करना चाहिए वरना जान को भी जोखिम हो सकता है। कुट्टू के आटे से हर वर्ष अनेकों लोग बीमार पडऩे और यहां तक की कुछ घटनाएं मौत







की भी सामने आती है। ऐसे में कुट्टू आटे को ताजा और सावधानीपूर्वक ही प्रयोग करें वरना कुट्टू से बचकर साबूदाना प्रयोग कर सकते हैं।
        लेखक-डा होशियार सिंह यादव
  फोटो साभार-विभिन्न स्रोत


Monday, April 4, 2022

                                 अरबी
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अरब देश की सब्जी
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कोलोकेशिया एंटीकोरम तथा कोलोकेशिया एस्कुलेंटा
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गुइया/इड्डोज/कच्चू
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यह एक कंद है। अरबी,अरब देश की सब्जी है जिसे कोलोकेशिया एंटीकोरम नाम से जाना जाता है। अरबी का नाम लेते ही एक ऐसी सब्जी जेहन में प्रवेश कर जाती है जो गले में खराश पैदा कर देती है। भूमि के नीचे पाई जाती है। इसे कई नामों से जाना जाता है।  अरबी पौधे का हरा तथा कोमल तना होता है तथा पत्ते चौड़े एवं हृदय के आकार का होता है। इसके पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं  जो अनुकूल मौसम में अपना भोजन इक_ा करके तने के रूप में फूल जाते हैं और भूमि के नीचे आलू की भांति अरबी में बदल जाता है। अरबी में कैल्शियम ओक्जलेट पाए जाने के कारण गले में खराश पैदा हो सकती है। पत्तों के नीचे लंबे लंबे डंठल पाए जाते तथा भूमि के नीचे तना मोटा फूल जाता है। एक अरबी के पौधे के नीचे कई अरबी मिल सकती हैं।
अरबी को उष्णकटिबंधीय सब्जी माना जाता है। इसका तना ही प्रमुख रूप से लोग सब्जी के लिए प्रयोग करते हैं । इसका तीखा स्वाद होता है इसलिए सावधानी से पकाया जाता है।
 उत्तर प्रदेश बिहार राज्य में गुइया नाम से जानते हैं। अरबी अधिक लोकप्रिय सब्जी नहीं है किंतु इसमें फाइबर, प्रोटीन, पोटेशियम, विटामिन-ए विटामिन-बी, कैल्शियम तथा लोहा अधिक मात्रा में पाया जाता है। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इसके पत्तों की पकौड़ी बनाकर खाई जाती है। पत्तों की सब्जी भी बनाते हैं, कई जगह से व्रत में फलाहार के रूप में प्रयोग करते हैं। यह अनेक पदार्थों से भरपूर है। साथ में एंटी ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं इसलिए यह बहुत लाभप्रद होती है। जिन लोगों में उच्च रक्तचाप होता है उनके रक्तचाप को कम करती है। साथ में तनाव को दूर कर देती है क्योंकि इसमें पोटेशियम और मैग्नीशियम पाया जाता है। यह एंटी ऑक्सीडेंट, विटामिन-सी, विटामिन-ए होने के कारण कैंसर से भी बचाव करती है। मधुमेह रोगियों के लिए फाइबर प्रदान करती है जिससे ग्लूकोज की मात्रा का संतुलन बना रह सकता है।
इसके तनों को सब्जी के रूप में अधिक प्रयोग किया जाता है। क्योंकि इसमें कैल्शियम ऑक्सलेट होता है इसलिए कच्चा खा ले तो गले में खराश पैदा हो सकती है और नुकसान हो सकता है। यदि अरबी को रात भर ठंडे पानी में रखे तो इसमें कैल्शियम ऑक्सलेट खत्म हो जाते हैं। यह पौधा प्राचीन काल से उगाया जाता रहा है । यह पाचन तंत्र, मधुमेह, त्वचा के लिए, वजन घटाने के लिए मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए भी खाई जाती है परंतु अरबी जहां लाभप्रद है वहीं कुछ यह कुछ नुकसानदायक भी है। अरबी कुछ लोगों में लाभ नहीं करती। जो वात विकारों में पीडि़त व्यक्ति इसे नहीं प्रयोग न करें तो बेहतर होगा। अस्थमा से पीडि़त पत्तों की सब्जी न खाए तो अच्छा है। घुटनों में दर्द, खांसी अधिक आती है तथा प्रसव के बाद महिलाओं को नहीं खानी चाहिए क्योंकि यह  पेट में गैस बना सकती है।
वास्तव में यह एक कंद है। अरबी को कढ़ी पकोड़े तथा सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है। देखने में तो आलू जैसी लगती है लेकिन आलू से अलग होती है। इसका पौधा 2 फीट तक लंबा हो सकता है। तना हरे रंग का होता है इसका पत्ता दिल के आकार का होता है, अरबी सब्जी अंदर से चिकनी होती है, चिपचिपी होती है, सफेद रंग की होती है। अरबी पाचन क्रिया में भी लाभप्रद होती है। इसके पत्तों में फोलेट, फाइबर, राइबोफ्लेविन लोहा आदि पाए जाते हैं। गठिया रोग आदि में काम मिलाई जाती है। अरबी के चिप्स भी बनाकर लोग प्रयोग करते हैं। अरबी के उबालकर पराठे बनाते हैं, कोफ्ता भी प्रयोग किया जाता है, अरबी के पकोड़े बहुत प्रसिद्ध होते हैं। अधिक मात्रा में खाने से नुकसान हो सकता है।












     लेखक-डा होशियार सिंह यादव,कनीना

Sunday, April 3, 2022

                              सिंदूर पौधा
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 सिंदूर का पौधा
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बिक्सा ओरेलाला
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सिंदूर का नाम लेते ही सुहागिन महिलाएं याद आती हैं। सुहागिन महिलाएं अपनी मांग में सुहाग का प्रतीक सिंदूर भरती हैं। सिंदूर को सिंदूरी पौधा, आर्गेनिक सिंदूर कहते हैं। सिंदूर को कुमकुम/सिंदूर/वर्मिलियन/बिक्सा/अन्नाटो/कमीला आदि नामों से जाना जाता है। यह वह मुख्य पदार्थ है जो सुहागिन महिलाएं अपनी मांग में भरती हैं। वास्तव में सिंदूर पौधे से प्राप्त होता है जिसे आर्गेनिक सिंदूर कहा जाता है। सिंदूर को लिपस्टिक ट्री नाम से भी जाना जाता है।
सिंदूर दो प्रकार का होता है। बाजार का  रासायनिक सिंदूर जो पारा एवं शीशा आदि से भरपूर होता है जो शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। हिंदू धर्म में महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन का प्रमुख पदार्थ सिंदूर होता है। अक्सर दिमाग में आता होगा कि सिंदूर कैसे बनता है? वैसे तो लोग रासायनिक विधि से भी इसे भी बनाते हैं किंतु असली सिंदूर एक पौधे से प्राप्त होता है इसे लिपस्टिक ट्री नाम से जाना जाता है। सिंदूर लाल या नारंगी रंग का होता है। भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है। हिंदू, बौद्ध, जैन और कुछ अन्य समुदायों में विवाहित स्त्रियां अपनी मांग इससे भरती हैं। इसे बिंदिया के रूप में प्रयोग करते हैं। वास्तव में बाजार में उपलब्ध होने वाला सिंदूर और शीशे जैसे रासायनिक पदार्थ और विषैले पदार्थों से बना होता है जो शरीर के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है किंतु सिंदूर का पौधा अगर कहीं मिलता है तो आश्चर्य होता है कि एक अरंडी से मिलता जुलता पौधा होता है। जिसके फल भी अरंडी जैसे ही होते हैं, फलों में अरंडी जैसे ही बीज निकलते हैं। इसका फल लाल या दूसरे रंगों का हो सकता है। इसके बीज में लाल या नारंगी रंग का पदार्थ प्राप्त होता है जिसे सिंदूर कहा जाता है। वास्तव में यह वही सिंदूर है जो बहुत उपयोगी पदार्थ होता है। सिंदूर, पौधे के बीज से प्राप्त होता है इसके प्रयोग करने से सुख सौभाग्य की प्राप्ति माना जाता है। वास्तव में सिंदूर पूजा पाठ में प्रयोग किया जाता है। ऋषि मुनि इसे सौभाग्य वर्धक कहकर पुकारते हैं। यदि किसी पूजा पाठ में इसका प्रयोग नहीं किया जाए तो पूजा पाठ अधूरा ही माना जाता है। स्वास्थ्य के लिए हितकारी होता है। वास्तव में पौधे से जो सिंदूर तैयार किया गया यह सिंदूर लगाने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। वास्तव में यही ऑर्गेनिक सिंदूर कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि जब सीता बन में गई तब इन बीजों से ही अपने सुहाग सुरक्षा के लिए मांग में भरती रही। वास्तव में बजरंगबली हनुमान जी पर सिंदूर का ही लेप किया जाता है।
सिंदूर नसों में रक्त सप्लाई और मांसपेशियों को सक्रिय रखने का काम भी करता है। सिंदूर लगाने से शरीर में ऊर्जा की पूर्ति होती है। ऐसा माना जाता है माता सती और पार्वती की ऊर्जा का कारण भी सिंदूर ही था। भगवान राम के लिए हनुमान जी ने सिंदूर लगाया था वहीं देसी घी में सिंदूर डालकर दीपक जलाने से लाभ होता है।
सिंदूर का पौधा वास्तव में एक झाड़ीनुमा होता है जो बाद में बड़े पेड़ के रूप में बदल जाता है। इस पौधे की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके गर्मियों में फल लगते हैं जो फल लगते हैं तो नारंगी या लाल रंग के होते हैं। जो कुछ दिनों बाद पक जाते हैं और पकने के बाद से बीज प्राप्त होते हैं और बीजों से सिंदूर प्राप्त होता है। इसमें संयुक्त पत्ता पाया जाता है जिसमें जालिका शिरा विन्यास मिलता है। इसको देकर पूरे तने पर रोम मिलते हैं तथा यह पौधा अरंडी से मिलता-जुलता होता है। वास्तव में सिंदूर का पौधा गमले आदि में भी लगाया जा सकता है। यह पौधा हरा भरा होता है तथा कुछ लाल भूरे रंग की कलियां आती है जो धीरे धीरे फूलों में बदल जाती हैं। फूल सेलाल रंग के फल आते हैं इसके फल बिल्कुल  अरंडी के बीज से मिलते हैं जिसमें 4 से 5 बीज प्राप्त होते हैं। इन बीजों को तोड़ कर देखा जाए तो उन में सिंदूर भरा होता है। यही असली सिंदूर होता है।
अधिकांश बाजार में मिलने वाले सिंदूर रासायनिक पदार्थ से बनाए जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए घातक साबित होते हैं, एलर्जी आदि का रोग भी कर देते हैं। वैसे भी बाजार के सिंदूर में पारा और शीशा होने से शरीर के लिए घातक प्रभाव डालते हैं। ऐसे में खासतौर से सिंदूर






का पौधा उगाना चाहिए तथा उसे प्राप्त ही सिंदूर प्रयोग करना चाहिए।