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Sunday, May 31, 2020

शतावरी
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शतावरी
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सतावर
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शतावरी/औषधियों की रानी
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शतावर एकबीजपत्री हराभरा एक पौधा होता है जिसका वानस्पतिक नाम एस्पैरागस रेसीमोसस है।
इसमें प्रोटीन, थयमिन, राइबोफ्लेविन, नायसिन,  पैंटोथैनिक अम्ल,  विटामिन,  फोलेट, कैल्शियम, लोहतत्व, मैगनीशियम, फास्फोरस,
पोटैशियम, जस्ता,मैंगनीज आदि खनिज पाए जाते हैं।
सतावर अथवा शतावर एक लिलिएसी कुल का  औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे शतावर, शतावरी, सतावरी,सरनाई, सतमूल और सतमूली के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत के साथ साथ दूसरे देशों में भी उगाई जाती है।। इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त कांटेदार लता के रूप में मिलता। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। सर्दियों में यह पौधा सूख जाता है किंतु इस पर फूल एवं फल लगते हैं। फल बेरी के रूप में पाए जाते हैं। शतावर की लंबी बेल होती है जो हर तरह के जंगलों और मैदानी इलाकों में पाई जाती है। आयुर्वेद में इसे औषधियों की रानी माना जाता है। इसकी जड़ एक कंद के रूप में पाई जाती हैं। इसमें जो महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं।

 सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तनों में दूध की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जन के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के रूप में किया जाता है। इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज, कैंसर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। यह पौधा कम भूख लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है, उन्हें भी शतावर से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढिय़ा टॉनिक माना जाता है। इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है।
इसका उपयोग सिद्धा तथा होम्योपैथिक दवाइयों में होता है। इसका मूल यूरोप एवं पश्चिमी एशिया माना जाता है। इसकी खेती हजारों वर्ष से भी पहले से की जाती रही है। भारत के ठण्डे प्रदेशों में इसकी खेती की जाती है। इसकी जड़ों में कंद पाए जाते हैं मधुर तथा रसयुक्त होते हैं। यह पादप बहु-वर्षीय होता है। इसकी जो शाखाएं निकलतीं हैं वे बाद में पत्तियों का रूप धारण कर लेतीं हैं।

इसका उपयोग स्त्री रोगों जैसे प्रसव के उपरान्त दूध का न आना, बांझपन, गर्भपात आदि में किया जाता है। यह जोड़ों के दर्द एवं मिर्गी में भी लाभप्रद होता है। इसका उपयोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए भी किया जाता है।  इसका औषधीय महत्व भी है अत: अब इसका व्यावसायिक उत्पादन भी है। इसकी झाड़ी की पत्तियां पतली और सुई के समान होती है। इसका फल मटर के दाने की तरह गोल तथा पकने पर लाल होता है।
शतावर के पौधे को विकसित होने एवं कंद के पूर्ण आकार प्राप्त करने में 30 से 36 माह का समय लगता है। इसको पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होती है। चूंकि यह एक कंदयुक्त पौधा है अत: दोमट रेतीली मिट्टी में इसे आसानी से खोदकर बिना क्षति पहुंचाए इसके कंद प्राप्त किए जा सकते हैं। काली मिट्टी में जल धारण क्षमता अधिक होने के कारण कंद खराब होने की संभावना बढ़ जाती है।
भारत के मध्यप्रदेश के कुछ भागों में उपजने वाला यह औषधीय गुणों से भरपूर शतावर प्रचुर मात्रा में मिलता है। वहां के ग्रामीण अंचलों में शतावर को नारबोझ के नाम से भी जाना जाता है।

  शतावरी की जड़ का उपयोग मुख्य रूप से ग्लैक्टागोज के लिए किया जाता है जो स्तन दुग्ध के स्राव को उत्तेजित करता है। इसका उपयोग शरीर से कम होते वजन में सुधारने के लिए के लिए,कामोत्तेजक के रूप में भी जाना जाता है। इसकी जड़ का उपयोग दस्त, क्षय रोग तथा मधुमेह के उपचार में भी किया जाता है। सामान्य तौर पर इसे स्वस्थ रहने तथा रोगों के प्रतिरक्षण के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसे कमजोर शरीर प्रणाली में एक बेहतर शक्ति प्रदान करने वाला होता है।
यह फसल विभिन्न कृषि मौसम स्थितियों के तहत उग सकती है। यह सूखे के साथ-साथ न्यूनतम तापमान के प्रति भी वहनीय है।
इसे जड़ चूषक या बीजों द्वारा उगाया जा सकता जाता है। व्यावसायिक खेती के लिए बीज की तुलना में जड़ चूषकों को वरीयता दी जाती है।

शतावरी की रोपाई के करीब एक वर्ष बाद जड़ परिपक्व होने लगती है। जड़ को निकालकर सुखाया जाता है। जिसकी जड़ों में आयुर्वेद में अमृत कहा जाता है। शतावरी पुरुष और महिला में जा काम आती हुई। पशुओं के रोगों के लिए बहुत लाभप्रद है। स्वाद कड़वा है लेकिन कई बीमारियों में को दूर करती हैं। इसे जादुई औषधि नाम से भी पुकारा जाता है। शरीर को रोग मुक्त बनाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
यह विटामिनों की खान है। इसमें वे विटामिन पाए जाते हैं जो अन्य फल तथा सब्जियों में नहीं मिलते जिनमें विटामिन बी-1, विटामिन-ई तथा फोलिक एसिड का भी बेहतरीन स्त्रोत है। इसमें एंटीआक्सीडेंट भी पाए जाते यूरिन की परेशानी भी दूर करती है। शतावरी जहां पशुओं के लिए भी महत्वपूर्ण है। पशुओं के चारे में मिलाकर खिलाई जाती है। शतावरी की सब्जी भी बनाकर खाई जाती है। कैंसर में यह बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें ग्लूटाथिओन पाया जाता है जो शरीर की गंदगी को बाहर निकालता है। इसमें हड्डियों के कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर, लंग कैंसर, कोलन कैंसर रोगों को दूर भगाने की क्षमता होती है। जहां उच्च रक्तचाप की समस्या दूर होती हैं तथा दिल की बीमारी में भी लाभप्रद होती हैं। उनमें हृदय के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पोटैशियम बहुत अधिक पाया जाता है। ऐसे में यह रक्तचाप को नियंत्रित करता है। इसके अतिरिक्त शरीर में सेक्स पावर को बढ़ाता है। फर्टिलिटी से जुड़ी परेशानियों को दूर करता है। गर्भधारण में शतावरी फायदा देती है।

 शतावरी शुगर के इलाज में काम आती है। माइग्रेन के रोग को दूर करती है, नींद न आने की परेशानी, बुखार आदि में बहुत महत्वपूर्ण है। चूर्ण सिरप और कैप्सूल आदि कई रूपों में मिलती है। कुछ हालातों में इसका सेवन डाक्टर की सलाह से ही खाना चाहिए जैसे गर्भवती महिला, उच्च रक्तचाप प्रमुख है। शतावरी शरीर में हार्मोन को बैलेंस करती है अधिक प्रयोग करना नुकसानदायक हो सकता है। प्याज की एलर्जी में वाले लोग शतावरी प्रयोग कर सकते हैं। एलर्जी गुर्दे की पथरी वालों को यह प्रयोग नहीं करनी चाहिए।
आयुर्वेद में सबसे पुरानी औषधि है जिसका प्राचीन ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है। आयुर्वेद में सौ रोगों में लाभकारी मानी गई है। इसमें एंटी आक्सीडेंट होने के तनाव, बढ़ती उम्र में बहुत असरदार जड़ी-बूटी मानी जाती है। इसे आयुर्वेद में जड़ी बूटियों की रानी कहा गया है। इसे ऐस्पैरागस रेसिमोसस नाम से जाना जाता है। इसकी जड़ तथा पत्तियां बहुत उपयोगी है। चमकती हुई त्वचा प्राप्त करने के लिए बहुत लाभप्रद है, मधुमेह, अनिद्रा बुखार, खांसी आदि में भी लाभप्रद है।
पावर टोनिक के रूप में सेक्स पावर को बढ़ा देती है। इसे गर्म दूध के साथ सेवन करना चाहिए वही यौन विकारों में लाभप्रद है। शतावरी में अमीनो एसिड पाए जाते हैं। सतावर के चूर्ण को शक्कर में मिलाते हुए एक कप दूध में पिया जाता है। गर्भावस्था में इसका नियमित सेवन करने से भ्रूण को संक्रमण से बचाता है, वजन को कम करना हो तो महत्वपूर्ण है। हड्डियों के लिए लाभप्रद है क्योंकि इसमें लोहे की मात्रातािा कैल्शियम पाया जाता है। अश्वगंधा, शतावरी और आमलकी एक साथ लेने से बहुत लाभ होता है। शरीर के प्रतिरक्षी तंत्र को मजबूत बनाती है। अवसाद में लाभप्रद है वही नपुंसकता को दूर करती है। अश्वगंधा, शतावरी सफेद मूसली, कौंच आदि के बीज बहुत अधिक लाभप्रद होते हैं। प्रजनन प्रणाली के लिए भी यह महत्वपूर्ण है वहीं रजोनिवृत्ति में बहुत फायदेमंद है क्योंकि शतावर की तासीर ठंडी पाई जाती हैं। कब्ज और सूजन में, स्तनपान में भी यह बहुत लाभप्रद होती है। अत्यधिक सेवन करने से वजन बढ़ जाता है, रक्तचाप बढ़ सकता है। शतावर को दूध के साथ ही लेना लाभप्रद होता है। ऐसे में शतावर के लाभ के साथ नुकसान भी होते हैं।

** होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़, हरियाणा**










                                      शतावर
                        (एस्पैरागस रेसिमोसस)
शाक की रानी जिसे कहते
स्त्री का पक्का दोस्त कहाए
                   शतावर, शतावरी, शतामूल
                    कई नामों से जो जाना जाए,
शतावरी का अर्थ बड़ा गूढ
एक सौ रोगों को दूर करती
                    पत्तों के स्थान पर पत्ता शूल
                  स्त्रियों के कई ये रोग हरती,
भारत और कई देशों में मिले
जड़ लंबी शकरकंदी जैसी है
                     फल बेरी,तने पर कांटे मिले
                    शाक एक बेल जैसी होती है,
गेस्ट्रिक अल्सर को दूर करती
स्त्रियों में दूध की मात्रा बढ़ाए
                  कैंसर,हैजा,टीबी में काम आए
                 जन में काम वासना को बढ़ाए,
बेहतर यह स्वास्थ्य टोनिक है
शुगर को भी कर देती यह दूर
                  मूत्र रोग हो या महिला के रोग
                  वार करके कर देती चकनाचूर,
गमलों और पार्क में मिलती है
हिमालय पर्वत पर पाई जाए
              सैकड़ों शकरकंदी जैसी जड़
               खाए तो कई रोगों को भगाए,
कई क्षेत्रों में इसकी खेती हो
आयुर्वेद में कई नाम कमाए
                     रोगों को जड़ से उखाड़ फेंके
                     


ले आओ घर में इसे लगाए।।
***होशियार सिंह, लेखक, कनीना**

Saturday, May 30, 2020


















फराश
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फ्रास
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एथेल का पेड़, पत्ती रहित इमली, एथेल इमली, मोरक्को की ताली
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टमारिक्स अफिला
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एथेल इमली, एथेल ट्री, ऐथेल पाइन और साल्टेडर
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फराश विशालकाय पेड़ होते हैं। यह एक सदाबहार वृक्ष है जो जो कई देशों में पाया जाता है। यह शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है। यह खारा और क्षारीय मिट्टी के लिए बहुत प्रतिरोधी है।
  फ्रास ऊंचे पेड़ के रूप में बढ़ता है। छोटी पत्तियों को शाखाओं के साथ बढ़ता है और नमक को बाहर निकाल दिया जाता है। यह नमक नीचे जमीन पर टपकता है जिससे जमीन पर पपड़ी बन जाती है।
यह शुष्क क्षेत्रों में कृषि और बागवानी में पवन रोकने और छाया वृक्ष के रूप में उपयोग किया जाता है। इसकी उच्च आग अनुकूलन क्षमता के कारण इसे आग में बाधा के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके पत्तों में नमक की मात्रा अधिक होने के कारण  आग नहीं पकड़ता तथा यही हालात इसकी सूखी लकड़ी की होती है। आग लगने के बाद भी यह पुन: जीवित हो जाता है जब तक कि समूल नाश न हो जाए।
फराश के फूल उच्च गुणवत्ता का शहद पैदा करते हैं। यह दो क्षेद्धों की सीमा पर अक्सर लगाए जाते हैं ताकि लंबे समय तक बने रहे। ऑस्ट्रेलिया में एक गंभीर खरपतवार और आक्रामक प्रजाति बन गया है। आस्ट्रेलिया में राष्ट्रीय महत्व का एक खरपतवार माना जाता है।
 अमेरिका के रेगिस्तान में छायादार वृक्ष के रूप में उपयोग किया जाता है। यह गंभीर आक्रामक प्रजाति है।
इसे बिना पत्तों का पौधा माना जाता है। उर्दू और हिंदी में इस पेड़ को फराश कहा जाता है। इससे
एक मीठा मन्ना जैसा पदार्थ जो टहनियों पर बनता है, गन्ने की चीनी को मिलाते हैं एक ताज़ा पेय बनाने के लिए इसे दलिया आदि के साथ भी खाया जा सकता है या पानी के साथ मिलाया जा सकता है।
येे गरारे करने के रूप में उपयोग किए जाते हैं। इसकी छाल कसैला और कड़वी होती है। इसका उपयोग एक्जिमा और अन्य त्वचा रोगों के उपचार के लिए किया जाता है।
अपनी तेज वृद्धि, गहरी और व्यापक जड़ प्रणाली के कारण यह प्रजाति कटाव नियंत्रण के काम आती है। यह तटीय उद्यानों में एक अच्छा आश्रय स्थल बनाता है।
पत्तियों से नमक टपकने से पेड़ के नीचे की सभी जमीन की वनस्पतियां मर जाती हैं। हाईवे या रेलवे लाइनों के किनारे आग फैलने से रोकने के लिए फराश लगाते हैं।मिट्टी की प्रकार ज्ञात करने के लिए यह पौधा उगाया जाता है।

छाल टैनिन का एक स्रोत है जो रंगाई के समय इसका उपयोग किया जाता है।  टहनियों और फूलों पर उत्पादित गैस में 55 प्रतिशत तक टैनिन होता है।
शाखाओं का उपयोग टोकरी बनाने में किया जाता है। हल्की-भूरी लकड़ी घनिष्ठ, काफी कठोर, भारी, मजबूत होती है। इसका उपयोग हल, पहिए, गाड़ी, निर्माण, उपकरण के हैंडल, आभूषण, बढ़ई गीरी, फर्नीचर और फलों के बक्से बनाने के लिए किया जाता है।
लकड़ी का उपयोग ईंधन के लिए और लकड़ी का कोयला बनाने के लिए किया गया है। यह बहुत अच्छी तरह से जलता है, हालांकि यह आग पकडऩे के लिए धीमा है।
अगर लकड़ी को जला दिया जाता है तो लकड़ी एक विशेष गंध देती है।
यह बीजों द्वारा या कायिकवर्धन अर्थात पौधे की टहनी आदि तोड़कर लगा देने से पैदा हो जाता है।कुछ जगह इसकी टहनी का इस्तेमाल चारे के रूप में और ऊंटों में खुजली को ठीक करने के लिए किया जाता है। भारत में छाल का उपयोग एक  एक्जिमा जैसे त्वचा विकारों के इलाज के लिए किया जाता है। एक सहायक पौधे के रूप में, टैमरिक्स एफि़ला, टिंचर, मिट्टी के संरक्षण और स्थिरीकरण और आश्रय और पवनचक्की के रूप में अच्छी तरह से अनुकूल है।यह आग को रोकने के लिए प्रभावी है क्योंकि पत्तियों में नमक होता है। छाल को कभी-कभी चमड़े के उत्पादन में और रंगाई में उपयोग किया जाता है।
फराश की एक प्रजाति बंज एक छोटा पेड़ है जिसकी लकड़ी का उपयोग घर के निर्माण और जलाऊ लकड़ी के लिए किया जाता है।  छाल  उपयोग बुखार और सर्दी के इलाज के लिए किया जाता है। इसकी एक प्रजाति सेनेगल में टहनियों से बने काढ़े को आंखों के रोग को ठीक करने के लिए किया जाता है।
इसकी एक प्रजाति की पत्तीदार शाखाओं को पशुधन द्वारा खाया जाता है। दस्त और अपच को ठीक करने और पेट के दर्द को दूर करने के लिए जड़ों का काढ़ा पिया जाता है।
एफीला की लकड़ी का पाउडर ते
ल में तला जाता है। यह मवाद के उपचार के लिए प्रयोग होता है। इसकी लकड़ी का पेस्ट जले हुए स्थान पर लगाया जाता है।
सफेद धब्बों को दूर करने के  लिए , फोड़ा के इलाज में दाद के इलाज में, एंटीऑक्सीडेंट गतिविधियों और घाव भरने के लिए उपयोग किया जाता है। सूजी हुई तिल्ली को ठीक करने के लिए काढ़े का उपयोग लोशन के रूप में किया जाता है।  एक्जिमा, हेपेटाइटिस और अन्य त्वचा रोगों के उपचार के लिए उपयोग किया जाता है।
   कुछ लोग फराश को फ्रांस भी कहते हैंकिंतु इसका फ्रांस देश से कोई संबंध नहीं है।फराश की पत्तियों से गुजरती हवा बहुत तेज सायं सायं करती है।. यह अन्य पेड़ पौधे की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ता है। इसके अलावा इसकी गर्मी सहने की क्षमता होती है। यह भीषणतम गर्मी में भी बढ़ता है।
फराश की पत्तियां मोरपंखी के पेड़ की तरह कटी फटी और बारीक बारीक होती हैं। थोड़ी सी भी हवा चलने पर उनमें तेज आवाज होती है।

**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**

फराश
           (टमारिक्स एफिला)
मान
की भूख बढ़ी जब
                             कर दिया प्रकृति विनाश
दिनोंदिन कठिन हो गया
                           शुद्ध हवा में लेना सांस,
प्रकृति को शुुद्ध बनाता है
                         आग रोकता पौधा फराश
खत्म किया इसका जीवन
                        होने लगा जग में उपहास,
एथेनपाइन, एथेनट्री जैसे
                       सदाबहार ये पेड़ कहलाए
पत्ते इस पर नहीं मिलते हैं
                      अत: ये एफिलो कहलाए,
नम आद्र्र जगह पर मिलते
                      देश विदेश में नाम कमाए
फूल आते बीज भी बनते
                     खार से ये प्रतिरोध जताए,
अति कठिन इसको जलाना
                       नमक की मात्रा पाई जाए
छांव देने में अग्रणी होता है
                      आग रोकने को इसे लगाए,
मिट्टी कटाव को ये रोकते
                      चारकोल,लकड़ी, टेनीन दे
एंटी आक्सिडेंट प्रदान करे
                     कभी तो इसका सहारा ले,
लपसी बनाकर इसे खाते हैं
                    ड्रिंक बनाकर इसे पीते हैं
कितने जीव इस पर रहते
                    ये लोगों को सहारा देते हैं,
बचा लो इन पेड़ पौधों को
                  वरना जन तबाह हो जाएगा
सोच समझकर कदम बढ़ा
                नहीं लौट कर वक्त आएगा।
***** होशियार सिंह, लेखक, कनीना**  


Friday, May 29, 2020


कचरी 
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कुकुमिस पुबिसेंस
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कचरी खीरा कुल का बहुत महत्वपूर्ण जंगलों में मिलने वाला फल है। प्राय बेल पर लगता है। इसे वैज्ञानिक भाषा में कुकुमिस पुबिसेंस नाम से जाना जाता है।
  राजस्थान में बहुत अधिक मात्रा में जंगलों में पैदा होती है। अपने आप भी पैदा होने के कारण यह जंगली बेल वाला पौधा है। स्वाद में कड़वे फल होते हैं। फलों पर धारियां पाई जाती है। बेल पर कई शाखाएं पाई जाती हैं जो 20 फुट लंबी हो सकती है। एक बेल पर कई कचरी के फल लगते हैं। कच्चे फल हरे रंग के होते हैं जो पकने के बाद पीले रंग के हो जाते हैं। कभी-कभी कचरी लाल रंग की भी पाई जाती है। फल की विशेषता है कि है बेल से अपने आप ही पककर अलग हो  हो जाती है। एक कचरी में सैकड़ों बीज पाए जाते हैं। जब फल पक जाता है तो स्वाद खट्टा मीठा हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कई रूपों में प्रयोग किया जाता है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों का प्रमुख गर्मियों का आहार, सब्जी कचरी है।
कचरी, ककड़ी, खीरा,खरबूजा आदि एक कुल से संबंधित रखती है। इस पौधे की बेल गर्मियों के मौसम में बारिश के समय बहुत अधिक मात्रा में उत्पन्न होती है और दूरदराज तक फैल जाती है। इस पर प्राय पीले फूल आते हैं और फूल के बाद फल लगते हैं। कचरी की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह पक जाने के बाद खुशबू देने लग जाती है। एक विशेष प्रकार की महक कचरी से आती है। प्राय कचरी बेलनाकार होती है। कचरी का पौधा स्वाद में बहुत कड़वा होता है।
  हरे रंग की कचरी भी कड़वी होती है। इन्हें पशु बड़े चाव से खाते हैं। कचरी पथरी में बहुत फायदेमंद चीज है। कचरी जहां स्वाद में कड़वी होती है बाद में कुछ मीठी भी बन जाती है। इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन-सी पाया जाता है जो अनेक पौष्टिक तत्व की खान है।
 गर्म तासीर वाले लोगों को यह नहीं खानी चाहिए। कचरी विटामिन-सी के कारण जुकाम सर्दी से बचाती है। ग्रामीण क्षेत्र के लोग लाल मिर्च की चटनी बनाकर इसे बड़े चाव से खाते हैं ताकि उन्हें सर्दी से राहत मिल जाए। कचरी ग्वार की फली के साथ मिलाकर सब्जी के रूप में बाजरा या मक्की की रोटी के साथ चाव से खाते हैं जो पेट के रोगों को दूर करती है।

कचरी शरीर में पथरी को भी तोड़कर बाहर निकाल देती है। ऐसे में कची बहुत काम की चीज है। जब बेल से अलग होती है तो इसका पकने का एहसास होता है। कचरी खरीफ फसल के साथ अपने आप पैदा होती है। आयुर्वेद में इसक बहुत लाभ बताए हैं। आयुर्वेद में से मृर्गाक्षी कहा जाता है। यह जुकाम, पित्त, कफ एवं मधुमेह आदि रोगों में लाभप्रद मानी जाती है। बिगड़े हुए जुकाम को भी दूर कर देती है। जिन लोगों में गैस की समस्या हो तो उन्हें भी लाभ पहुंचाती है। बवासीर में कचरी की धूनी देना लाभप्रद होता है। यह वायु विकारों को शरीर से दूर कर देती है। यहां तक की कचरी को सुखाकर भी सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह रुचि को बढ़ाती है, पेट के कीड़ों को नष्ट कर देती है। कचरी के लगातार सेवन करने से जहां पेट के रोगों से छुटकारा मिलता है वही लकवा जैसी समस्या भी दूर हो जाती है। कचरी के बीजों को पीसकर सरसों के तेल का मिलाकर लकवा वाले स्थानों पर लेप किया जाता है जिससे लकवा समाप्त हो जाता है।
कचरी सिरदर्द, दस्त, बुखार आदि को दूर कर देती है। यह दिल और दिमाग को भी ताकत देने वाला फल है। प्राय ग्रामीण क्षेत्रों में सब्जी के रूप में बहुत प्रयोग करते हैं। चटनी भी प्रसिद्ध होती है। कचरी को विभिन्न सब्जियों में डालते हैं यहां तक कि खाटा का साग, कढ़ी आदि में भी कचरी का उपयोग किया जाता है। इसे कच्चा भी खाया जाता है वहीं सीधे सब्जी बनाकर खाया जाता है। कजरी को सुखाकर भी लंबे समय तक प्रयोग किया जाता है। कचहरी एक खरपतवार है जो खरीफ की फसल में अपने आप उग जाती है और फसलों को नुकसान पहुंचाती है। कचरी के पत्ते चौड़े और  कड़वे होते हैं। इसे विभिन्न क्षेत्रों में कई नामों से जाना जाता है। काचरी, गुराड़ी आदि भी इसी के नाम है। कचरी एक जंगली बेल है जिसे सब्जी के रूप में अधिक प्रयोग करते हैं। यह बिगड़े हुए जुकाम, पित्त, कफ  आदि में बेहतरीन दवा मानी गई है।
भागदौड़ की जिंदगी में इंसान कुछ तेज मसाले एवं फास्ट फूड खाने का शौकीन बनता जा रहा है। जंक फूड का परिणाम है कि इंसान के पेट की कई बीमारियां। उदर की बीमारियां कई रोगों को कारण बन सकती है। पेट को साफ रखने व सादा खाना खाने में  हरियाणा में प्रकृति में बहुतायत में मिलने वाला फल एवं सब्जी कचरी। कड़वी बेल पर मधुर एवं विटामिन सी से भरपूर फल लगते हैं।
 हरियाणा में कहने को तो बारिश कम होती है तथा नहरों में पानी कम आता है किंतु प्रकृति में अनमोल पदार्थ पैदा होते हैं। यहां खरपतवार के नाम पर अनेकों ऐसे पौधे उगते हें जो कोई काम नहीं आते हैं जिनपर भारी मात्रा में धन खर्च करके दवाएं छिड़कनी पड़ती हंै या फिर उन्हें हाथों से उखाड़कर फेंकना पड़ता है। इतनी मेहनत करने के बावजूद भी उनकी कृषि पैदावार पर्याप्त नहीं हो पाती है। किसानों के यहां रबी मौसम में जहां बथुआ नामक खरपतवार लाभकारी होती है वहीं खरीफ मौसम में कचरी व चौलाई जैसी खरपतवार पर्याप्त होती हे जो किसानों के लिए उपहार बनकर आई है। रेतीली मिट्टïी होने के कारण यहां सबसे अधिक कचरी पैदा होती है जिससे किसान ही नहीं अपितु गरीब तबके के लोग अपनी रोटी रोजी कमा लेते हैं। यह एक ऐसा उपहार है जिसे फल के रूप में भी खाया जाता है वहीं सब्जी के रूप में भी पकाया जाता है। दुकानों पर आम मिलता है।

  कचरी एक बेलदार पौधा होता है जिसे किसान कभी नहीं उगाता अपितु खेतों में अपने आप उग जाता है और भारी मात्रा में फल लगते हें। ये फल जब तक कच्चे होते हैं तब तक कड़वे होते हें और जब पककर पीले रंग के हो जाते हैं तो खट्टïे मीठे बन जाते हैं। एक समय ऐसा आता है कि फल बेल से अलग होकर गिर जाते हैं और बाद में गल सड़कर मिट्टïी में ही मिलकर अगले मौसम में स्वयं पैदा हो जाते हैं। जब बाजरा एवं ग्वार काटाई की जाती है तो कचरी को उठाकर किसान अपने घरों में लाते हें जिसे सूखाकर या फिर बगैर सूखाए ही काम में लेते हैं। बाजार में कचरी की भारी मांग है और यह पांच से दस रुपये किलो के हिसाब से बिकती हैं। यही कारण है कि कुछ गरीब तबके के लोग खेतों एवं नहरों आदि के किनारे से कचरी तोड़कर लाते हैं और ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में जमकर बेचते हैं।
     ग्रामीण खानपान में कचरी नामक फल एवं सब्जी का अहं योगदान रहा है। ग्रामीण किसानों के लिए प्रकृति का अनमोल उपहार कचरी आजकल भारी मात्रा में उत्पन्न हो रही है। यूं तो किसानों के लिए कचरी एक खरपतवार है किंतु टमाटर का विकल्प कचरी ही है।  किसानों के खेतों में स्वयं पैदा होने वाली कचरी की तरफ किसानों का रुझान बढ़ रहा है। किसान अब इसे बाजार में बेचने लगे हैं और खरीदने वालों की संख्या भी कम नहीं है। अंग्रेजी दवाओं से परेशान मरीज भी देशी फल एवं सब्जियों का सहारा लेने लगे हैं जिनमें कचरी भी एक है। बिना खाद व पीड़कनाशी के ये फल लगने के कारण टमाटर व निम्बू का विकल्प बनता जा रहा है।
 खरीफ फसल के साथ किसानों के खेतों में स्वयं उत्पन्न होने वाली कचरी किसान के लिए ही नहीं
अपितु गरीब तबके के लोगों के लिए भी आय का जरिया बनती जा रही है। विटामिन, कार्बोहाइड्रेट एवं खनिज लवणों से परिपूर्ण कचरी को शहरी लोगों का खास फल व सब्जी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। बाजार में सब्जी की दुकानों पर भी भी कचरी को देखा जा सकता है।
   यह किसानों के खेतों में बगैर उगाए ही भारी संख्या में कचरी पैदा हो जाती है जिसे लेने के लिए दूर दराज से लोग आते हैं विशेषकर वे लोग 
जो बाजार की कीटनाशी व उर्वरकों से परिपूर्ण सब्जियों को खाकर तंग आ चुके हैं। इस फल को वे चाव से कच्चा तो खाते ही साथ में सब्जी के रूप में भी जायका बढ़ाते हैं। ग्रामीण महिलाओं का कहना है कि टमाटर व निम्बू की जगह पकी हुई सब्जियों में कचरी का सेवन बेहद स्वादिष्टï बन जाता है। ग्रामीण लोग तो चटनी बनाने में जहां माहिर होते हैं वहीं वे कचरी की चटनी बनाकर मेहमानों को भी परोसते हैं। ग्रामीण महिला लाली, धापा व कमला ने बताया कि वे कचरी को कई प्रकार की सब्जियों में डालते हैं और सब्जियों का जायका बढ़ाती हैं। जब अधिक मात्रा में कचरी पैदा होती है तो उनका उपयोग सूखाकर किया जाता है। इन फलों को काटकर धूप में सूखा लिया जाता है तथा समयानुसार उन्हें विभिन्न सब्जियों के बनाने में उपयोग किया जाता है।
  दैनिक रेहड़ी लगाने वाले  कचरी बेचकर वे अपनी रोटी रोजी कमा लेते हैं। प्रतिदिन दस किलो तक कचरी बेचकर साठ से सत्तर रुपये कमा लेते हैं जो उनके परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त है। एक वक्त था कि लोग कचरी खरीदने से डरते थे किंतु अब तो आम जन भी कचरी खरीदने लगा है। ऐसे में गरीबों का गुजारा चलता है। वनस्पतिशास्त्र में स्नातकोत्तर
एचएस यादव ने बताया कि कचरी शरीर में अमलों की पूर्ति करती है। इस फल में विटामिन सी, कार्बोहाइड्रेट व खनिज लवण पाए जाते हैं जो शरीर के लिए लाभप्रद होते हैं। इस वक्त कचरी का उत्पादन शुरू हो गया है जो वर्ष के अंतिम माह तक चलता रहता है। जब किसान खेत से बाजरे की फसल की कटाई करने लगते हैं तो उनके सामने कचरी भारी मात्रा में आती हें जिन्हें ग्रामीण इकट्ठी करके घरों में लेन-देन में प्रयोग करते हैं। कचरी की गुणवत्ता को देखते हुए अब तो होटलों में भी कचरी को प्रयोग होने लगा है।
             क्या-क्या बनाते हैं कचरी से ग्रामीण-
ग्रामीण लोगों से कचरी के पकवानों के विषय में बातचीत करने पर महिलाओं ने बताया कि कचरी से जायकेदार चटनी बनाई जाती है और हर सब्जी में डालकर टमाटर व निंबू की कमी को दूर किया जाता है। कढ़ी व देशी सब्जियों के निर्माण, सूखाकर पाउडर बनाकर सब्जियों का स्वाद बदलने, पकने पर फल के रूप में खाने व कुछ पेट के रोगों के इलाज में दवाइयां बनाने के लिए कचरी का उपयोग किया जाता है। उनका कहना है कि ग्रामीण लोग जो महंगी सब्जियां नहीं खरीद पाते उनके लिए कचरी उत्तम सब्जी का काम करती है। कचरी की चटनी बनाकर छाछ के साथ अति स्वादिष्टï लगती है।
किन-किन रूपों में खाया जात है--
कचरी को कच्चे रूप में फल की भांति खाया जाता है। बच्चे हो या बूढ़े इसे चाव से खाते हैं। अत: दोनों ही रूपों में इसका सेवन लाभकारी माना जाता है। इसे कई सब्जियों में डालकर प्रयोग किया जाता है। किसानों के लिए यह खरपतवार के रूप में उगता है और दीपावली के पर्व तक मधुर फल देता रहता है। किसान इसे कभी उपजाता नहीं है। कई रंगों एवं रूपों में यह पाई जाती है।


     कचरी
       (कुकुमिस पुबिसेंस)
किसानों के खेतों में खुद
                    उगकर फैलती ही जाए
कई रंगों में फल मिले
                    कचरी फल वो कहलाए,
ताजा कचरी तरबूजे जैसी
                    खीरा की प्रकार कहलाए 
हरी और पीली रंग में हो
                       खट्टी मिट्ठी कचरी कहलाए,
पूरे विश्व में मिले यह फल
                     पकी और सूखी काम आए
राजस्थान का बेहतर फल
                     जन-जन में पहचान बनाए,
ग्रामीण किसान खेतों से तोड़
                   अपने घर में लेकर आते हैं
विभिन्न प्रकार से प्रयोग करे
                  चटनी एवं सब्जी खूब बनाएं,
जब पककर गिरे इसे सुखाते
                     पाउडर पीसकर फिर बनाते
कितने रोगों में रामबाण पदार्थ
                       फोड़ फुंसी हो तो इसे लगाते,
उत्तेजक टानिक कचरी होती
                     विभिन्न नामों से जग में जाने
राजस्थान में कई पकवान बने
                     कचरी की चटनी को जग माने,
कचरी सूखा पाउडर बना ले
                      वो कचरी का पाउडर कहलाए
जब भी घर में सब्जी बनाए तो
                    कचरी पाउडर स्वाद को बढ़ाए,
पेट रोगों में औषधि कहलाती
                   खाने का जग में स्वाद बढ़ाती
सूखे को भी सहन कर लेती है
                    कचरी की नहीं खेती की जाती,
आमचूर का विकल्प बेहतर है
                    पकने पर सलाद के काम आए
प्रोटीन व खनिजों से भरी हुई है
                    बच्चे और बूढ़ों के मन को भाए,
टमाटर की जगह काम में लेते
                    गरीब जनों की बेहतर है सब्जी
होटलों में अब यह जा पहुंची
                    तोड़ डालती है पेट की कब्जी,
प्रकृति का अनमोल उपहार यह
                     मारवाड़ी व्यंजनों में होती मशहूर
शरीर में ठंडक देने वाली होती
                      शरीर की गर्मी को कर देती दूर,
बड़े काम की जंगली कचरी है
                    पक जाए तो ले आओ इसे घर
खूब मजे से पकाकर खाते रहो
                    नहीं अब किसी रोग का है डर।।
         

***होशियार सिंह, लेखक, कनीना***
    















  *होशियार सिंह,लेखक,कनीना,हरियाणा**

Thursday, May 28, 2020

जाटी
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खेजड़ी/शमी/सांगरी
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जांट/जांटी/सांगरी/ जंड/कांडी/शमी/सुमरी 
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किसानों का चंदन
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प्रोसोपिस सिनेरेरिया
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जाटी/खेजड़ी/शमी/सांगरी एक वृक्ष है जो भारत सहित कई देशों में पाया जाता है। राजस्थान से जुड़े थार के मरुस्थल, हरियाणा एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। हरियाणा में तो इसे किसानों का चंदन कहते हैं। यह बहु उपयोगी वृक्ष होता है। दवाओं में भी काम आता है।
जाटी कई नामों से जाना जाता है जिनमें खेजड़ी/ जांट/जांटी/सांगरी/ जंड/कांडी/शमी/सुमरी प्रमुख हैं। इसका व्यापारिक नाम कांडी है। यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहां इसके अलग अलग नाम हैं। बेंथम एवं हुूकर द्वारा दिया गया द्विनाम पद्धति अनुसार इसे प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है। खेजड़ी का वृक्ष जेठ की दुपहरी में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब इसके पत्ते जिन्हें लोंग/लूंग कहते है, पशुओं का उत्तम चारा होता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगर/सांगरी कहलाता है जो अति पौष्टिक होता है जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर झींझ/खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसे  इकट्ठा करके लंबे समय तक खाते हैं। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल एवं फर्नीचर बनाने के काम आती है। अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। इस लिए इसे रेगिस्तान का सहारा तथा किसानों काचंदन नाम से जाना जाता है। सन् 1899 में भयंकर अकाल पड़ा था जिसको छपनिया का अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर/आटे की भांति पीसकर खाकर जिन्दा रहे थे। वैसे तो सभी पेड़ों के नीचे फसल पैदावार नहीं होती किंतु जाटी के पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।
जांटी का सांस्कृृतिक महत्व भी है। इसकी लकड़ी हवन में काम आती है जिसे समिधा कहते हैं। दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा भी है। यही नहीं जब कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है तो गुगा/लटजीरा एवं शमी/जांटी की पूजा करके जोहड़ में  विधि विधान से बहाने का रिवाज चला आ रहा है। रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। पांडव जब 13 वर्षों का अज्ञातवास बीता रहे थे तो 13वें वर्ष राजा विराट के यहां अज्ञातवास बीताने के लिए अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष जाटी के पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है। शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। शनिवार के दिन शमी की समिधा का विशेष महत्व बताया गया है। यह जाटी राजस्थान में खेजड़ी नाम से जाना जाता है जिसे 1983 में इसे राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष घोषित किया गया था। जो इसके महत्व को इंगित करता है।
 इस पौधे पर कांटे पाए जाते हैं। पत्तों का आकार बहुत छोटा होता है किंतु पेड़ पर हरे रंग के फल लगते हैं, पीले रंग के फूल आते हैं। तत्पश्चात हरे रंग के फल बनते हैं
यह फल धीरे-धीरे पक जाते हैं तो झींझ बन जाती है जिनमें स्वाद मीठा हो जाता है। उसका फल बहुत अधिक प्रोटीन युक्त है। इसलिए यह बहुत लाभकारी है। इसके पत्तों में जहां प्रोटीन नाइट्रोजन पाया जाता है। इसलिए धरती पर गिरने से नाइट्रोजन की पूर्ति करता है। यही कारण है कि
जांटी के नीचे फसल ज्यादा पैदावार देती है। इसके फलों को काटकर सूखा लिया जाता है और लंबे समय तक विभिन्न सब्जियों में डालकर जायकेदार सब्जियां बनाई जाती हैं। इसकी सब्जी बड़े-बड़े होटलों में भी काम में लाई जाती है जो बहुत महंगे दामों पर बिकती है।
यह पौधा कोशिकाओं एवं उत्तकों में विशेष प्रभाव डालता है। इसके फूल चीनी में मिलाकर गर्भवती महिलाओं को खिलाया जाता है ताकि गर्भपात न हो। इस पौधे की राख को त्वचा पर रगड़ कर बालों को हटाया जाता है। जाटी का तना बहुत महत्वपूर्ण काम आता है। दमा, अस्थमा, दस्त बिच्छु काटे का इलाज, बवासीर, दिमाग को शांत करने के काम आता है। इसके पत्तों की धुआं आंखों के लिए नुकसान कर सकती है।
यह पौधा नाइड्रोजन अधिक छोड़ता है तथा इसकी जड़ भी गहराई तक जाती है दूसरे पौधों के लिए लाभकारी साबित होता है। इस पौधे को मिट्टी कटाव के लिए तथा भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए भी उगाया जाता
है। इससे गम प्राप्त होता है जिसके पत्तों तथा तने के छिलकों से रंग प्राप्त होता है। इसमें पोटेशियम तत्व की अधिक मात्रा पाई जाती है जिसकी लकड़ी घरों के बनाने में तथा विभिन्न टूल बनाने के काम में लाई जाती है। यहां तक कि है जलाने के काम में लाई जाती है। किसान कभी विवाह शादी में इसी का उपयोग करते थे। इसके बीज एक ही फल में कई कई पाए जाते हैं जो एक साल तक धरती पर पड़े रहते हैं फिर से उग जाते हैं। यह कम पानी में भी उगता है और लंबे समय तक खड़ा रहता है। यहां तक की भेड़ बकरी, गाय, भैंस आदि पालने वाले इस पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। पशुओं को चारे के रूप में जहां पत्ते फल खिलाए जाते हैं वही यह उन जीवों के लिए छाया भी प्रदान करता है।
जाटी का पौधा बहुत से रोगों का इलाज भी काम में लाया जाता है। पशुओं के रोगों को दूर करने के काम में भी लाया जाता है। इसकी 44 विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। 18 फीसदी प्रोटीन पाया जाता है वही 2 फीसदी तेल 21 फीसदी फाइबर पाए जाते हैं। उसके बीज में पाए जाने वाला तेल ओलिक एसिड होता है जिसमें लीनोलिक एसिड भी पाया जाता है। इसके पत्तों में जहां कैल्शियम फास्फोरस, पोटाशियम अधिक पाया जाता है वही स्वास्थ्य के लिए इसका बहुत महत्व है। मानव के लिए विभिन्न प्रकार की सब्जियां इसके फलों से बनती यहां तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में बनने वाली कढ़ी और खाटा का साग बहुत स्वादिष्ट बनता है। जहां तक की इसके फलों का अचार भी बनाया जाता है।
जाटी के फलों में सूक्ष्म जीवों को रोकनेकी भी क्षमता











पाई जाती है वही एंटीऑक्सीडेंट और शुगर के इलाज में उपयोगी है।
**होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़ हरियाणा 




    जांटी
    (प्रोसोपीस सिनेरेरिया)
सुख दु:ख  का  साथी
जांटी  पेड़  कहलाता
राजस्थान का खेजड़ी
किसान के काम आ
ता,
                              शमी, सांगरी, कांडी
                             जंड इसके सब नाम
                             1880 में पड़ा
काल
                           छीलके आए थे काम,
फसल का है रक्षक
दशहरे को होती पूजा
500 वर्ष जीवित रहे
आता इंसान के काम,
                      श्रीराम  का  प्रमुख  पेड़
                      अर्जुन ने छुपाया धनुष
                     जन्माष्टमी को हो पूजा
                    यज्ञ करता इससे मनुष्य,
बिना पानी रहे जीवित
जड़ करती नहीं स्पर्धा
हर भाग इसका कीमती
यह बढ़ाए शक्ति मृदा,
                     राजस्थान का राज्य पेड़
                      1988 में चलाई टिकट
                     1730 में खेजरली में
                    आई थी समस्या विकट,
अमृता देवी का चिपको
363 लोगों  ने  दी जान
कल्पतरु यह कहलाता
रेगिस्तान की है शान,
                    वंडर ट्री यह कहलाए
                   राजस्थान का है राजा
                  छिलका कहाए अमृत
                 रोगों का बजाए बाजा,
फल हरे इसके सांगरी
सब्जी में आते है काम
सूखे मेवे सूखे फल हैं
खाओ सुबह और शाम,
                        अचार,कढ़ी और भाजी
                       कितने इसके हैं उपयोग
                       पत्ते जांटी कहलाए लूंग
                       पशु पक्षी करते उपभोग,
ईंधन, फर्नीचर, समीधा
नाइट्रोजन को यह सोखे
गर्मी, सर्दी शरण ले लो
यह नहीं दे कोई धोखा,
                        कोढ़, दमा  व  बवासीर
                        कई रोगों से यह बचाता
                      पक्षी कोई इस पर आए
                     खुुद हंसता उसे हंसाता,
रावण दहन के पश्चात
जन लूटकर लाते शमी
कर लो प्रशंसा इसकी
जांटी में नहीं है कमी,
                        शोध कर लो इस पर
                       पौधा बड़ा ही उपयोगी
                       नहीं पाया इसका भेद
                       पच मरे योगी व भोगी,
कई देशों में यह मिलता
फिर सुंदर फूल खिलता
गर्मी के दिन जब आए
लंबा फल एक लगता,
                          किसान का होता साथी
                          इस पर जलाओ दीया
                        बेहतर फल लगेंगे यहां
                         पेड़ पर उगा लो घिया,
नमन करता तुझे जांटी
तूने जग को दिया नाम
जब तक जीवित रहूंगा
रहेगा तुझ से मेरा काम।
   


***होशियार सिंह, लेखक, कनीना**