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Monday, December 30, 2019


 
 ऊंट कटारा
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  ऊंट कटारा नामक पौधा जिसे ग्रामीण लोग ब्रह्मदंडी या ऊंट कंटक आदि नामों से जानते हैं वास्तव में एक बहु औषधीय पौधा है जिसे इकाइनोट्स इकिनेटस नाम से जाना जाता है। भारत, पाकिस्तान श्रीलंका और दूसरे देशों में पाया जाता है जिसके लंबे-लंबे कांटे होते हैं और इस झाड़ी के रूप में देखा जा सकता है। इसके तने पर सफेद बालनुमा आकृतियां मिलती है।
 पत्ते बहुत लंबे होते हैं। फूलों का गुच्छा कांटेदार होता है। इसके पूरे ही शरीर पर बड़े बड़े कांटे पाए जाते हैं। दिसंबर से लेकर जनवरी तक इस पर भारी मात्रा में बड़े-बड़े फूल आते हैं जो बाद में खत्म हो जाते हैं। यह पौधा रेगिस्तानी क्षेत्रों में अधिक पनपता है।
 इसे ऊंट
कटारा जिसे मिल्क थिसल,कैमल्स थिसल आदि नामों से जाना जाता है जो रेगिस्तानी क्षेत्रों में और मैदानी क्षेत्रों में ही बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है। सूरजमुखी से मिलता जुलता यह पौधा सूरजमुखी को कुल से संबंध रखता है।
 दिल्ली में ड्रॉप्सी नामक रोग फैलाने वाले सत्यानाशी के पौधे जैसी ही इसकी पत्तियां कांटेदार होती है। इसके डोडे लगते हैं जिन पर कांटे होते हैं। नीले और बैंगनी रंग के फूल गुच्छों के रूप में आते हैं। यह द्वि-बीजपत्री पौधा है।
आयुर्वेद में
ऊंट कटारा को बल देने वाला, शुगर रोग नाशक, पुष्टि कारक, दर्द निवारक, प्रमेह नाशक, काम शक्तिवर्धक औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।
ऊंट कटेरा जंगलों में भारी मात्रा में तथा बंजर भूमि पर भारी मात्रा में देखने को मिल सकता है। जिसके ऊपर गोल फल लगते हैं। यह घरेलू जानवरों की बीमारी में विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है क्योंकि इस पौधे को ऊंट बहुत चाव से खाते हैं इसलिए इसे ऊंट कटेरा नाम से जाना जाता है। रेत और बंजर खेतों में बहुतायत में मिलता है। इसकी जड़ और छाल बहुत सी दवाओं में काम में लाया जाता है।
ऊंट कटारा कड़वे स्वाद का होता है किंतु यह वात नाशक रोग निवारक, हृदय रोग और विष को नष्ट करने वाला होता है। इसके बीज शीतलकारी होते हैं और मधुरकारी होते हैं। इसकी जड़े गर्भ श्रावक होती हैं। जड़े कामोद्दीपक होती है। यूनानी मतानुसार यकृत को शक्ति, उत्तेजना देता है। वीर्यवर्धक होता है।
आंखों की तकलीफ को दूर करता है। बुखार, जोड़ों के दर्द, मस्तक की बीमारी को दूर करता है। शुक्राणुहीनता की समस्या को समाधान में यह बेहतर है। माना जाता है इसकी जड़ शुक्र में, प्रमेह में काम आती है। यही नहीं इसकी जड़ गठिया रोग, मंदाग्नि, खासी, शीघ्रपतन, जननांग दोष दूर करने के काम आती है। शरीर की कमजोरी मिट जाती है, वहीं सर्पदंश, बिच्छू के कांटे में भी इसकी जड़ काम में लाई जाती है।
 यदि किसी स्त्री को प्रसव में कष्ट हो रहा हो तो इसकी जड़ को पानी में घिसकर पिला देने से बहुत लाभ होता है और तुरंत प्रसव हो जाता है। इस पौधे से गर्भ निवारक, गर्भपात आदि में भी काम में लेते हैं।
ऊंट कटारा एक ऐसा पौधा है जो हर किसी को दीवाना बना देता है। इसका विभिन्न दवाओं में चमत्कारिक प्रभाव पाया जाता है। ऊंट कटरा
अधिक प्यास लगने पर, खांसी, पाचन शक्ति विकार में, सुजाक रोग में, त्वचा रोग विकारों में, यौन रोगों में, अधिक पसीना आने में, बुखार आदि को दूर करने में काम में लाया जाता है।
 इसकी जड़, पत्ते, फल सभी औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे मिल्क थिसल नाम से जाना जाता है। कितनी ही दवाइयां इस पौधे से बनती है। बाजार में इसका पाउडर भी मिलता है।
यह पौधा राजस्थान में अत्यधिक पनपता है। ऊंट कटरा कई शारीरिक दोषों को दूर करता है। इसकी जड़ की छाल को पान में रखकर खाया जाता है ताकि खांसी दूर हो सके। ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने समय से इसकी जड़ के लेप को इंद्रियों पर लगा कर सहवास को बढ़ाते आए है। पाचन शक्ति बढ़ाने में बहुत अधिक योगदान है। पेट की मंदाग्रि को दूर करने में भी इसका अहम योगदान है। यह दुनिया की सबसे शक्तिशाली और सेक्स पावर बढ़ाने वाली औषधि है।






 कमजोर आदमी को भी मर्द बनाने वाली जंगली जड़ी बूटी है। कहने कोई ऊंट कटरा है लेकिन है औषधीय गुणों से परिपूर्ण एक झाड़ी है। 

 **होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़ हरियाणा**

Sunday, December 29, 2019







कनेर
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 पीले फूलों की कनेर
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थवेटिया पेरूवियाना
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कसकेबेला परपूरिया
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पीले फूल वाली कनेर को बी स्टील ट्री या जायलो ओलिएंडर नाम से जाना जाता है। वास्तव में इसका वैज्ञानिक नाम थवेटिया पेरूवियाना है।  यह मध्यम ऊंचाई वाली एक झाड़ी से लेकर मध्यम ऊंचाई के एक वृक्ष के रूप में मिलता है जिस पर पीले फूल लगते हैं। इस पौधे की पत्तियां लंबी और पतली होती है।
 कनेर कई रंगों में मिलता है लेकिन पीला कनेर प्रमुख है। पीली कनेर का दूध शरीर की जलन को नष्ट करने
वाला और विषैला होता है। इसकी छाल कड़वी तथा बुखार रोधी होती है। छाल की क्रिया भी तेज होती इसलिए से कम मात्रा में लोग सेवन करते देखे गए हैं। यदि अधिक मात्रा प्रयोग कर ली जाए तो दस्त लग जाता है।
 कनेर का मुख्य जहरीला परिणाम हृदय की मांसपेशियों पर पड़ता है फिर भी से विभिन्न औषधियों का मिलाया जाता है। कनेर का बीज जहरीला होता है जिसका सेवन करना जान के लिए जोखिम भरा होता है। कनेर का जहर ड्रग की तरह होता है जो दिल की धड़कन को कम कर देता है। धड़कन धीरे-धीरे कम होती होती चली जाती है और आखिरकार रुक जाती है। अभी तक इस पर शोध कार्य चल रहा है वैज्ञानिक इसके विभिन्न परिणाम खोज रहे हैं।
 कनेर एक झाड़ी या छोटे वृक्ष के रूप में मिलता है जिसके पीले, लाल तथा कई रंग के फूल आते हैं। जिसे कसकेबेला परपूरिया नाम से वैज्ञानिक भाषा में जाना जाता है। भारत में इसे कनेर नाम से जाना जाता है जो गर्मी को सहन कर सकता है। यह भारत के विभिन्न राज्यों में पाया जाता है।
 इसके फूल पीले होने के कारण जहां देवी देवताओं को अर्पित किए जाते हैं, विशेषकर शिव भोले की पूजा अर्चना में काम आते हैं। इस पौधे के सभी भाग जहरीले होते हैं। दक्षिण भारत में इस पौधे के बीजों को खाकर आत्महत्या करने के मामले भी पाए गए हैं। यह एक सजावटी पौधा है जिसके बड़े फूल आते हैं।
 यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी और विषम मौसम को भी सहन कर सकता है। कीड़ों को रोकने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है वही पेंट फंगस को दूर करने,जीवाणुनाशी,दीमक नाशी गुण भी पाए जाते हैं।
इस पौधे को कसकेबेला नाम से जाना जाता है। इसे स्पेन की भाषा में रैटलस्नेक कहते हैं क्योंकि रैटलस्नेक का जहर बिल्कुल वैसे ही कार्य करता है जैसे इस पौधे का जहर कार्य करता है। इन हालातों में भी यह औषधीय
पौधा है जो सफेद दाग, गुप्त रोग, बवासीर, पथरी, पीठ दर्द, बदन दर्द, सिर दर्द, नेत्र रोग, लकवा, दातुन करने, नेत्र रोग दूर करने, चेहरे की सुंदरता बढ़ाने, चर्म रोगों में, दाद, घाव जोड़ों की पीड़ा, संक्रामक रोग, कुष्ठ रोग, खुजली पेट के कीड़े, अफीम का नशा, बिच्छू का विष घटाने के काम आता है वहीं इसका जहर हृदय रोग, मूत्र विकार, सुजाक आदि बीमारियों में काम में लाया जाता है। सिर दर्द में भी इसके फूल कारगर बताए जाते हैं।
 शीघ्रपतन रोकने के लिए, दांत पीड़ा तथा शुक्र बढ़ाने के लिए भी काम में लाया जाता है।
कनेर के कई रूप मिलते हैं। सफेद कनेर घाव, बवासीर, वात रोग नष्ट करता है और नेत्रों की ज्योति बढ़ाता है। कृमि, कुष्ठ रोग को दूर करने वाला, घोड़ों के प्राण हरने वाला होता है। सभी प्रकार के कनेर जहरीले होते हैं। कनेर का तेल भी निकाला जाता है जो खुजली में काम आता है।          

पीली कनेर थोड़ी मात्रा में ह़दय को बल देने वाला होता है। अधिक मात्रा में इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। इस पौधे में थवेटीन का पदार्थ पाया जाता है इसलिए इस पौधे को थवेटिया भी कहते हैं। यह पाचन क्रिया पर कोई प्रभाव नहीं डालता किंतु गर्भाशय, मूत्राशय पर सीधा प्रभाव डालता है।          
कनेर विषैला है वही इसका लाभ भी है तथा विभिन्न दवाओं में काम में लाया जाता है। कनेर का पौधा सड़क के किनारे जंगलों में इधर-उधर खड़ा मिल सकता है। कनेर लंबे समय तक विषम परिस्थितियों को सहन कर सकता है। जहरीला पौधा होते हुए भी यह बहुगुणी पौधा माना जाता है। इस पर लाल, पीले, गुलाबी कई रंगों के फूल आते हैं।
पीले कनेर को जहां बुखार, रक्त विकार में काम में लाया जाता है। घाव आदि को भरने के लिए भी काम में लाया जाता है। पीला कनेर दांतो के दर्द, हृदय के दर्द को दूर करने के काम में लाया जाता है वहीं जोड़ों के दर्द में भी लाभप्रद है। कुष्ठ रोग, चेहरे की कांति बढ़ाने के लिए, कीड़े मकोड़ों के काटने पर इसका उपयोग किया जाता है। लकवा लग जाए तो भी इसका उपयोग किया जाता है। सांप के काटने पर भी पीला कनेर बेहतर बताया जाता है। पीले कनेर के जड़, पत्ती, दूध और छाल सभी लाभकारी एवं विषैले हैं। पीला कनेर जहां लाभ पहुंचाता है वहां यह हानियां भी करता है। इसके हानियों में डिप्रेशन ,बेचैनी, उल्टी, पेट दर्द, एनीमिया, दस्त लग जाते हैं। इसलिए बगैर डॉक्टर और वैद्य की सलाह के कनेर उपयोग में नहीं लाना चाहिए।


                                             कनेर
वन उपवन को झांको
रंग बिरंगे खिले फूल
कुछ इनमें जहरीले हैं
छूने की मत करो भूल,

                              निरियम नाम का पौधा
                              जहरीली होती आकृति
                              कई रंगों के फूल खिले
                              लंबी चौड़ी होती प्रकृति,

300 बीसी का इतिहास
रामायण में आता वर्णन
रावण ने पहनी थी माल
खो दिया था अपना मन,

                                  ओलियंडर है स्पीशिज
                                  जीवों को दे मौत उतार
                                  यहां वहां खड़ा मिलेगा
                                 मत तोड़कर देना उधार,

त्वक रोगों में काम आए
कोढ़ी लगाते इसका लेप
पत्तों में ग्लाइकोलाइड्स
तेल का इसका करे लेप,

                                   हरिण जीव पास न आते
                                   कीटों का कर दे विनाश
                                  प्रत्येक भाग है जहरीला
                                  कभी न रखना इसे पास,

सफेद, पीला व गुलाबी
कई रंगों में देता चमक
बागों में बढ़ाता है शोभा
कभी न इसे लेना चख,

                               कई देशों में मिलता है
                              ओलाइव से मिले रूप
                              दूर से आकर्षित करता
                             सहता रहता सर्दी धूप।

*****होशियार सिंह, लेखक, कनीना*****
 
** होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़, हरियाणा***

Saturday, December 28, 2019

थोर
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थुअर/थूयर  
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यूफोरबिया रॉयलीना
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रेगिस्तान में मिलने वाला पौधा
थोर है। यह सूखे क्षेत्रों में जहां जल की कमी होती वहां पाया जाता है। इसका तना गुद्देदार तथा हरे रंग का होता है। भारी संख्या में कांटे पूरे ही तने पर पाए जाते हैं।
 इस पर पत्ते कभी कभार छोटे तथा मोटे उत्पन्न होते हैं जो समाप्त हो जाते हैं। यह पौधा भारत सहित कई देशों में पाया जाता है। प्राय 1000 से 1500 फुट ऊंचाई पर थोर पौधा पाया जाता है। इस पर फूल तथा फल भी लगते हैं। मार्च से जुलाई तक फूल तथा अक्टूबर तक बीज बनते हैं।
 इस पौधे की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह कैक्टस जैसा लगता है किंतु कैक्टस से भिन्न प्रकार का होता है। जब पौधे पर फूल आते हैं तो पत्ते नहीं दिखाई देते। यह पौधा यूफोरबिया कुल से संबंधित होता है जिसका वैज्ञानिक नाम यूफोरबिया रॉयलीना है। यदि इसकी की टहनियों को तोड़ा जाता है तो सफेद रंग का दूध निकलता है।
 थोर के फल लाल रंग के होते तथा स्वाद में मीठे होते हैं। इसलिए कुछ लोग इनको खाने के लिए भी प्रयोग करते हैं। इसके फल से लाल पदार्थ निकलता है जो कई कामों से में उपयोग में लाया जाता है। इसे मुनीरकली, थोर आदि नामों से जाना जाता है।
थोर देखने में तो कांटेदार होता है तथा प्राय बाड़ के स्थान पर लगाया जाता है ताकि जीव जंतु खेतों में प्रवेश न कर सके। कायिक प्रजनन विधि से जनन होता है। लेकिन यह पौधा स्नायु रोग, गैस का रक्त दोष आदि में उपयोगी है वहीं इसके फल खांसी, सूखी खांसी आदि में अति लाभकारी है।    

 इसके पत्ते कुष्ठ रोग, उदर रोग में काम आते हैं। इसके इसके तने में मिलने वाला दूध उदर रोग और मस्से के रोग को दूर करता है।
थोर को नेपाल में दवाओं में काम में लाया जाता है। इसके रस में शिलाजीत जैसे गुण देखने को मिलते हैं।
खेजड़ी देने वाले राजस्थान में जहां थोर बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है।
थूअर जहां आंखों के रोगों, कान के दर्द, बहरापन, दांत के दर्द, दांतों में सूजन, कान में कीड़े, दस्त आदि के इलाज में काम में लाया जाता है वही बवासीर, सूजन, घाव, त्वचा के मस्से, चर्म रोग बीमारियों में भी काम में लाए जाते हैं। यदि पेट में अधिक पानी भर जाए, घाव बन जाए तो उस समय भी इस पौधे का उपयोग किया जाता है।
यह पौधा पथरी, मोटापा, बुखार, जहर आदि को दोष दूर करने के लिए भी काम में लाया जाता है। शुक्र संबंधी रोगों में भी इसका उपयोग किया जाता है। यह पौधा मैदानी क्षेत्रों में भी अपने आप पैदा हो जाता है। रंग की दृष्टि से लाल व हरा दोनों प्रकार का होता है। खाज खुजली, गंजापन, हकलाना स्तनों में दूध की कमी, दामा आदि के इलाज में भी काम में लाया जाता है। रतौंधी, सर्प विष, कील मुंहासे, स्तनों के आकार में वृद्धि, पित्त बढऩे, पलीहा बढऩे पर इलाज के काम आता है।
इस पौधे को कहीं भी उगाया जा सकता है। इसे पानी की अधिक जरूरत नहीं होती। एग्जिमा अगर हो जाए तो भी यह काम में लाया जाता है। सरसों के तेल में बना इसका काजल आंखों के लिए उत्तम होता है। फोड़ा होने, सूजन होने पर भी इसका उपयोग किया जाता है। इसका दूध यदि आंख आदि में गिर जाए तो घातक प्रभाव डालता है। यहां तक की आंखों की रोशनी भी जा सकती है।
थोर गुर्दे संबंधी बीमारियों में, निमोनिया, कब्ज आदि में भी काम में लाया जाता है। लीवर बढऩे पर भी काम में लाया जाता है। थोर के दूध में हल्दी पाउडर मिलाकर मस्सों को दूर किया जा सकता है। कम भूख लगने पर भी इसका उपयोग किया जाता है। कुछ लोग तो थोर के पत्ते की सब्जी बनाकर भी खा लेते हैं। इसकी ऊंचाई सामान्य होती है। यदि शरीर का कोई भाग जल जाए या खांसी के साथ कफ आए तो इसके दूध का उपयोग किया जाता है। टीबी, पेचिश तथा अतिसार में भी उपयोग किया जाता है। यह पौधा देखने में कांटेदार है किंतु कई रोगों में रामबाण है।






** होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**
कंटकारी
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कंटेली/कंटेरी
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भटकटैया/नाइटशेड
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सोलेनम जेंथोकार्पम
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कंटेली बहुत उपयोगी शाक धरती पर फैली अवस्था में मिलती है। कंटकारी/भटकटैया/ येलो बेरीड नाइट्सशेड नाम से जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सोलेनम
जेंथोकार्पम होता है।

 यह बहु वर्षीय पौधा होता है जिसके लंबे लंबे कांटे पाए जाते हैं। पौधे पर धारीदार हरे,पीले, लाल फल लगते हैं। वहीं विभिन्न रंगों के फूल जिनमें नीली पंखुडिय़ा होती तथा पुंकेसर पीले रंग के मिलते हैं। इसके फल जहां हरे रंग के होते किंतु पक जाने पर पीले हो जाते हैं। जिनमें लेई भरी होती है तथा भारी संख्या में बीज पाए जाते हैं। बीज बहुत छोटे तथा चिकने होते हैं।
भारत के सूखे क्षेत्र में बहुत अधिक पाया जाता है। कंटकारी नाम से प्रसिद्ध पौधा ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्ध है, जो सड़क, रेलवे ट्रैक, परती भूमि में भारी मात्रा में मिलता है।
 यह बैंगन कुल का पौधा है जिसे सोलेनम जैंथोकार्पम नाम से जाना जाता है। इसके पूरे ही भाग पर बड़े बड़े शूल पाए जाते हैं जिसके चलते इसे छू पाना कठिन हो जाता है। पत्तियां भी खंडित अवस्था में पाई जाती है। फल कचरी या बेर जैसे होते हैं जिन पर सफेद रंग की धारियां पाई जाती है। यह पौधा बहुत अधिक लाभकारी है तथा विभिन्न दवाओं में काम आता है।
 इस पौधे को ग्रामीण लोग फसर फसाई का टिंडरा नाम से जानते हैं। यह पौधा दशमूल नामक औषधि में काम में लाया जाता है। यह पसीना लाने वाला, ज्वर हारने वाला, कफ, वात नाशक तथा विभिन्न शारीरिक परेशानियों को दूर करने वाला होता है।
 दंत की वेदना में इसका धुआं दिया जाता है। यह कफ नाशक और रक्तशोधक, शुक्र शोधक, हृदय रोग
नाशी,वात,पित एवं कफ नाशी रूप में पाया जाता है।
इस पौधे को कांटो के कारण कंटीली नाम से भी जाना जाता है परंतु औषधीय गुणों से भरपूर पौधा होता है।
सिर के बाल गिर रहे हो उस समय, सिर में रूसी पाई जाए, जुकाम, दांत दर्द, खांसी अस्थमा, उल्टी, पेट दर्द, मुत्र संबंधी विकार गुर्दे की बीमारी, बवासीर आदि रोगों में काम आता है। वही गले की सूजन, पेट के विभिन्न रोगों में बहुत काम आता हैं। इसे कंटीली नाम से भी जानते हैं किंतु यह धरती पर फैली होती है। यह बड़ी कंटेली तथा छोटी कटेली दो रूपों में मिलती है। दिसंबर जनवरी में जाकर ये पौधे सूख जाते हैं।
 इस पौधे से टीबी की दवाइयां, जुकाम,  पेट की जलन, पेट के रोग, आंखों के दर्द दूर किया जाता है वही बुखार में रामबाण है। सांस रोग, दमा आदि में महत्वपूर्ण है। मासिक धर्म, अधिक नींद आना, नाक के रोग, पुराना घाव, मिर्गी, त्वचा के रोग, बच्चों के रोग, मूत्र रोगों को दूर करने के काम आता है।
कंटेली नपुंसकता को दूर करने, कान के कीड़े, जिगर के रोग, पथरी आदि में विशेष लाभकारी है। इसलिए यह पौधा ग्रामीण क्षेत्रों में उपहार माना जाता है। कंटेली का काढ़ा पीने से
खांसी, जोड़ों के दर्द दूर हो जाते हैं। इस पौधे में प्रोटीन, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस आदि तत्व पाए जाते हैं। यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। दमा रोग में महत्वपूर्ण है। इसको गुणों को देखते हुए इसे महत्वपूर्ण जड़ीबूटियों एवं अमूल्य जड़ी बूटी नाम से जाना जाता है।








**होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़ हरियाणा***

Thursday, December 26, 2019

 बोतल ब्रश 
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कैलिस्टेमोन सिट्रिनस  
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बोतल ब्रश नाम से पौधा पाया जाता



है जो सबसे पहले 1814 में वर्णित किया गया था। इसका विस्तार दूरदराज देशों तक फैला हुआ है। इसका वैज्ञानिक नाम कैलिस्टेमोन सिट्रिनस होता है। यह पौधा सबसे पहला 1814 में वनस्पति शास्त्री रॉबर्ट ब्राउन ने देखा था और वर्णन किया था।
 इस पौधे की सबसे बड़ी विशेषता है कि लाल भूरे रंग के फूल आते हैं जैसे लगते हैं जैसे बोतल की ब्रश हो इसलिए इस पौधे का नाम बोतल ब्रश रखा गया है। य पौधा झाड़ीनुमा से बड़े वृक्ष के रूप में भी मिलता है। इस पौधे गमले में भी उगाया जा सकता है किंतु यह वृक्ष भी बन जाता है। इसके बीच लंबे समय तक पेड़ से नहीं गिरते।
यह पौधा बगीचों में उगाया जाता है ताकि शोभा बढ़ाई जाए। इसलिए इसे ओरनामेंटल प्लांट नाम से जाना जाता है। कमरों के, घर के आस-पास भी इसे लगाया जाता है ताकि घर की शोभा बढ़ सके।
यह एंटीऑक्सीडेंट, एंटीफंगल, एंटीबैक्टीरियल होता है जो दवाओं के रूप में भी काम में लाया जाता है।
यह पौधा खांसी को दूर करने के लिए
कीटों को नष्ट करने के लिए दवाओं में काम आता है।
बहुत सी दवाई इनसे बनाई जाती है। कुछ प्रयोग इसके आधार पर किए जाते हैं। इसके फल कठोर काष्टकीय होते हैं जिसमें बारीक बारीक सैकड़ों बीज पाए जाते हैं जो कई वर्षों तक वृक्ष पर रह सकते हैं। कई सालों के बाद ये फल से निकल लगते हैं जबकि कुछ बोतल ब्रश स्पीशीज में प्रत्येक वर्ष बीज बिखर जाते हैं।
बॉटल ब्रश का पौधा कई शारीरिक विकारों को दूर करने लिकोरिया तथा माहवारी के समय सफाई के काम आता है। जो बच्चे बिस्तर पर पेशाब करते हैं उनके इलाज में काम आता है। डायरिया, त्वचा के रोग दूर करने में भी
इसका उपयोग किया जाता है। जबकि इसके फूल ऊर्जा प्रदान करते हैं इसलिए होने पेय पदार्थ बनाने के काम में लाया जाता है। इस का तेल भी घरों में काम में लाया जाता है। खेत की मेंढ़, चारदीवारी के साथ साथ लगाया जाता है। इसकी लकड़ी जलाने के काम में भी लाई जाती है।
कुछ बोतल ब्रश के पत्ते एवं बीज जहरीले होते हैं।
बोतल ब्रश की 8 प्रजातियां पूरी दुनिया में पाई जाती है। यह मेडागास्कर का राष्ट्रीय वृक्ष है। ऑस्ट्रेलिया जैसे
देशों के किसान पेड़ का तना काटकर उसमें जल सुरक्षित रखते। यहां तक कि पशुओं को पानी पिलाने के काम में लेते हैं।पेड़ का तना बर्तन का काम करता है। इसके फल  पौष्टिक माने जाते हैं जिसमें विटामिन-सी की मात्रा अधिक पाई जाती है, वही कैल्शियम भी पाया जाता है। कुछ देशों के लोग तो इसके फल का रस बड़े चाव से पीते हैं जबकि कुछ जगह इसके पत्तों की सब्जी भी बनाकर खाते हैं जिसे कुके का सूप कहते हैं। इसकी कुछ प्रजातियां हानिकारक होती है। यह पौधा सड़क के किनारे भी देखने को मिल सकता है, इसे सजावटी पौधा नाम से जाना जाता है। इस पौधे पर भारी मात्रा में फूल लगते हैं। सभी फूल बोतल की सफाई करने की ब्रश जैसे होते हैं। यह पौधा लंबे समय तक जीवित रह सकता है।
**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**

Monday, December 23, 2019


कवक

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मशरूम 
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मशरूम को कवक, कुकुरमुत्ता आदि नामों से जाना जाता है जो जहां जंगलों में भी स्वयं उगती है वहीं यह विशेष प्रकार की खेती करके उगाई जाती है। इसे खुम्ब, खुंबी, मशरूम आदि नामों से जाना जाता है। यह अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकती क्योंकि इसका रंग हरा नहीं होता। यही कारण है यह मृतोपजीवी जीव है अर्थात मरे हुए, गले सड़े पदार्थों से अपना भोजन प्राप्त करती है।
 यही कारण है कि इसे गले सड़े पदार्थ पर उगाया जाता है। इसमें जड़, तना, पत्ती आदि नहीं पाए जाते। कभी बुजुर्ग मानते थे कि कुत्ते  जिस जगह पेशाब करते हैं वहां भी उगती है इसलिए इसे कुकुरमुत्ता नाम से जाना जाता है। यह तथ्य  बिल्कुल गलत है लेकिन मरे गले सड़े पदार्थों अपने आप उग जाती है। वैज्ञानिक भाषा में इसे अगोरिकस एस्फोरस नाम से जाना जाता है जो  जंगल में खेतों में भी पाई जाती है। इसकी कई विषैली प्रकार पाई जाती है ऐसे में मशरूम को बिना किसी जानकारी के कभी भी भोजन आदि के रूप में नहीं प्रयोग करना चाहिए। इसके विष के कारण ही ग्रामीण लोग इसे सांप की छतरी नाम से जानते हैं।
 यह खाने के लिए सर्दियों में खेती की जाती है और इसकी विशेष प्रकार के बेड बनाकर उगाया जाता है।
बाजार में इसकी कीमत बेहतर मिलती है। यही कारण है कि खुंबी की खेती दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। जहां खुंम्ब उगाने के लिए किसानों को ट्रेनिंग दी जाती है।
खुंबी को खाद्य मशरूम नाम से भी जाना जाता है।
सफेद रंग की खुंम्बी सामान्यता उगाई जाती है भोजन के रूप में प्रयोग की जाती है। खुंब बहुत पौष्टिक सब्जी होती है। इसमें प्रोटीन पर्याप्त मात्रा मिलता है यही कारण है कि प्राचीन समय से लोग खुंबी को प्रयोग करते आ रहे हैं। चीन कजैसे ई देशों में इसे उगाया जाता है। इसकी सैकड़ों प्रकार खाने के काम आती है, भोजन के रूप में खाई जाती है। इसमें विटामिन बी अधिक पाया जाता है। इसके अतिरिक्त खुंब में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन विटामिन, कैल्शियम, तांबा, लोहा, मैग्नीशियम फास्फोरस, पोटैशियम, जिंक आदि तत्व पाए जाते हैं। खुंबी जंगलों में मिलती है वह जहरीली होती है जिसे कभी नहीं खाना चाहिए। जहरीली खुंब खाने से पेटदर्द,डायरिया, सिरदर्द, एलर्जी आदि अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। वही बेहतर दर्जे की ही खुंब उगाकर खानी चाहिए। अल्बानिया देश खुंम्ब उत्पादन में सबसे अग्रणी देश है लेकिन भारत का स्थान भी शीर्ष दस में हैं।
खुंबी में विटामिन डी, फाइबर आदि पाए जाते हैं जो शरीर में जीवाणु रोधी, कोलेस्ट्रॉल को कम करने वाली ,पार्किंसन रोग के उपचार में काम आने वाली, उच्च रक्तचाप और कैंसर में भी उपयोगी होती है। इसमें पोटेशियम अधिक मात्रा में मिलता है इसलिए यह हृदय के लिए बहुत लाभकारी होती है । यह शरीर में ऊर्जा प्रदान करती है वही एल्जाइमर रोग का विनाश भी करती है। एंटीआक्सीडेंट के रूप में काम आती है वही खुंबी को किसी विश्वसनीय स्रोत से ही लेना चाहिए वरना कीमत चलाना उल्टी आना दस्त लगना जैसी बीमारियों के अतिरिक्त जान को खतरा भी हो सकता है। खुंबी वजन घटाने में अहम भूमिका निभाती है वहीं यह सैंडविच बनाने में भी काम में आती है। मशरूम के पिज़्ज़ा भी बनाए जाते हैं वहीं यह बहुत उपयोगी सब्जी है।
मशरूम में सेलिनियम, विटामिन सी भी पाए जाते हैं यही कारण है कि कैंसर जैसे घातक रोग में भी काम
आती है, शुगर की बीमारी वाले इसका प्रयोग कर सकते हैं। जिन महिलाओं में गर्भ ठहरा है उनके लिए भी बहुत बेहतर सब्जी मानी जाती है। इसमें विटामिन बी के अनेकों प्रकार पाए जाते हैं यही कारण है कि यह सब्जी का बेहतर स्रोत है।
अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में मशरूम को खाना बुरा समझते हैं क्योंकि उनको इसके लाभों के बारे में जानकारी नहीं होती। यही कारण है कि मशरूम से दूर भागते हैं। जबकि मशरूम हर प्रकार से शरीर के लिए लाभकारी सब्जी माना जाता है। अक्सर लोगों का कहना होता है कि यह गंदगी वाले पदार्थों पर उगती है इसलिए नहीं खानी चाहिए किंतु इसे जरूर खाना चाहिए। मशरूम से अनेकों प्रकार की सब्जी तैयार की जाती है जिनमें शाही मशरूम मशरूम एक है। इसे कई रूपो में खाया जा सकता है।
खुंबी हमारे प्रतिरोधक क्षमता का विकास करती है। उत्तक एवं कोशिकाओं की टूट-फूट को भी सुधार देती है वहीं मशरूम इंसान की बढ़ती उम्र को रोकती है। दिमाग को तरोताजा रखती है वही याददाश्त को बढ़ाती है। हड्डियों को सहारा देती है वही अधिक ऊर्जा प्रदान करती है।






मशरूम में कैंसर से लडऩे की क्षमता पाई जाती है वही विटामिन ए, बी और सी अधिक मात्रा में मिलते हैं। शरीर में जलन को दूर करती है वही बुढ़ापे को रोकने में कारगर सिद्ध होती है।
 ***होशियार सिंह, लेखक कनीना हरियाणा***

Sunday, December 22, 2019

 मोर्निंग गलोरी
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आइपोमई कार्नी  
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मोर्निंग गलोरी पौधा जिसे बेशर्म बेहया नामों से जाना जाता है। इस जग में इंसान ही बेहया या बेशर्म नहीं कहलाते अपितु प्रकृति के कुछ पौधे विशिष्ट नामों से जाने जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ने वाला विलायती आक इसे बेहया/बेशर्म पौधा कहते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में आइपोमई कार्नी नाम से जाना जाता है। यह पौधा कठिन से कठिन परिस्थिति में जीवित रह सकता है। बड़े-बड़े फूल होते जो नदी/जोहड़/तालाब के किनारे मिल सकता है।
 बार बार काटे जाने के बाद भी यह जीवित रहता है। इसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता इसलिए इस बेशर्म/बेहया पौधा भी कहते हैं।
पौधे के फूल गुलाबी रंग के आते हैं तथा कभी-कभी गुलाबी-सफेद बन जाते हैं। इस पौधे जैविक कीटनाशक के रूप प्रयोग किया जाने लगा है। किसान इसकी पत्तियां, नीम की पत्तियां और धतूरे की पत्तियां, गोमूत्र में उबालकर फसलों में छिड़काव करते हैं। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
वैज्ञानिकों ने दीमक को भगाने और मारने की औषधि तैयार करने जा रहे है। दीमक भारी मात्रा में लोगों को नुकसान पहुंचाती है। इसी पौधे की दवा बनेगी जो रासायनिक दवाओं से काफी सस्ती होगी। झाड़ीनुमा पौधा बेहया नाम से जाना जाता है।
इस पौधे के पत्ते बहुत बड़े बड़े होते हैं वही फूल भी बहुत बड़े बड़े होते हैं। जिस भी जगह इसकी टहनी या जड़ भूमि में लगा दी जाए वहीं पर यह पूरा पौधा बन जाता है वहीं इसकी वृद्धि त्वरित होती है।
 पौधे की सबसे बड़ी विशेषता है कि गर्मी,सर्दी,बरसात हर मौसम में जीवित रहता है और फूलों से लदा रहता है। पौधे के पत्तों में जहां सफेद रंग का दूध जैसा पदार्थ मिलता है जो शरीर के किसी अंग के कटने पर प्रयोग किया जाता है।
इसको विशेष रूप से बाड़ के रूप में, जलाने के  या खेत के चारों ओर लगाने में काम में लाया जाता है। इसको कोई जीव-जंतु भी नहीं खाता और यह खरपतवार के रूप में फैलता जा रहा है। इस पौधे से जहां गरीब लोग काटकर सुखाकर इंधन के रूप में प्रयोग करते हैं वही इस पौधे को जहरीला माना जाता है। विषय विलायती आक नाम से जाना जाता है क्योंकि इसमें आक की तरह दूध पाया जाता है।
इस पौधे की सबसे बड़ी विशेषता है कि जहां भी लगाना चाहे लग जाता है, फूलों से लदा रहता है तथा इस पौधे केें फूलों में किसी प्रकार की


खुशबू का बदबू नहीं होती। यह प्रकृति का अजीबोगरीब पौधा कहलाता है।
**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,महेंद्रगढ़, हरियाणा**

Friday, December 20, 2019

                                                     










बेर
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 बेर/बेरी नामक फल झाड़ी और पेड़ पर पैदा होते हैं। बेरी पौधे को जिजाइपस मारुशियाना नाम से जाना जाता है।
कच्चे फल दिसंबर माह में बेरी के पौधे पर लगते हैं जो हरे रंग के होते हैं जिनमें मिठास अल्प होता है किंतु पक जाने के बाद ये पीले, लाल तथा विभिन्न रंगों के बन जाते हैं।
   ये गोल तथा लंबे, छोटे तथा बड़े आकार में मिलते हैं। छोटे फल झाड़ीवाले/झड़ बेर कहते हैं जो कभी कभी बहुत छोटे आकार के होते। ये झाड़ी पर लगते हैं किंतु ये मधुर बहुत होते हैं। गोल तथा मध्यम आकार के बेर अक्सर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में खाए जाते हैं। ये भी कई रंगों के तथा मधुरता अलग अलग पाई जाती है। बागों वाले बेर विशेष प्रकार के, बड़े आकार के होते हैं जिनका रंग अक्सर हरा ही रहता है किंतु इनमें मिठास कम होता है।
 बेर गरीबों के सेब नाम से जाने जाते हैं।
दक्षिण हरियाणा, राजस्थान जैसे क्षेत्रों में जहां पानी की कमी है होती है सूखा एरिया होता हैवहां पर पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। जहां बेरी के बड़े-बड़े कांटे पाए जाते हैं वहीं यह बेर दूर से मन को लुभाते हैं। जब पककर पीले या लाल हो जाते हैं तो बड़े चाव से इन्हें खाते हैं।
कुछ गरीब जन बेरों को बाजारों में बेचते हैं तथा इन्हीं से अपनी रोटी रोजी कमाते हैं किंतु जब ये बेर सूखकर पेड़ से गिर जाते हैं तो इनको छुहारा नाम से जाना जाता है।
गर्मियों के समय में बेरी के पौधे शुष्क अवस्था में नजर आते हैं। इस वक्त पत्तियां झड़ जाती है किंतु शीत ऋतु में फलों से लद जाते हैं। जनवरी से मार्च महीने तक भारी मात्रा में फल लगते हैं। जहां यह बेरी के फल अधिक ठंड को नहीं सहन कर सकते। अक्सर ये बलुआ मिट्टी में जिसमें जीवांश खाद पाया जाता हैं अधिक उगते हैं। देसी खाद इनके लिए ज्यादा बेहतर होता है।
 बेर की 300 से अधिक किस्में तैयार की जा चुकी है तथा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में मिलता हैं। बेर की अक्सर झाड़ी होती है वही बेर के बड़े पेड़ भी बन जाते हैं। बेर के भारी मात्रा में फूल लगते हैं जो पीले या सफेद रंग के होते हैं।
बेर पकने पर खाए जाते हैं वही अचार और जैम जैसे पदार्थों में भी डाले जाते हैं। इनमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन-सी पाई जाती है।
 भारत में पके हुए फल बिना भूने व तले वाले ही खाए जाते हैं। इनके फलों को जहां सुखाकर कैंडी बनाकर,अचार, जूस आदि बनाकर भी प्रयोग में लाया जाता है। बेरी के पत्ते जहां पशुओं के चारे की विशेषकर बकरी और भेड़ के चारे के लिए काम में लाए जाते हैं। इनके फूलों पर मधुमक्खियों बहुत अधिक मात्रा में पाई जाती जो अपना शहद इक करती है।
 बेरी की लकड़ी कठोर तथा अंदर से लाल रंग की होती है जो बहु उपयोगी होती है। जलाने के भी यह काम में लाई जाती है। इनके फल फोड़ा फुंसी या फिर शरीर में लगे कट घाव पर भी काम में लाए जाते हैं। यहां तक कि बुखार के समय भी ये लाभप्रद होत हैं। बदहजमी के समय नमक, काली मिर्च आदि मिलाकर खिलाया जाता है।
इसकी जड़ों से जहां घाव भरने के लिए छिड़का जाता है।

इनकी जड़ों के छिलके से निकाला गया जूस अर्थराइटिस के काम आता है। यहां तक कि इसके छिलके का सांद्र जूस जहरीला होता है के फूलों से जहां मधुमक्खियां शहद बनाती हैं। सूखे से बचाने के लिए इस पौधे का उपयोग किया जाता है।
बेर एक मौसमी फल है जिसमें उर्जा बहुत कम पाई जाती है तथा विटामिन और खनिज लवण पाए जाते हैं। इसमें पोषक तत्व, एंटीऑक्सीडेंट भी पाया जाता है। रसीले बेर जहां कैंसर की कोशिकाओं को रोकने में मददगार साबित होते हैं वही वही वजन कम करने के लिए बेर अच्छा खाद्य पदार्थ है। बेर में पर्याप्त विटामिन सी और पोटैशियम तत्व पाया जाता है जो प्रतिरक्षा तंत्र को बढ़ावा देता है। कब्ज की समस्या को
बेर से दूर किया जा सकता है। इसमें कैल्शियम फास्फोरस मिलता जो हड्डियों और दांतों के लिए बहुत कारगर होता है। बेर में जहां कैंसर से लडऩे की क्षमता पाई जाती है।
बेरी के फल जहां मधुमेह रोग में भी को रोकने में भी कारगर होते हैं वही तनाव को रोकते हैं। उच्च रक्तचाप में, कैंसर में भी लाभप्रद है वही दमा बुखार, जलन, तनाव, उच्च रक्तचाप आदि में भी बहुत कारगर बताए गए हैं।
बेरी के फल घाव को भरने, सूखी त्वचा का उपचार,  बुढ़ापे आदि को रोकने के काम में लाया जाता है वही लिवर को स्वस्थ रखते हैं। भूख को बढ़ाते हैं। इसके अतिरिक्त कई लाभकारी प्रभाव शरीर में देखे जा सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे इसे बेहद चाव से खाते हैं।

** होशियार सिंह, लेखक, कनीना, जिला महेंद्रगढ़, हरियाणा

Wednesday, December 18, 2019

बुई
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इरवा जवानिका
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 हरियाणा में विशेषकर दक्षिणी हरियाणा में बुई नामक पौधा भारी संख्या में खेतों में पाया जाता है। दूर से सफेद रंग के फूलों से लदा नजर आता है। इसे अंग्रेजी भाषा में कपोक बुश नाम से जाना जाता है।
यह जंगली पौधा है जो भारी संख्या में खरपतवार के रूप में देखने को मिलता है। बंजर भूमि पर तो अपने आप उग जाता है और झाड़ी का रूप ले लेता है। धीरे-धीरे बहुत अधिक मात्रा में फैल जाता है। आसपास सफेद फूल बिखरे दिखाई देते हैं। कई वर्षों तक चलने वाला पौधा है ग्रामीण क्षेत्रों में भेड़-बकरी चराने वाले लोगों के लिए अति लाभकारी है।  इस पौधे को खरपतवार के रूप में जाना जाता हैं।
यद्यपि भेड़ बकरियां भी इस पौधे को खा लेती है और चारे के रूप में काम में लाया जाता है। शुष्क क्षेत्र में अधिक संख्या में मिलता है। बालू मिट्टी में खूब उग जाता है। यह एकलिंगी पौधा होता है। इसके भारी संख्या में बीज बनते हैं। यह ग्रामीण क्षेत्रों में उपले बनाने के लिए पतवार के काम करता है वही इसको लोग जलाकर इंधन के रूप में भी काम में लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां बुई नाम से यह पौधा जाना जाता है वही वैज्ञानिक भाषा में इसे इरवा जवानिका नाम से जाना जाता है। यह पौधा वायु और जल के मिट्टी कटाव को भी रोकता है, वहीं किसानों के लिए एक समस्या बना रहता है। इसे ग्रामीण क्षेत्रों में जंगली रूई, सफेद फूल आदि नामों से जानते हैं।
बुई जंगली चौलाई जाति के पौधों से संबंध रखता है। यह पौधा खड़ा और भूमि पर लेटा दोनों रूपों में देखने को मिलता है। कुछ देशों में जहां दवा के रूप में काम आता है वही पशु के पेट के कीड़े निकालने के काम आता है। यह पशुओं के पेट को साफ करने डायरिया को दूर करने के काम आता है।
यह बकरियों की आंखों के दोष दूर करने के लिए काम में लाया जाता है, वही गद्दे भरने के भी काम में लाया जाता है। इसकी जड़े टूथब्रश  बनाने के काम में लाई जाती है जिसे बर्फ झाड़ी नाम से भी जाना जाता है। पौधे की जड़े तना एवं स्पाइक काम में लाए जाते हैं। यह गठिया,त्वचा का टूटना रक्त संबंधी विकार, त्वचा का सूखापन आदि में भी काम में लाया जाता है। इस पौधे से एस्कोरबिक एसिड पत्तों से ग्लूकोसाइड आदि निकाले जाते हैं।
गुर्दे की बीमारियों को दूर करने में भी वही काम में लाया जाता है।

यह पौधा सूखे क्षेत्रों में बहुत उपयोगी माना जाता है यद्यपि प्रमुख खरपतवार है। गुर्दे के पथरी को दूर करने के भी काम आता है वही फूल और जड़े दवा में काम आती है। इस पौधे में 21 फीसदी प्रोटीन पाई जाती है। इसकी 28 प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं जिसमें से कुछ दवा में काम आती है।   बुई मलेरिया दूर क



रने, गुर्दे के रोग भगाने में भी काम में लाई जाती है। इसके बीज सिरदर्द दूर करने के काम आता है वहीं पौधे की जड़ों से गरारे करने से दांत दर्द दूर हो जाता है।
**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**