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Friday, July 8, 2022

 
          गरीबों के आम
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दुनिया का सबसे छोटा आम
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निंबोरी
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अजारिचटा इंडिका
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दुनिया का सबसे छोटा और सस्ता आम निबोरी कहलाता है। गरीबों के लिए भी भगवान ने हर चीज खाने के लिए उपलब्ध करवाने का भरसक प्रयास किया है। जहां गर्मियों के दिनों में अमीर व्यक्ति आम का स्वाद बेहतर ढंग से ले सकता है परंतु गरीब तबके के लोग अपने क्षेत्र में और प्रकृति में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध दुनिया के सबसे छोटे आम और सबसे सस्ते आम, नीम की निंबोरी खा सकते हैं। वास्तव में नीम को गरीबों का आम कहा जाता है।
नीम की निबोरी पुराने समय से बच्चे बहुत चाव से खाते आ रहे हैं। एक वक्त था जब लोग निबोरी तोड़कर खाने के लिए लालायित रहते थे। नीम के पेड़ पर दिनभर चढ़े रहते थे और अच्छी-अच्छी निबोरी खाते थे। यहां तक कि नीम की निबोरी तोडऩे के लिए सरकंडे का एक यंत्र भी बनाते थे जिससे अच्छे दर्जे की निबोरी तोड़कर पेड़ के नीचे खड़े होकर ही खा लेते थे। वह जमाना था जब लोग पीपल की बंटी,जाटी की झींझ, कैर के पीचू ,जाल के पील तथा नीम की निंबोरी चाव से खाते थे। लंबे समय तक इनको खाया जाता था। वैसे तो आम और निंबोरी सबसे स्वादिष्ट बारिश के समय पैदा होते हैं। जब बारिश होती है तो निबोरी पक जाती है वही आम भी पक जाते हैं। वैसे तो नीम को घर का वैद्य कहा गया है। इससे अनेकों दवाइयां प्राप्त होती है जिनका इंसान लंबे समय से प्रयोग करता रहा है। परंतु आज भी इन निंबोरी की तरफ कुछ लोगों का आकर्षण देखने को मिलता है। यह सत्य है कि इन चीजों को लोग आधुनिक युग में भुलाते जा रहे हैं। यही कारण है कि नीम के प्रति उनका व्यवहार भी बदल गया है। नीम सबसे अधिक औषधियों में प्रयोग होने वाला ग्रामीण क्षेत्रों का एक पेड़ होता है।
 हर घर दरवाजे तथा संस्थान एवं खेतों में नीम खड़ा देखा जा सकता है। इसे अजारिचटाइंडिका होली ट्री, इंडियन लीलाक, मेलिया अजारिचटा,नीम, निंबा आदि नामों से जाना जाता है। पुराने समय से जब मोटे अन्न घरों में सुरक्षित रखते थे तो इसके पत्ते ही काम में लाए जाते थे। नीम की दातुन सैकड़ों वर्षों से आज तक इंसान करता आ रहा है। नीम की कच्ची कोपल भी विभिन्न रोगों को दूर करने के लिए लोग प्रयोग करते आ रहे हैं। ऐसे में नीम को किसी भी सूरत में भुला नहीं सकते परंतु नीम एक बड़ा पेड़ होता है जिसके पत्ते, बीज एवं छिलका दवाओं में काम आता है। इसकी जड़, फूल और फल भी अक्सर काम में लाए जाते हैं।
  नीम के पत्तों का उपयोग कुष्ठ रोग, नेत्र रोग, आंतों के कीड़े, पेट खराब होने पर, भूख न लगना, त्वचा के अल्सर, हृदय रक्त वाहिनियों के रोग, बुखार, मधुमेह, मसूड़ों की बीमारी, यकृत आदि अनेक दवाओं में काम में लाया जाता है वही पत्ती का उपयोग जन्म नियंत्रण और गर्भपात के लिए भी किया जाता रहा है।
 नीम की छाल का उपयोग मलेरिया, त्वचा रोग, दर्द, बुखार आदि में किया जाता है। पुराने समय से पत्तों और छाल आदि को उबालकर स्नान करवाने के काम में लाते थे ताकि रोगाणुरहित शरीर बन जाए। फूल का उपयोग पित्त कफ का नियंत्रण, आंतों के कीड़ों के इलाज में काम में लेते हैं किंतु फल का उपयोग बवासीर आंतों के कीड़े, मूत्र विकार, खूनी नाक, नेत्र विकार, मधुमेह,कुष्ठ रोग घाव के इलाज के काम में लेते हैं।

 नीम की कच्ची कोपलों का उपयोग खांसी, दमा, बवासीर, आंतों के कीड़े, मूत्र विकार, मधुमेह शुक्राणु संबंधित बीमारियों के इलाज में काम लेते हैं। टूथब्रश के रूप में तो बहुत से लोग प्रयोग करते हैं। नीम की टहनियों को कच्ची टहनियों को जब खाते हैं तो सावधानी से खाना चाहिए।
 बीज और बीज का तेल उपयोग कुष्ठ रोग और आंतों के कीड़े जान नियंत्रण, गर्भपात आदि में किया जाता है। जड़ ,छाल एवं फल कैा तेल सिर की जू, त्वचा रोग, घाव आदि के इलाज में भी इसका उपयोग किया जाता है। मच्छर से बचने की क्रीम के रूप में और साबुन आदि में रूप में भी किया जाता है। 

  ऐसे में नीम एक बहुत गुणकारी पौधा है जिसका हर भाग किसी ने किसी काम में और उपयोग में लेते हैं। नीम के पत्तों का प्रयोग  लगातार 6 सप्ताह प्रयोग करने से जीवाणुओं की संख्या घट जाती है।  शोध भी हो चुका है कि जड़ एवं पत्ती कीटों को दूर भगाते हैं। अल्सर आदि में काम आते हैं। सोरायसिस, पेट की खराबी, सांस न लेने की स्थिति में, मलेरिया, कीड़े ,सिर की जूं त्वचा रोग दिल की बीमारी, मधुमेह आदि में भी काम में लाया जाता है।
नीम को अधिक मात्रा में या लंबे समय तक रहने से गुर्दे और लीवर को नुकसान हो सकता है। नीम की निंबोरी वास्तव में बहुत मधुर लगती है जो आने को बीमारियों की ठीक करने में लाभप्रद है। शरीर में क्षार की मात्रा को बढ़ा देती है जिससे एसिडिटी संबंधित विकार कम हो जाते हैं।  यह देखने में आम जैसे लगते हैं इसलिए नीम की निंबोरी को गरीबों का आम कहा जाता है। वैसे भी दुनिया के सबसे छोटे आम है तथा आसानी से ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्त में उपलब्ध हो जाते हैं। शहरी क्षेत्रों में नीम कम होने से इनकी सुलभता स्वाभाविक है।






आज भी बुजुर्गों को गरीबों के आम खाने के दिन याद आते हैं।

Wednesday, July 6, 2022


 पुराने वक्त से प्रयोग करते आ रहे हैं टींट एवं बाडिय़ा
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चेतावनी-किसी प्रकार की लेख की कापी करना दंडनीय अपराध एवं कापीराइट एक्ट के खिलाफ होगा।
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**************** पुराने समय से बुजुर्ग एक कहावत कहते आए हैं कि -
                होल़ो   पूच्छै   होल़ी  तैं , के  रांधागी  होल़ी  नै ।
                टींट बाडिय़ा सब दिन रांधू, चावल़ रांधू होल़ी नै।।

 यह कहावत बहुत पुरानी है जो सिद्ध करती है टींट एवं बाडिय़ा पुराने समय से इंसान प्रयोग करता आ रहा है। शरीर के लिए बेहद लाभप्रद ये फल एवं फूल कैर पौधे से प्राप्त होते हैं। पुराने समय में हर गांव में हर जगह बणियां होती थी। कैर इन बणियों में पाए जाते है। कैर ऐसे पौधे होते हैं जो सूखे में भी लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं। पानी की बहुत कम आवश्यकता होती है, वास्तव में आंधी एवं बारिश आदि के तेज बहाव को राोक देते हैं। इन पौधों के अंदर अनेकों सरीसृप निवास करते हैं। कैर की लकड़ी बहुत शुभ मानी जाती है। और पुराने वक्त में घरों में दही बिलोते समय मथनी इसी के सहारे चलती थी। वह जमाना बदल गया फिर मधानी भी अनेकों प्रकार की आने लगी। आजकल के बच्चे यह भी नहीं जानते होंगे कि किसी समय दही से मक्खन बनाने की मधानी कैसे प्रयोग करते थे। कै र की लकड़ी बहुत कारगर मानी जाती है। कैर का नाम लेते ही एक ऐसे पौधे का चित्र मन में भरता है जिसके पत्ते नहीं दिखाई देते। पत्ते तो होते हैं किंतु बहुत बहुत सुई जैसे होते हैं। सुई जैसेे पत्ते वाष्पोत्सर्जन क्रिया कम करने के लिए होते हैं। कैर का तना स्वयं ही पत्ती का  कार्य करते हैं। प्राय मार्च-अप्रैल तथा अगस्त एवं सितंबर ,वर्ष में दो बार फूल एवं फल प्रदान करते हैं। कैर के फूल जो अभी खिले नहीं है उनको बाडिय़ा नाम से जाना जाता है। ये फूल खिल जाते हैं उनको भी कुछ लोग प्रयोग में लाते हैं।
  फूल से फल बनते हैं जिन्हें टींट कहते हैं जो सेहत के लिए बहुत लाभप्रद होते हैं। पेट की कई रामबाण औषधियां इसी से बनती है। वास्तव में पुराने समय में बाडिय़ां तोड़कर लाये जाते थे तोड़कर होने छाछ में डालकर कुछ दिनों के लिए रख देते है।। कुछ दिनों पर रखा देने के बाद उसे उठना बोलते हैं। छाछ में रखने से इनमें खटास आ जाता था। उन्हें साफ पानी में धोकर कई प्रकार से प्रयोग किया जाता है। विशेषकर इन की सूखी सब्जी बनाई जाती थी जो बड़े चाव से खाई जाती है। आज भी बुजुर्ग पुराने जमाने की सब्जी को नहीं भूल पाए हैं।  इसके फूल भी इसी प्रकार सब्जी बनाने के काम आते हैं। इनके फल होते हैं उनको भी ऐसे ही प्रयोग किया जाता है। जहां टींट में अंदर कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं लिपिड पाए जाते हैं वही एंटीऑक्सीडेंट और एंटी डायबिटिक औषधि के रूप में जाना जाता है। शुगर की बीमारी में भी अच्छे होते हैं। मधुमेह को दूर कर देते हैं। फूलों में एस्कार्बिक अमल पाया जाता है तथा इनको ग्रामीण क्षेत्रों में जमकर सब्जी बनाने के काम लेते हैं। राजस्थान जैसे क्षेत्रों में तो कैर एक बहु औषधीय पौधा बन गया है। इसके टींट जहां हरे रूप में होते हैं। बाद में वे लाल बन जाते हैं। ये पीचू नाम से जाने जाते हैं और पीचू को बड़े चाव से खाते हैं। फलों को पक्षी और पशु खाते हैं। जिनका स्वाद मीठा होता है। जिसमें काले बीज पाए जाते हैं। वास्तव में टींट को सूखा लिया जाता है जहां वे देसी सब्जियां बनाने में बहुत कारगर होते हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों के लोग टीट का अचार प्रयोग करते हैं। कैर की ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पूजा भी करते हैं क्योंकि इसके औषधि गुण होते हैं। मेलों के अफसरों पर इसके पीछे कांटो में चने आदि भी पिरोए जाते हैं जो एक सगुन माना जाता है। कैर का रंग इतना गहरा और हरा होता है कि दूर से दिखाई देता है लेकिन जब इस पर फूल लगते हैं तो दूर से लोग आकर्षित करते है। कैर में सरीसृप निवास करते हैं और कैर उनका सुरक्षा भी करता है। कैर अधिक ऊंचा नहीं होता लेकिन कभी कबार इसकी लकड़ी मोटी हो जाती है तो काट कर घरों में प्रयोग करते हैं। परंतु कर जब खत्म हो जाते हैं दोबारा से पनपने में लंबा समय लेते हैं।
टींट का अचार जब कोई एक बार खा लेता है तो वह इसकी और आकर्षित होता चला जाता हैं। अचार का वो इतना दीवाना बन जाता है कि टींट के अचार के बगैर वह खाना तक नहीं खाता।
 बुजुर्ग आज भी बताते हैं पुराने समय में अधिक संघर्ष करके टींट को तोड़ कर लाते थे और थैलों में भरकर घर तक पहुंचाते थे। घरों में छाछ भी अधिक मात्रा में होने से टींट को छाछ में कुछ दिनों तक डाले रखते है। जब उनका कड़वाहट कम हो जाता है तो उन्हें तलकर या भूनकर प्रयोग करते है। आज कभी पेट में दर्द हो जाए तो इसका पिसा हुआ पाउडर लिया जाता है। टींट का प्रारंभ में रंग हरा होता है वहीं बाडिया भी हरे रंग का होता है। यदि टींट को न तोड़ा जाए तो बाद में यह लाल रंग रूप धारण कर लेता है जिसे पीचू कहते हैं तथा लोग चाव से खाते हैं। जिसका स्वाद मीठा होता है परंतु इनके बीजों को फेंक दिया जाता है। कुछ पक्षी तो बड़े अधिक लुभाते हैं और उसके फलों को खाते हैं और अपना पेट भरते हैं। टींट एवं बाडिय़ा आदि वर्तमान में पुरानी बात होती जा रही है किंतु लंबे अरसे तक अचार के रूप में टींट को आज भी प्रयोग किया जाता है। बाजार में टेंटी/टींट आदि नामों से आचार मिल जाता है जो सिद्ध करता है कि बुजुर्ग जिस फल का प्रयोग करते थे सबसे अधिक प्रयोग करते थे वह आज भी उपलब्ध है।

क्योंकि कहावत है टींट बाडिय़ा सब दिन सब दिन रांधू का अर्थ है कि टींट एवं बाडिय़ा की सब्जी तो प्रतिदिन बनती है लेकिन चावल होली जैसे पर्व  के दिन बनाऐ जाते थे। इसे सिद्ध होता कि चावल बुजुर्ग कम खाते थे ये कम मिलते थे वही टींट एवं बाडिय़ा प्रतिदिन प्रयोग करते थे। अब भी बड़े-बड़े शहरों में बाजार में कुछ गरीब जाति के लोग टींट बडिय़ा आदि बाजार में बेचते देखे जा सकते हैं। वे ढेर लगाए इनको बेेचते हैं।
 टींट खाने की आदत डाली जाएगी और बढिय़ा की सब्जी बनाई जाए तो आज भी पुराने समय का स्वाद फिर से हाजिर हो सकता है। अभी टींट पर बहुत से शोध चल रहे हैं। यह भी हो सकता है कि भविष्य में कैर बड़े स्तर पर औषधि के रूप में प्रयोग किया जाए। पुराने वक्त में सांगर, चौलाई, श्रीआई, बथुआ एवं हरी मेथी आदि अधिक प्रयोग करते थे।




Friday, June 17, 2022

                            उच्च रक्तचाप
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पांच फल जो आसानी से मिलते हैं खाने चाहिए
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उच्च रक्तचाप के हैं कई खतरें
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उच्च रक्तचाप से बचने के लिए खाए फल
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प्राय: आधुनिक भागदौड़ की जिंदगी में इंसान अनेक रोगों से पीडि़त होता चला जा रहा है जिनमें सबसे बड़ी समस्या उच्च रक्तचाप यानी हाई ब्लड प्रेशर की है। न जाने कितने रोगों का कारण उच्च रक्तचाप बनता है।
- हार्ट फेल
-हृदय की असामान्य धड़कन
- ब्रेन हेमरेज
-गुर्दे खराब होना
- धमनियों में कोलस्ट्रोल बढऩा
-दृष्टि पर प्रभाव
-अपंगता/हवा लगना
-गैंगरिन का भी इसी से कुछ जुड़ाव है।
जैसे कितने ही कारण दिखाई देते हैं। जब उच्च रक्तचाप हो जाता है तो हृदय को प्रतिदिन की बजाय अधिक काम करना पड़ता है। एक स्वस्थ व्यक्ति का रक्तचाप 80/120 होना चाहिए किंतु इससे ऊपर होना
नुकसानदायक है। अक्सर यह कह कर टाल दिया जाता है की रक्तचाप में उम्र भी जोड़ दी जाए लेकिन हकीकत यह नहीं है। विज्ञान यह कहता है कि रक्तचाप चाहेउम्र कितनी भी हो अधिक प्रभाव नहीं डालता, उम्र जोडऩे का कोई तात्पर्य नहीं बनता। उच्च रक्तचाप एक बड़ी समस्या बनती जा रही है।

 अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों में हर जगह समस्या देखने को मिलती है।  कई बार अपंग बनकर रह जाता है और  पूरी जीवन अपंगता में जीवन यापन करता है। ऐसे समय इंसान कई बार सोचता है कि जिंदगी से बेहतर है मर जाना लेकिन विज्ञान की भाषा में उच्च रक्तचाप के पीछे अनेकों कारण हो सकते हैं। अक्सर लोग शराब अधिक पीते हैं, तला भुना खाना एक आम बात बन गई है। वैसे भी इंसान तनाव में जीता है और दूसरों को देख देखकर जल भुन जाता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। चिकनाई युक्त भोजन नुकसानदायक है ऐसे में रक्त धमनियों की हालात वही होती है जो नाली में किसी प्रकार का अवरोध आ जाता है। नसों में भी अवरोध बन जाता है जिससे रक्त अपनी गति से नहीं बह सकता और इसे उच्च रक्तचाप नाम दिया गया है क्योंकि रक्त का दाब बढ़ जाता है। इ
ऐसे समय में गर्मी गर्मियों में अनेक फल मिलते हैं इनको खाने से इंसानउच्च रक्तचाप पर कुछ हद तक काबू पा सकता है। उच्च रक्तचाप को कम करने के लिए लोग अक्सर जीवन भर गोलियां लेते हैं परंतु यदि समय से गौर किया जाए तो रक्तचाप को बढऩे से रोका जा सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में गर्मियों के दिन बहुत से फल आते हैं इनको खाने से रक्तचाप को घटाया जा सकता है। इनमें
सबसे महत्वपूर्ण है कि है केला।
केला----
केला हर समय उपलब्ध होता है। दुनिया में सबसे अधिक खाया जाने वाला फल भी केला ही है। केला गर्मी सर्दी हर मौसम में उपलब्ध होता है क्योंकि उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में पोटेशियम तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और केले में पोटैशियम के अलावा ओमेगा-3, फैटी एसिड अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। केला सुबह-शाम आ सकता हो खाया जा सकता है यद्यपि कुछ डॉक्टर केले को खाली पेट में खाने की सलाह नहीं देते हैं परंतु केला खाना कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश के लिए लाभप्रद होता है ।वैसे भी केला ग्रामीण क्षेत्रों में विवाह शादियों, उत्सव तथा बंधुता भावना को लेकर भी लेनदेन किया जाता है। हर जगह आसानी से उपलब्ध हो जाता है। मीठा केला पका हुआ केला खाना अधिक लाभप्रद होता है।
आम----
 गर्मियों के दिनों में सबसे मशहूर फल आम खाया जाता है जो उच्च रक्तचाप को रोकता है।  वैसे तो कहावत है जो आम नहीं खाते वो गधे होते हैं लेकिन कवि का यह कथन कहां तक सत्य है यह कहना उचित नहीं। वैसे भी आम रसीला फल होता है आम की 500 से अधिक किसमें पाई जाती हैं। आम में फाइबर पाया जाता है यही नहीं बीटा ककैरोटिन भी मिलता है जो उच्च रक्तचाप को रोकता है।  गर्मियों में मीठे रसीले फलों का स्वाद लेना चाहिए उच्च रक्तचाप को रोकने में मदद करते हैं। वैसे भी आम फलों का राजा है इसीलिए कहते आम का मधुर स्वाद हर किसी को पसंद आ जाता है।
 तरबूज-

तरबूज गर्मियों का बेहतर तोहफा है। ग्रामीण क्षेत्रों में उगाया जाता है और हर जगह लगभग उपलब्ध हो जाता है। गर्मियों के दिनों में जगह-जगह तरबूज को ढेर लगाकर बेचा जाता है। उच्च रक्तचाप वालों के लिए बेहतर फल है जिस में पानी की मात्रा अधिक पाई जाती है। इस तरबूज में पोटेशियम, विटामिन, लाइकोपीन, अमीनो एसिड आदि पाए जाते हैं जो उच्च रक्तचाप को रोकने में पोटाशियम आम में मिलता है। इसके अलावा कुछ महंगे फल भी विटामिनों के स्रोत होते हैं जो न भी उपलब्ध हो तो आम, केला और तरबूज से भी उच्च रक्तचाप को रोका जा सकता है।
स्ट्रॉबेरी---
 स्ट्रॉबेरी एंटीऑक्सीडेंट, विटामिन-सी ओमेगा-3 फैटी एसिड से भरपूर होता है इसमें भी पोटैशियम पाया जाता है जो उच्च रक्तचाप को रोकता है लेकिन स्ट्रॉबेरी ग्रामीण और गरीब व्यक्ति के लिए पहुंच से बाहर होते हैं। इसी प्रकार कीवी उच्च रक्तचाप को रोकने के लिए फायदेमंद फल है जिसमें पोटैशियम एवं मैग्निशियम तत्व पाए जाते हैं।  

कीवी-

कीवी का सेवन करने से दिल के दौरे ,अन्य खतरे कम हो जाता है। यहां तक कि डॉक्टर सलाह देते हैं कि उच्च रक्तचाप के रोगियों को रोजाना कीवी का जूस पीना चाहिए किंतु यह फल गरीबों की पहुंच से कुछ महंगे होते हैं। परंतु तरबूज आम और केला आम व्यक्ति आसानी से खा सकता है। जिससे इन लोगों से भयंकर रो






ग से छुटकारा मिल सकता है। ऐसे में जब भी प्यास लगी हो तो तरबूज का फल खाया जा सकता है। यदि भूख लगी हो केले का फल खाया जा सकता है। मधुर रस लेने का मन हो तो आम का फल खाया जा सकता है। खट्टी चीजें खाने का मन करे तो कीवी और स्ट्रॉबेरी महंगे दामों पर लाकर खाए जा सकते हैं।

Saturday, June 11, 2022

                                 तुरही
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आरेंज ट्रंपेट वाइन
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 येलो रेड वाइन
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 कॉउ ईच वाइन
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हमिंगबर्ड वाइन
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आमतौर पर किसी बाग बगीचे झाड़ बोझे के आसपास अमेरिकन पौधा ऑरेंज ट्रंपेट आसानी से देखने को मिल सकता है जिसके फूलों को आप देख कर ही पता लगता है कि यह बैंड बाजे वाला पौधा है। जिस प्रकार पुराने समय में बैंड बाजा बजाते थे ठीक उस जैसा आकार फूलों का होता है इसलिए सिर्फ ट्रंपेट वाइन नाम से जाना जाता है। ये फूल देने वाले पौधे होते हैं जो भारत देश की उत्पत्ति नहीं है। यह यह बेल से लेकर पेड़ तक बन जाते हैं। इसके पत्ते गहरे हरे होते हैं एक दूसरे के लीफलेट पर विपरीत दिशाओं में लगे होते हैं। इसके इस पौधे के फूल बहुत आकर्षक होते हैं इसलिए दुनिया का सबसे छोटा पक्षी हमिंग बर्ड भी इन फूलों पर देखने को मिल सकता है।
 इसके फूलों से बड़ी-बड़ी पोड बनती है जिनमें बीज पाए जाते हैं क्योंकि  कुछ व्यक्तियों में यह पौधे संपर्क में आकर खुजली पैदा कर सकते हैं इसलिए इनको आउ इच वाइन नाम से भी जाना जाता है। बाग बगीचे की शोभा यहां तक की किसी बाग बगीचे के चारों ओर देखने को मिल सकते हैं। प्राय यह फूलों से लदे होते हैं और बेल के रूप में पाए जाते हैं।
इस पौधे की पत्तियां बड़ी होती है। फूल अनेकों रंगो के पाये जाते हैं जिनमें लाल, पीला, संतरी आदि के मिलते हैं। इस बेल की ओर चिडिय़ा और जीव जंतु आसानी से आकर्षित होते हैं। इसे  अधिक सूर्य का प्रकाश नहीं चाहिए इसलिए आसानी से उगाई जा सकती है और इसे अधिक पानी की भी जरूरत नहीं होती है। इसकी अनेक प्रजातियां पाई जाती है। त्वचा पर जलन पैदा करती है। वास्तव में तुरही का पौधा कोई विशेष लाभ नहीं देता सुंदरता के रूप में तो जाना जाता है किंतु आयुर्वेदिक औषधियों के रूप में इसे बहुत कम प्रयोग किया जाता है।










घरों में यह पौधा सजावट के लिए उगाया जाता है। अप्रैल महीने में इस पर फूल आने आरंभ हो जाते हैं सर्दी आने पर फूल आने बंद हो जाते हैं। सर्दियों में पत्ते झड़ जाते हैं। इसकी और कीट बहुत आकर्षित होते हैं।



Wednesday, June 8, 2022

                              नेपियर घास
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सेंचरस पर्पूरियस
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 पेनिसेटम पर्पूरियस
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 हाथी घास/युगांडा घास
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 हाथी घास/युगांडा घास कहने को तो नेपियर एक घास है किंतु यह घास कुल का पौधा नहीं होता। इसे वैज्ञानिक भाषा में सेंचरस पर्पूरियस/ पेनिसेटम पर्पूरियस नाम से जाना जाता है। यह पोएसी कुल का पौधा होता है जो भारत की उत्पत्ति नहीं है अपितु अफ्रीका की पैदावार है। इसके पैदा करने में पानी एवं खाद आदि की बहुत मक जरूरत होती है। इसके तनों की मदद से इसे आसानी से उगाया जा सकती है जो बहुत कम और बहुत अधिक ताप को सहन कर सकती है। अफ्रीका में अपने आप उग जाती है।
 नेपियर घास वर्तमान में किसानों के लिए योगदान नहीं अपितु वैज्ञानिकों के लिए भी अनेक शोध का कारण बनी हुई है। घास इसलिए कहते हैं कि पशुओं के हरे चारे के रूप में काम में लाई जाती है किंतु यह बाजरे से बिल्कुल मिलती-जुलती तथा इसके तने को देखें तो गन्ने और बाजरे जैसा ही होता है। कभी-कभी झुंडे एवं बांस जैसा भी पौधा बन जाता है किंतु यह बार-बार काटी जा सकती है। एक बार में ही एक पौधे से 50 से 60 किलो हरा चारा प्राप्त हो सकता है। इसलिए किसानों के लिए अधिक लाभप्रद है। सबसे बड़ी विशेषता इस पौधे पर बीजी बनते हैं बिल्कुल बाजरे जैसे भुट्टे भी लगते हैं किंतु इसकी पैदावार बढ़ानी हो तो इसके पके हुए तने को काटकर गन्ने की भांति भूमि में दबा दिया जाता है और यह घास उत्पन्न हो जाती है। हरा भरा पौधा दूर से लुभा लेता है। यह पौधा बहुत भारी हो जाता है जिसको देखकर ही लगता है कि यह हाथी घास है।
वैज्ञानिकों के लिए यह शोध का विषय बना हुआ है क्योंकि एक बार लगा देने के बाद कई सालों चलती रहती है। बार-बार काटी जाती है तथा एक बार में एक पौधे से 50 से 60 किलो चारा आसानी से प्राप्त हो जाता है और घास को देखकर ही पता लग जाता है कि यह नेपियर घास है। जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बहने से रोकती है। हवा के दबाव को कम करती है, कागज उद्योग में काम आती है तथा बायोगैस, बायो तेल एवं चारकोल आदि के निर्माण में भी काम में लाते हैं।
 कभी-कभी इस घास को देखकर ऐसा लगता है जैसे बांस का पौधा है। बांस के पौधे की भांति बहुत तेज गति से बढ़ती है। यह एक बीजपत्री पौधा है जिसके बीज में केवल एक दल पाया जाता है परंतु बीजों की बजाय इसके तने से ही दूसरा पौधा तैयार किया जा सकता है।
प्रतिवर्ष पशुओं के लिए सूखा चारा, हरा चारा तथा सांद्र चारे की जरूरत होती है जो इसी पौधे से प्राप्त किया जाता है। साल में कई बार उगाई जा सकती है ,पर एक बार उगाए जाने पर कई सालों तक चलती है। इसलिए भी किसानों के लिए घास वरदान बन गई है। गन्ने की भांति इस में अनेक पोरियां होती है जो अंदर से मीठी होती है इसलिए पशु इसको चाव से खा लेते हैं।




 नेपियर घास को बीजों से भी पैदा किया जा सकता है। नेपियर के ताने को काटकर ही तैयार की जाती है क्योंकि किसान पशु पालता है पशुओं के लिए सूखा, हरा चारा तथा सांद्र चारे की जरूरत होती है जिसमें से दो चारों की पूर्ति नेपियर घास कर सकती है। धीरे-धीरे लोगों का किसानों का रुझान इस घास की ओर बढ़ गया है। उद्योगों की दृष्टि से पशु का दूध बढ़ाती है क्योंकि यह पौष्टिक चारा होता है।
 नेपियर घास चारे के रूप में अधिक उगाई जाती है इसलिए डेयरी उद्योगों में बहुत प्रसिद्ध है। अफ्रीका में डेयरी उद्योगों के लिए यह घास अधिक उगाई जाती है। गाय एवं भैंस आदि इसे आसानी से खाते हैं दूसरे पशु देश को खा लेते हैं। युगांडा में उगाई जाने वाली घास बाल रहित होती है अधिक पैदावार देती है। सबसे बड़ी विशेषता है कि कम पानी और कम तत्वों से उगाई जा सकती है।
 किसान विशेषकर पशु पाल कर दूध प्राप्त करते हैं। दूध प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के चारे पैदा करते हैं या बाजार से खरीद कर लाते हैं ताकि दूध पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके। परंतु किसानों की नजरें लगातार नेपियर घास की ओर बढ़ी है ताकि सुधार से अधिक लाभ कमाया जा सके। इस पर खर्चा बहुत कम आता है तथा लाभ अधिक देती है। किसान इस घास को देखकर अधिक खुश है।






Friday, June 3, 2022

                               पटेरा घास
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 टाइफा एलिफेंटीना
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पटेर घास
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 कभी नदियों के किनारे, जोहड़, घनी आबादी के गंदे नालों में पटेर या पटेरा घास बहुत अधिक मात्रा में मिलती थी जिसे एलीफेंट घास आदि अनेक नामों से जाना जाता है। प्राचीन समय से ही लोग पटर घास के विषय में परिचित थे। इसे उखाड़ कर अनेक कामों में लेते थे। इसकी बहुत अधिक ऊंचाई पाई थी और बिल्कुल बाजरे एवं झुंडा से मिलती-जुलती होती है। पटेर घास पानी को साफ करने में अहं भूमिका निभाती है।
 पटर घास पर बाजरे जैसा भुट्टा लगता है। ग्रामीण क्षेत्रों में पटेरा नाम से भी जानते हैं। पानी को शुद्ध करने के लिए काम में लाई जाती है कारण है कि विभिन्न शहरी क्षेत्रों में जोहड़ो या गंदे पानी को साफ करने के लिए पटे घास उगाई जाती है। एक और जहां मशीनें से जल को साफ करने में करोड़ों रुपए खर्च आता है वही इसका इसको उगाने में ना के बराबर खर्च आता है। वही यह गहरी होने के कारण पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन छोड़ती है। सबसे बड़ी खूबी है कि पटेर घास गंदे पानी की गाद कम कर देती है। और गाद धीरे-धीरे खत्म हो जाती। इस कारण पानी में आक्सीजन संचार अधिक तेजी होता है। यही नहीं यह विषैले तत्वों को भी जड़ों के नीचे इक_ा कर देती है। यह दीमक रोधी होती है। सूख जाती है तो इसकी की कटाई कर ली जाती है। प्लाई बोर्ड की तरह बोर्ड बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। बुजुर्ग बताते हैं कि जब यह घा मिल जाती
थी रोटी रखने की चंगेरी, विभिन्न प्रकार के बच्चों के खिलौने, छाबड़ी तथा रस्सी बनाने के काम में लेते थे। अब यह घा खत्म होने के कगार पर है। पटेर घास को अब कहीं देखते हैं तो बुजुर्ग बड़े प्रसन्न हो जाते हैं।
 अब तो दूषित जल को साफ करने के लिए विभिन्न कदम उठाए जाते जिनमें पटेर घास उगाना पसंद किया जाता है। जब पटर घास पक जाती है इस पर एक बहुत सुंदर भुट्टा जिसमें बहुत बारीक बारीक दाने जैसी रचनाएं नजर आती है। अनेक रोगों में भी काम में लेते हैं। क्योंकि इसका स्वाद कड़वा होता है इसलिए पेशाब संबंधित रोग ,घाव को भरने, दाद वगैरह को दूर करने एवं कुष्ठ रोग आदि के लिए प्रयोग करते हैं। परंतु पटेर घास औषधियों के बजाय विभिन्न प्रकार के साज बाज के सामान बनाने के काम में लेते हैं। पुराने समय में बीज भरने के लिए, बीज डालने के लिये, चटाई इसी से बनाते थे। यहां तक कि पटेर घास से ही झोपड़पट्टी भी बनाई जाती थी। झाडू बनाने के काम में लेते हैं। पशुचो के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जोहड़ों में पर्याप्त मात्रा में खड़ी हुई देखी जा सकती है। लोग इसको जानते नहीं इसलिए पानी के पौधे समझ बैठते हैं। वरना यह पटेर घास होती है।
 पटेल कहां 6 से 12 फुट ऊंचाई तक बढ़ती है फूल एक लिंगी होते हैं तथा बीजों से बारीक बारीक बाल जैसी रचनाएं जुड़ी होती है। यदि इसे अधिक मात्रा में ले लिया जाए तो बदहजमी पैदा कर सकती हो। किसी ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन के रूप में तथा दवाओं के रूप में प्रयोग करते हैं। तारीफा जगदीश अप्लाई जॉब पकाकर खाया जाता है इसके तने में स्टार्च बहुत अधिक मात्रा मिलता है। वही इसमें रेशे भी मिलते हैं। इसके तने भी कुछ लोग  खाने के काम में लेते हैं। इसके बीजों से तेल निकाला जाता है। यह दवाओं में भी काम आता है। इसके पत्ते, तने आदि पेपर बनाने के काम में भी लाए जाते हैं। यहां तक कि रिस्सयां बनाई जाती है।
 पुराने समय का पटेर का उपयोग लोग नहीं भूले हैं। कुछ लोग पटेर को चारे के रूप में भी प्रयोग करतेे हैं। परंतु सबसे अधिक उपयोग में झाड़ू बनाने तथा झोपड़पट्टी बनाने के काम में लेते थे। अब न तो झोपड़पट्टी बची हैं और न झाडू के








रूप में अधिक उपयोग किया जाता है।



Wednesday, April 20, 2022

                               सर्दी गर्मी और पेड़ पौधे
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 यूं तो सर्दी और गर्मी स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होती है वहीं पेड़ पौधों के लिए भी लाभप्रद है। सर्दी गर्मी बढऩे की एक सीमा होती है लेकिन सीमा को यदि क्रास कर दिया जाए तो पेड़ पौधों के साथ नष्ट होने की समस्या आ जाएगी छोटे पौधे खत्म हो जाएंगे वही बड़े पौधों पर भी कुप्रभाव पड़ता है। यही हालात सर्दी की होती है छोटे पौधे जिनमें शाक एवंं झाड़ी लगभग समाप्त हो जाते हैं। गर्मी का बढऩा भूमिगत पानी को गहराई पर ले जाता है क्योंकि पानी की मांग बढ़ जाती है और दिनोंदिन अधिक से अधिक पानी का दोहन किया जाता है। इसके चलते भूमिगत जल स्तर हर वर्ष गिरता चला जाता है। सर्दी की बात करें तो सर्दी एक सीमा तक पेड़ पौधों के लिए लाभप्रद होती है। इस जगत में दो प्रकार के पेड़ पौधे होते हैं। कुछ सर्दी को पाकर ही फूल और फल देते हैं वहीं कुछ ऐसे पेड़ पौधे है जो गर्मी को पाकर ही फूल और फल देते हैं। यदि सदी बढ़ती चली जाए तो गमलों के पौधे भी नष्ट हो जाते हैं वही झाड़ी भी लगभग समाप्त होने के कगार पर चली जाती है। बड़े-बड़े पौधों के पत्ते जो झुलस जाते हैं और कई बार  सर्दी के कारण अनेकों पेड़ पौधे सूख जाते हैं।  इसी प्रकार गर्मी बढ़ती चली जाती है जो घातक प्रभाव डालती है। वैसे तो गर्मी के बढऩे से भूमि के अंदर घुसे हुए हानिकारक कीड़े फसलों के लिए घातक होते वह मर जाते हैं वही ज्यादा तपन से धूप भूमि में प्रवेश कर जाती है और गर्मी ज्यों ज्यों धरती में प्रवेश करेगी तो बारिश के बाद पानी का प्रभाव सकारात्मक होगा किंतु गर्मी की भी एक सीमा होती है हर वर्ष तापमान बढ़ता चला जा रहा है। यूं तो पूरे विश्व में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बन रही है।
क्या है ग्लोबल वार्मिंग-
आज के दिन एक समस्या ने पूरे विश्व को हिला कर रख रखा है वह है ग्लोबल वार्मिंग। दिनोंदिन प्रदूषण बढ़ रहा है, विशेषकर आग जलाना, उद्योग धंधे, कारखाने, फैक्ट्रियां, वाहन आदि का धुआं निकलता रहता जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड गैस 
निकलती है। कार्बन डाइऑक्साइड हवा में धरती के आसपास एक परत बना देती है जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों को जो कम तरंगदैध्र्य की होती हें उन्हें अपने अंदर से आने तो देती लेकिन जब धरती को गर्म कर देती और अधिक तीरंगदैध्र्य की किरणों के रूप में वापिस जाना चाहे तो उनको वापस नहीं जाने देती अपितु वापस धरती पर धकेल देती है जिसके चलते धरती का तापमान बढ़ता चला जाता है। इसे ग्लोबल वार्मिंग नाम दिया गया है। यह वार्मिंग विश्व के लिए संकट बन रहा है चूंकि तापमान बढ़ेगा तो धु्रवों की समस्त बर्फ पिंघल जाएगी और समुद्र तल एक सौ मीटर के करीब बढ़ जाएगा। जिसके चलते पानी शहरों की ओर दौडऩे लगेगा और लोग काल के ग्रास बन जाएंगे किंतु यह समस्या किसी एक देश की नहीं अपितु सभी देशों में पूरे संसार में चल रही है। धुआं कारखानों से, घरों से, हर जगह निकल रही है, पेड़ पौधे काटे जा रहे हैं परिणाम स्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है और ऑक्सीजन घटती जा रही है। यदि पेड़ पौधे लगाए जाए तो कार्बन डाइऑक्साइड पर काबू पाया जा सकेगा और ग्लोबल वार्मिंग से बचा जा सकेगा। इसका एकमात्र तरीका है अधिक से अधिक पेड़ लगाए। एक साधारण सा उदाहरण ग्लोबल वार्मिंग का- शीशा चढ़ी हुई कार जिसके अंदर देखते-देखते तापमान बढ़ जाता है क्योंकि शीशा ठीक उसी प्रकार कार्य करता है जैसे कार्बन डाइऑक्साइड की पर्त हवा में कार्य करती है। ऐसे में कार्बन डाइऑक्साइड को घटाने, पेड़ पौधे लगाने पर जोर देना चाहिए ताकि विश्व को एक गंभीर संकट से बचाया जा सके।
यदि सर्दी और गर्मी लगातार अपनी सीमा को लांघ जाएंगे तो निश्चित रूप से जीव जंतुओं पर बुरा प्रभाव पड़ेगा व पेड़ पौधे भी निश्चित रूप से कम होते चले जाएंगे। वैसे भी पेड़ पौधों को कम करने के लिए इंसान लगा हुआ है। उनको अधिक से अधिक काटकर नष्ट करने पर तुला हुआ है। किसी जमाने में हर गांव में बणी होती थी और ये बणियां जीव जंतु के लिए सुरक्षित स्थान होते थे। यहां गर्मी सर्दी में जीव जंतु पेड़ों के नीचे बैठकर आराम महसूस करता था किंतु अकेले कनीना की बात की जाए तो अधिकांश बणियां समाप्त कर दी गई है। आने वाले समय में शायद बनियों को ढूंढते रह जाएंगे क्योंकि भारी लूट मची हुई है । बणियों की देखरेख कोई करने वाला नहीं जिसके चलते दिनोंदिन लोग बणियों पर अतिक्रमण ़बढ़ते जा रहे हैं। यही कारण है कि जीव जंतु कम होते जा रहे हैं।

कनीना की बणियां एवं स्थितियां-
 धीरे-धीरे कनीना की बावनी भूमि से जंगलों(बेणियों) की आकार सिमटकर समाप्त होने को पहुंच चुका है। कभी आधा दर्जन बेणियों का स्वामी होता था किंतु आज बेणी के नाम पर अल्प  पेड़ बचे हैं। चारों ओर से अतिक्रमण की शिकार ही नहीं अपितु बेणियों का अस्तित्व ही समाप्त करके खेतों में बदल दिया गया है।

  कनीना की बेणियों कई नामों से जानी जाती थी जिनमें छोटी बेणी, बड़ी बेणी, रणास की बेणी, मानका की बेणी, पीपलवाली बेणी प्रसिद्ध होती थी किंतु वर्तमान में चारों ओर से संकीर्ण बना दिया है, बोरवैल बना डाले हैं, पेड़ काटकर खेती के रूप में काम में लिया जा रहा है, कूड़ा कचरा डाला जा रहा है, मिट्टी को उठाकर ले जाया जा रहा है वहीं पेड़ों की दिनरात कटाई की जा रही है। कुछ लोगों ने तो बणियों के पेड़ काटकर काफी मुनाफा कमा लिया है। वैसे तो ये लोग बड़े कहलाते हें किंतु पेड़ों की कटाई कर बेचने से पीछे नहीं हटते।
 नगरपालिका ने महज मिट्टी न उठाने संबंधित बोर्ड लगाकर अपने काम की इतिश्री समझ ली है। आज तक के इतिहास में किसी बेणी की पैमाइश करवाकर अतिक्रमण को नहीं रोका है जिसके चलते बेणियों का अस्तित्व संकट में है।
  जहां तक छोटी बेणी में धार्मिक स्थान बना दिए गए हैं वहीं कनीना का सामान्य बस स्टैंड बनवा दिया गया है। बड़ी बेणी में एक निजी संस्था को पट्टे पर 58 एकड़ जमीन दे डाली है। रणास की बेणी में सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगवा दिया है वहीं गंदे पानी को इक_ा करने के लिए जोहड़ बनवा दिया है और रही बात मानका की बेणी तथा पीपल वाली बेणी ये किसानों ने ही समाप्त कर दी है। पीपलवाली बणी में अगर कनीना न्यायालय एवं सरकारी कार्यालय बन जाता तो बेहतर होता आज किसी भी बेणी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। यह दुर्दशा आखिरकार किसानों ने, पेड़ माफिया ने तथा अन्य जनों ने कर डाली है। यदि नगरपालिका इन बेणियों की पैमाइश करवा दे तो सैकड़ों एकड़ जमीन पर पेड़ काटकर बनाई गई खेती को छोड़ते वक्त किसानों को बहुत दर्द होगा ही साथ में कुछ स्थानीय नेताओं की राजनीति पर गहरे संकट छा जाएंगे।

   आश्चर्यजनक पहलु यह है कि इन बेणियों में जिस किसी का जितना वश चला उसने उतने ही पेड़ समाप्त कर दिए हैं। यहां तक कि नलकूप बनाकर, भैंसों का बाड़ा, कूड़ा कचरा डालने का स्थान, मिट्टी उठाने का स्थान, यहां तक कि पक्के मकान बनाकर रहने का आरामदायक स्थान बना लिया है। जहां जंगली जीव रहते थे वहां उन जीवों को डराकर अन्यत्र भेज दिया और उस जगह आज इंसान रहने लगे हैं। कहावत है -राम नाम की लूट है लूटी जा सो लूट, कहावत शत प्रतिशत चरितार्थ होती है। कोई जितनी जमीन रोकना चाहे तो रोक सकते हैं, स्थानीय प्रशासन नाम की कोई चीज तो है ही नहीं।
 कभी बेणियों में सैर सपाटा के लिए लोग यह समझकर जाते थे कि साफ सुथरी हवा मिलेगी किंतु अगर अब को बेणी में जाएगा तो मरे हुए जीवों की बदबू, विवाह शादी का कूड़े कचरे की बदबू, मिट्टी कटाव से उड़ती धूल से सांस रोग, प्रदूषण युक्त हवा में रोग लेकर ही घर लौटेगा। और तो और लोगों ने मिट्टी को काट-काटकर बेच डाला है। पेड़ पौधों को रातोंरात काट डाला है। मिट्टी कटाव देखकर लगता है कि किसी पहाड़ी क्षेत्र में आ गए हैं।
  बेणियों के आस पास लोगों से बात करनी चाही तो उल्टे उनकी भौहें तन गई। अधिकारियों से बात करनी चाही तो मौन हो गए। कुछ पर्यावरण को चाहने वाले जन दबी जुबान में कहने लगे कि नगरपालिका को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

क्या कहते हैं अधिकारी-
नगरपालिका ने तो बोर्ड लगाकर स्पष्ट कर दिया है कि मिट्टी काटने वालों पर कार्रवाई की जाएगी। पेड़ पौधे काटने वालों को नहीं बख्शा जाएगा।
क्या है लोगों की मांगे-
* बेणियों के अस्तित्व को बचाया जाए।
*पेड़ काटने वालों पर निगरानी रखी जाए और उन पर जुर्माना किया जाए।
* सभी बेणियों की पैमाइश करवाई जाए और अतिक्रमण करने वालों पर केस दर्ज करवाए जाए। अब तक जितना उन्होंने नुकसान किया है उसकी भरपाई करवाई जाए।
* बेणियों में मरे हुए पशु एवं विवाह शादियों का कूड़ा कचरा डालने पर प्रतिबंध लगाया जाए और न माने उन पर जुर्माना किया जाए।
* बेणियों में गार्ड रखे जाए जो पेड़ काटने व अतिक्रमण करने वालों की सूचना विभाग को देते रहे।
घटा दिया है बणियों का आकार
-कितनी होती थी जमीन
 कनीना की सभी बणियों का आकार घटता ही जा रहा है। आधा दर्जन बणिया हैं जिनमें से कोई भी बणी अपने वास्तविक आकार से आधी भी नहीं बची है। सरकार एवं प्रशासन ने कभी इन बणिया की पैमाइश नहीं करवाई है। यही कारण है कि बणिया में पक्के मकान, ट्यूबवेल एवं अतिक्रमण करके पेड़ों को नष्ट कर दिया है वहीं जमीन को कब्जा लिया है।
  कनीना में करीब छह बणिया होती थी जिनमें से रणास, पीपलवाली, बड़ी बणी, छोटी बणी, मानका आदि प्रमुख थी। जहां बड़ी बणी में शिक्षण संस्थान, वाटर स्टोर केंद्र, गौशाला, आवास बनने के अतिरिक्त चारों ओर से अतिक्रमण के चलते बस नाम की बड़ी बणी रह गई है। इस बणी में पेड़ों को भारी क्षति हुई है और अभी भी अतिक्रमण जारी है। उधर छोटी बणी का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया है। रणास की बणी में कोई पेड़ नहीं बचा है तो मानका एवं पीपलवाली बणी अब सिकुड़ती जा रही हैं। इन बणिया में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, ट्यूबवेल, आवास बनाने तथा किसानों द्वारा अतिक्रमण के चलते आधी से भी कम रह गई हैं। नगरपालिका ने विगत दशकों से इन बणिया की न तो सुध ली है और न पैमाइश करवाई है। अगर सभी बणिया की सुध ली जाए तो प्राप्त जमीन को बोली पर छोड़कर करोड़ों रुपये की आय प्राप्त हो सकती है वहीं जंगली जीवों का संरक्षण हो सकता है।
कुछ जन अवैध पक्के मकान बनाकर बिजली कनेक्शन, पानी आदि सभी सुविधाएं लेकर के सरकार को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
  मिली जानकारी अनुसार कनीना पालिका के करीब 335 कनाल 16 मरला जमीन कृषि योग्य है वहीं कोटिया गांव के पास रणास की बेणी(जंगल)32 कनाल पांच मरला है जहां सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लग चुका है वहीं बड़ी बेणी करीब 800 कनाल की है जिसमें से 58 एकड़ डीएवी को 99 सालों के पट्टे पर, पांच एकड़ गौशाला के लिए तथा दस एकड़ वन विभाग एवं वाटर सप्लाई हेतु दिया हुआ है, 115 प्लाट भी बने हुए हैं। करोड़ों की लागत से कान्ह सिंह पार्क भी बना है। पीपलावाली बणी 125 कनाल, मानका वाली बणी 82 कनाल, दस मरला है।

  सभी बणियां चारों ओर से पेड़ काटकर संकीर्ण बना डाली हैं वहीं अवैध निर्माण करके बिजली पानी कनेक्षन भी ले रखे हैं। जंगली जीव लुप्त हो गए हैं वहीं जंगलों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। इनकी पैमाइश करवाकर पौधारोपण करवाने की मांग बढऩे लगी है।
आज जंगली जीव को देखा जाए तो पूर्णता खत्म होते जा रहे हैं। वैसे भी ट्यूबवेल के स्थान पर बोर आ गए हैं जहां पानी खेल एवं पाऊंडा तथा जल को सुरक्षित रखने के स्रोत खेतों में नहीं बचे जिसके चलते भीषण गर्मी की मार झेलते हुए पक्षी दाना और पानी के चाहत में मर जाते हैं। कभी इस क्षेत्र में शशक,काला तीतर, तीतर, बटेर, हरिण, गीदड़ और भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर भारी संख्या में होते थे किंतु अब यहीं कहीं देखने को मिलेंगे। यदि यही हालात चलती रही तो आने वाले समय में गर्मी और सर्दी का प्रभाव बढ़ता चला जाएगा और पेड़ पौधों की संख्या घटने के चलते इंसान की संख्या बढ़ती चली जाएगी और जीने के लिए पानी पेट्रोल पंप की भांति मिलेगा वहीं गैस सिलेंडर भी अपने साथ लेकर जाना पड़ेगा वरना इंसानों का जीना मुश्किल हो जाएगा जिससे पेड़ पौधे नष्ट किए जा रहे उधर से लगाए नहीं जा रहे हैं परिणाम यह है कि अधिक सर्दी और गर्मी जीव जंतु के लिए घातक साबित हो रही है।
 धीरे-धीरे कनीना की बावनी भूमि से जंगलों(बेणियों) की आकार सिमटकर समाप्त होने को पहुंच चुका है। कभी आधा दर्जन बेणियों का स्वामी होता था किंतु आज बेणी के नाम पर अल्प  पेड़ बचे हैं। चारों ओर से अतिक्रमण की शिकार ही नहीं अपितु बेणियों का अस्तित्व ही समाप्त करके खेतों में बदल दिया गया है।

  कनीना की बेणियों कई नामों से जानी जाती थी जिनमें छोटी बेणी, बड़ी बेणी, रणास की बेणी, मानका की बेणी, पीपलवाली बेणी प्रसिद्ध होती थी किंतु वर्तमान में चारों ओर से संकीर्ण बना दिया है, बोरवैल बना डाले हैं, पेड़ काटकर खेती के रूप में काम में लिया जा रहा है, कूड़ा कचरा डाला जा रहा है, मिट्टी को उठाकर ले जाया जा रहा है वहीं पेड़ों की दिनरात कटाई की जा रही है। कुछ लोगों ने तो बणियों के पेड़ काटकर काफी मुनाफा कमा लिया है। वैसे तो ये लोग बड़े कहलाते हें किंतु पेड़ों की कटाई कर बेचने से पीछे नहीं हटते।
 नगरपालिका ने महज मिट्टी न उठाने संबंधित बोर्ड लगाकर अपने काम की इतिश्री समझ ली है। आज तक के इतिहास में किसी बेणी की पैमाइश करवाकर अतिक्रमण को नहीं रोका है जिसके चलते बेणियों का अस्तित्व संकट में है।
  जहां तक छोटी बेणी में धार्मिक स्थान बना दिए गए हैं वहीं कनीना का सामान्य बस स्टैंड बनवा दिया गया है। बड़ी बेणी में एक निजी संस्था को पट्टे पर 58 एकड़ जमीन दे डाली है। रणास की बेणी में सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगवा दिया है वहीं गंदे पानी को इक_ा करने के लिए जोहड़ बनवा दिया है और रही बात मानका की बेणी तथा पीपल वाली बेणी ये किसानों ने ही समाप्त कर दी है। पीपलवाली बणी में अगर कनीना न्यायालय एवं सरकारी कार्यालय बन जाता तो बेहतर होता आज किसी भी बेणी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। यह दुर्दशा आखिरकार किसानों ने, पेड़ माफिया ने तथा अन्य जनों ने कर डाली है। यदि नगरपालिका इन बेणियों की पैमाइश करवा दे तो सैकड़ों एकड़ जमीन पर पेड़ काटकर बनाई गई खेती को छोड़ते वक्त किसानों को बहुत दर्द होगा ही साथ में कुछ स्थानीय नेताओं की राजनीति पर गहरे संकट छा जाएंगे।
   आश्चर्यजनक पहलु यह है कि इन बेणियों में जिस किसी का जितना वश चला उसने उतने ही पेड़ समाप्त कर दिए हैं। यहां तक कि नलकूप बनाकर, भैंसों का बाड़ा, कूड़ा कचरा डालने का स्थान, मिट्टी उठाने का स्थान, यहां तक कि पक्के मकान बनाकर रहने का आरामदायक स्थान बना लिया है। जहां जंगली जीव रहते थे वहां उन जीवों को डराकर अन्यत्र भेज दिया और उस जगह आज इंसान रहने लगे हैं। कहावत है -राम नाम की लूट है लूटी जा सो लूट, कहावत शत प्रतिशत चरितार्थ होती है। कोई
जितनी जमीन रोकना चाहे तो रोक सकते हैं, स्थानीय प्रशासन नाम की कोई चीज तो है ही नहीं।
 कभी बेणियों में सैर सपाटा के लिए लोग यह समझकर जाते थे कि साफ सुथरी हवा मिलेगी किंतु अगर अब को बेणी में जाएगा तो मरे हुए जीवों की बदबू, विवाह शादी का कूड़े कचरे की बदबू, मिट्टी कटाव से उड़ती धूल से सांस रोग, प्रदूषण युक्त हवा में रोग लेकर ही घर लौटेगा। और तो और लोगों ने मिट्टी को काट-काटकर बेच डाला है। पेड़ पौधों को रातोंरात काट डाला है। मिट्टी कटाव देखकर लगता है कि किसी पहाड़ी क्षेत्र में आ गए हैं।
  बेणियों के आस पास लोगों से बात करनी चाही तो उल्टे उनकी भौहें तन गई। अधिकारियों से बात करनी चाही तो मौन हो गए। कुछ पर्यावरण को चाहने वाले जन दबी जुबान में कहने लगे कि नगरपालिका को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
क्या है लोगों की मांगे-
* बेणियों के अस्तित्व को बचाया जाए।
*पेड़ काटने वालों पर निगरानी रखी जाए और उन पर जुर्माना किया जाए।
* सभी बेणियों की पैमाइश करवाई जाए और अतिक्रमण करने वालों पर केस दर्ज करवाए जाए। अब तक जितना उन्होंने नुकसान किया है उसकी भरपाई करवाई जाए।
* बेणियों में मरे हुए पशु एवं विवाह शादियों का कूड़ा कचरा डालने पर प्रतिबंध लगाया जाए और न माने उन पर जुर्माना किया जाए।
* बेणियों में गार्ड रखे जाए जो पेड़ काटने व अतिक्रमण करने वालों की सूचना विभाग को देते रहे।
घटा दिया है बणियों का आकार
-कितनी होती थी जमीन
 कनीना की सभी बणियों का आकार घटता ही जा रहा है। आधा दर्जन बणिया हैं जिनमें से कोई भी बणी अपने वास्तविक आकार से आधी भी नहीं बची है। सरकार एवं प्रशासन ने कभी इन बणिया की पैमाइश नहीं करवाई है। यही कारण है कि बणिया में पक्के मकान, ट्यूबवेल एवं अतिक्रमण करके पेड़ों को नष्ट कर दिया है वहीं जमीन को कब्जा लिया है।
  कनीना में करीब छह बणिया होती थी जिनमें से रणास, पीपलवाली, बड़ी बणी, छोटी बणी, मानका आदि प्रमुख थी। जहां बड़ी बणी में शिक्षण संस्थान, वाटर स्टोर केंद्र, गौशाला, आवास बनने के अतिरिक्त चारों ओर से अतिक्रमण के चलते बस नाम की बड़ी बणी रह गई है। इस बणी में पेड़ों को भारी क्षति हुई है और अभी भी अतिक्रमण जारी है। उधर छोटी बणी का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया है। रणास की बणी में कोई पेड़ नहीं बचा है तो मानका एवं पीपलवाली बणी अब सिकुड़ती जा रही हैं। इन बणिया में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, ट्यूबवेल, आवास बनाने तथा किसानों द्वारा अतिक्रमण के चलते आधी से भी कम रह गई हैं। नगरपालिका ने विगत दशकों से इन बणिया की न तो सुध ली है और न पैमाइश करवाई है। अगर सभी बणिया की सुध ली जाए तो प्राप्त जमीन को बोली पर छोड़कर करोड़ों रुपये की आय प्राप्त हो सकती है वहीं जंगली जीवों का संरक्षण हो सकता है।
कुछ जन अवैध पक्के मकान बनाकर बिजली कनेक्शन, पानी आदि सभी सुविधाएं लेकर के सरकार को भारी नुकसान पहुंचा रहे हैं।
  मिली जानकारी अनुसार कनीना पालिका के करीब 335 कनाल 16 मरला जमीन कृषि योग्य है वहीं कोटिया गांव के पास रणास की बेणी(जंगल)32 कनाल पांच मरला है जहां सीवर वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लग चुका है वहीं बड़ी बेणी करीब 800 कनाल की है जिसमें से 58 एकड़ डीएवी को 99 सालों के पट्टे पर, पांच एकड़ गौशाला के लिए तथा दस एकड़ वन विभाग एवं वाटर सप्लाई हेतु दिया हुआ है, 115 प्लाट भी बने हुए हैं। करोड़ों की लागत से कान्ह सिंह पार्क भी बना है। पीपलावाली बणी 125 कनाल, मानका वाली बणी 82 कनाल, दस मरला है।
  सभी बणियां चारों ओर से पेड़ काटकर संकीर्ण बना डाली हैं वहीं अवैध निर्माण कर





के बिजली पानी कनेक्षन भी ले रखे हैं। जंगली जीव लुप्त हो गए हैं वहीं जंगलों के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आर पार देखा जा सकता है। इनकी पैमाइश करवाकर पौधारोपण करवाने की मांग बढऩे लगी है।

Monday, April 18, 2022

                                  शामक
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एचिलोना कोलोना
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बर्नयार्ड मिलेट
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समा के चावल
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व्रत के चावल
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जंगली चावल

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सामा राइस
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मोरधन
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समा के चावल, व्रत वाले चावल, सामा राइस बनयार्ड मिलेर्ट, शमा के चावल जिन्हें अक्सर लोग शामक नाम से जानते हैं। इनका वैज्ञानिक नाम एचिलोना कोलोना है। एक घास से प्राप्त होने वाले बीज होते हैं जो व्रत के समय प्रयोग किए जाते हैं। ये देखने में बहुत छोटे, गोल आकार के होते हैं जो अक्सर कई नामों से जाने जाते हैं। अंग्रेजी भाषा में बर्नयार्ड मिलेट कहते हैं हिंदी में अक्षर मोरधन या समा के चावल का जाता है सामा चावल ,श्याम चावल आदि नामों से भी पुकारते हैं। सामा के चावल जंगली चावल भी कहा जाता है क्योंकि एक प्रकार जंगली घास से प्राप्त होते हैं इसलिए लोग इनको जंगली घास के चावल भी कहते हैं। वास्तव में हरियाणा मिलने वाले मकड़ा घास के बीज से बिल्कुल मिलते जुलते हैं। व्रत के समय यह चावल उपयोग में लाए जाते हैं जो आयुर्वेद की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं। वेद शास्त्रों में भी इनका उल्लेख मिलता है।
 जो लोग वजन घटाना चाहते हैं उनके लिए अच्छा माने जाते हैं। इन में शूगर/चीनी की मात्रा कम होती है ऐसे में शुगर पेशेंट/मधुमेह के रोगी भी प्रयोग कर सकते हैं। व्रत के समय व्यक्ति में स्फूर्ति/ ताकत ऊर्जा प्रदान करते है तथा प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं।  पाचन तंत्र को मजबूत बनाते हैं और फाइबर युक्त होते हैं इसलिए जिनमें कब्ज/बदहजमी की शिकायत हो उनके लिए बेहतर माने जाते हैं। इन्हें विभिन्न तरीकों से लोग प्रयोग करते हैं। विशेषकर व्रत के समय खिचड़ी, पूड़ी, कचोरी, पुलाव डोसा आदि अनेक पदार्थ बना सकते हैं।
समा के चावल सेहत के लिए लाभप्रद माने जाते क्योंकि इनमें ऊर्जा कम होती है, रुक्षांस  अधिक पाए जाते हैं जिन्हें आसानी से बचा सकते हैं। ग्लूटेन फ्री होते हैं तथा आयरन की मात्रा शरीर में प्रदान करते हैं।

इनका वैज्ञानिक नाम एचिलोना कोलोना है। अक्सर जब भुखमरी हो जाती है, अकाल पड़ जाता है अन्न का अभाव होता है तब ये प्रयोग किए जाते हैं। भारत में राजस्थान में पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। ये उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाए जाते हैं। पौधा अकसर दो से 8 फुट तक ऊंचाई का होता है तथा सीधा खड़ा मिलता है। तेजी से फैलने वाली एक घास होती है। जो अपने आप उग जाती है परंतु कुछ क्षेत्रों में इसकी खेती भी की जाने लगी है।
व्रत के समय अकसर सिंघाड़ा का आटा, कुट्टू का




आटा,साबुदाना एवं श्यामक आदि प्रयोग में लाए जाते हैं।
     डा. होशियार सिंह यादव,कनीना, हरियाणा

Friday, April 15, 2022

              स्वाद का खजाना है सूखे फल एवं सब्जियां
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इंसान की चाहत फल सब्जियों को लंबे समय तक खाने की होती रही है। पुराने वक्त मेें जब फल एवं सब्जियां जो अधिक मात्रा में पैदा होती थी उनको सूखाकर रख लेता था। यही कारण है कि उनका उपयोग लंबे समय तक करता था। आज भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में यह परंपरा देखने को मिलती है। इंसान के लिए गैर मौसम में भी फल सब्जियां खाने को मिल सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां सबसे पुरानी विधि सूखाने की रही है।  मई जून-जुलाई में भीषण गर्मी पड़ती है, इस गर्मी में किसी भी फल सब्जी को सूखाना आसान हो जाता है। वैसे तो छुहारा, किशमिश, हल्दी, सोंठ आदि कितने ही पदार्थ सूखाकर प्रयोग किए जाते हैं।
 एक समय था जब ग्रामीण क्षेत्रों में भारी मात्रा में बेर लगते थे जितने खा लेता था बाकी को सूखा लिया जाता था, उसे मेवा के रूप में प्रयोग करते थे और लोग ग्रामीण क्षेत्रों में सूखे बेर ही बेहतर मेवा माना जाता था और मेवा नाम से जानते थे। यद्यपि बेर का छुहारा, बाजार में मिलने वाले छुहारे से अलग होता है परंतु स्वाद कुछ हद क एक जैसा होता है। यही कारण है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में बेर को सूखाकर रखा जाता है और थोड़ी देर  पानी में डालकर प्रयोग किया जाता है।
बेर सूखाने की विधि उस समय ज्यादा कारगर थी जब जंगल में भारी संख्या में बेरी के पौधे होते थे। बागोंवाले तथा गोल वाले बेर जिन्हें पचेरी बेर कहते हैं, को सुखाकर छुहारा बनाते थे जिनको बड़े चाव से खाते थे। ग्रामीण लोगों के लिए विशेेषकर बच्चों के लिए ये सूखे बेर ही मेवे का काम करते थे। बेशक आज के जमाने में बादाम ,अखरोट, किशमिश न जाने कितने ही मेवे बाजार में आ गए हैं लेकिन प्राचीन समय के मेेवे सूखे बेेर होतेे थे। ग्रामीण क्षेत्रों में छाछ को भी सूखाकर उसे पानी में डालकर
ताजा छाछ तैयार कर लेते हैं, वह बात अलग है किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में झींझ जरूर खाई जाती थी। अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में जांटी का पेड़ होता है और इस पर लगने वाले फल को सांगर नाम से जाना जाता है। सांगर सब्जी कई स्थान  दामों पर बेचा जाता है किंतु जब सांगर का रंग पीला हो जाता है तो इसमें मिठास बढ़ जाता है। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कभी सांगर को सूखाकर रखा जाता था तथा विभिन्न प्रकार के शाक सब्जियां बनाने में प्रयोग कर ली जाती थी और जब सांगर पक जाता था तो उसे झींझ नाम सेे जाना जाता था। उसे पोटली में बांधकर पेड़ पर बांध देते थे ताकि बारिश में बहुत स्वादिष्ट बन बन जाए। लोग इन्हें लंबे समय तक खाते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में झींझ एक उत्तम मेवा माना जाता था। बेशक आजकल की युवा पीढ़ी सांगर का प्रयोग करते वक्त हिचकिचाते हैं। किसी जमाने में सांगर से दर्जनों प्रकार की सब्जियां आदि बनाते थे किंतु आजकल की युवा पीढ़ी सांगर को नहीं खाती तथा रोगों का कारण मानती है किंतु वह जमाना था जब सागर को दूरदराज से ढूंढ कर लाते थे। आज भी बुजुर्ग सागर को उनका नाम लेते ही उत्साहित हो जाते है।  
सांगर किसी जमाने में बहुत प्रसिद्ध सब्जी होती थी, विटामिन और खनिज लवण पाए जाते हैं, जब यह सूख जाता है तो इसका स्वाद मीठा होने के कारण बच्चे चाव से खाते हैं।
यह भी सत्य है कि कुछ बच्चे तो विलायती कीकर के फलों को भी बड़े चाव से खाते हैं किंतु उनकी बजाय झींझ बेहद पौष्टिक होता है।  किसान आज भी उन दिनों की याद करते हैं जब खेतों में जाते और किसी जांटी के नीचे बिखरी हुई झींझ इकट्ठी कर लेते थे। पूरा परिवार बड़े चाव से खाता










था। जो कुछ बाकी बची हुई को पोटली में बांधकर पेड़ से टांग दिया जाता था ताकि किसी भी वक्त उनको खाया जा सके लेकिन मानसून की बारिश के बाद इनका स्वाद अलग हो जाता था तथा यह न तो कठोर थी अपितु यह लचीली हो जाती और मन को लुभाती थी। वर्तमान में झींझ, बेर के छुहारे सब धीरे-धीरे लुप्त हो गए हैं और लोग को याद करके आज भी रो पड़ते हैं।

Thursday, April 7, 2022

 
                             कमल
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राष्ट्रीय पुष्प भारत
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 नेलुंबो न्यूसिफेरा
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संसार में अनेकों प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती है जिनमें सुंदर फूलों में से एक कमल का फूल है जो भारत देश का राष्ट्रीय फूल कहलाता है। यहां अनेक नामों से जाना जाता है। इसे जहां सरोज,जलज और पंकज,नीरज आदि कई नाम होते हैं। अंग्रेजी भाषा में लोटस नाम से जाना जाता है। कमल एकमात्र ऐसा पौधा होता है जो सदा पानी में खड़ा रहता है। इस पर अनेकों रंगों के फूल आते हैं, कहीं गुलाबी तो कभी सफेद। पत्ते लगभग गोल, छातानुमा जैसे होते हैं। फूलों के लंबा डंठल लगा होता है।
 कमल के तने लंबे, सीधे और खोखले होते हैं। पानी में कमल फैल जाता है, तने की गांठों से अनेकों जुड़े निकलती है जो पानी में ही रहती है। तालाब, जोहोड़,कीचड़ में भी देखा जा सकता है। कमल का आकार भी अलग अलग होता है ।  कमल के फूल में
पंखुडिय़ा गिरकर बीज बन जाते हैं। सूखने पर काले बीज हो जाते जिसे कमलगट्टा कहते हैं। इनको लोग सब्जियों में काम में लेते हैं। कमल की जड़ मोटी और अंदर से खोखली होती हैं। कुछ लोग कमल को खाने में प्रयोग करते वही आचार में भी इनका प्रयोग किया जाता है, जिसे कमल ककड़ी नाम से जाना जाता है। कमल की दो प्रजातियां प्रमुख रूप से पाई जाती है। कमल बहने वाले पानी या रुके हुए पानी में ही होता है ऐसे ही आती रहती है। कमल सुंदर फूलों के लिए जाने जाते हैं। यह फूल विभिन्न देवी-देवताओं के आसन्न के रूप में भी दिखाये जाते हैं। कमल और कुमुदिनी दोनों एक जैसे दिखने वाले पौधे हैं किंतु इन दोनों में अंतर होता है।
 कमल विभिन्न दवाओं में काम में लाया जाता है। फूलों को विशेष शृंगार एवं औषधियों में उपयोग में लेते हैं। सब्जियां भी कमल से  बनाते हैं। वही कमल के फूल के फूल माने जाते हैं।  विभिन्न पुराणों में भी कमल का वर्णन आता है। कमल के पत्तों से पंखे बनते हैं वही तने भोजन के काम आते हैं। कमल पर आधारित दिल्ली का बहाई मंदिर भी बनाया हुआ है। उद्यानों में देखा जाए तो विभिन्न प्रकार के कमल पाए जाते हैं। लोग घरों में भी आजकल पानी भर कर कमल को उगाने लग गए हैं। कमल अपने विशेष गुणों के लिए जाना जाता है।
 जहां कमल के फूल में जहां तनाव दूर करने का गुण मिलता है वही एंटी ऑक्सीडेंट भी पाया जाता है। एंटी इन्फ्लेमेटरी में काम में लेते हैं वहीं कमल के फूल से तैयार तेल बालों में लगाया जाता है। कमल के फूल से हर्बल टी बनाई जाती है जो शरीर  के लिए लाभप्रद है।कम




ल का तना फूल जड़ सभी काम में लेते हैं।
    -लेखक, डा होशियार सिंह यादव
फोटो एवं लेख सभी लेखक के अपने हैं।


Wednesday, April 6, 2022

 साबूदाना तथा कुट्टू
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साबूदाना, सागो, शाक्सस, राबिया
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साइक्स रिवॉल्युटा
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अक्सर जब जब व्रत आते हैं तो लोग कुट्टू और साबूदाना जमकर प्रयोग करते हैं। साबूदाना एक पौधे के तने से प्राप्त किया जाता है जिसे साबूदाना, सागो, शाक्सस, राबिया, सागो पाम आदि नामों से जाना जाता है क्योंकि इसमें बहुत अधिक मात्रा में स्टार्च मिलता है जो उष्णकटिबंधीय पाम के पेड़ों से निकाला जाता है।
व्रत के समय इसे दलिया, खिचड़ी, रोल, फ्राई, खीर, चिप्स तथा अन्य रूपों  में प्रयोग किया जाता है। वास्तव में साबूदाना हम बाजार में मोती जैसे रूप में मिलता है।
साबूदाना निकालने की हर बार आम के सागो पाम के पेड़ को काट दिया जाता है और तने को काटकर कुचल दिया जाता है। साबूदाना को तने से निकालने के अनेक तरीके है। पेड़ के तने से गुदा निकाल कर पानी में मिलाकर हाथों से गूंधा जाता है तत्पश्चात फिल्टर से गुजारा जाता है। इस फिल्टर किये पानी पेड़ के तने में एकत्रित किया जाता है खुला छोड़ दिया जाता है तत्पश्चात बचता है साबूदाने का चिपचिपा रेशेदार रूप जिसे ठोस अवस्था में बदला जाता है। बाकी जितनी शुद्धता से साबूदाना बनना चाहिए उतना ध्यान नहीं दिया जाता है। इसलिए अनेकों प्रकार की चेंर्चाएं साबूदाना के विषय में प्रचलित है। क्योंकि यह पेड़ के तने से निकाला जाता है इसलिए व्रत में प्रयोग किया जाता है।
साबूदाना शरीर में पाचन शक्ति बढ़ाता है, हड्डी जोड़ों को मजबूत करता है। प्रोटीन की पूर्ति करता है, शरीर में फाइबर प्रदान करता है, रक्तचाप घटाता है तथा खून में रक्त की मात्रा निश्चित रखता है। भार को भी घटाने के लिए साबूदाना प्रयोग किया जाता है।
साबूदाना एक प्रकार के विशेष पाम द्वारा प्राप्त होता है इसे कई नामों से जाना जाता है इसका वैज्ञानिक नाम साइक्स रिवॉल्युटा है।यद्यपि इस पौधे के तने में जहरीला पदार्थ भी मिलता है किंतु बड़ी सावधानी से और बार-बार सफाई करके जहरीले पदार्थ निकाल दिए जाते हैं। जहरीले पदार्थ को साइकेसिन टोक्सिन नाम से जाना जाता है। इसे बार-बार धोकर ही दूर किया जा सकता है।
     कुट्टू
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बकव्हीट
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फेगोपाइरम एस्कुलेंटम

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नकली अनाज
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कुट्टू जो बहुत प्रसिद्ध आटा व्रत में प्रयोग किया जाता है जिसे विभिन्न रूपों में व्रत के समय प्रयोग किया जाता है किंतु पुराना होने के कारण जहरीला बन सकता है जिसे प्रयोग नहीं करना चाहिए।  वास्तव में कुट्टू एक प्रकार का पौधा है जो शाक रूप में पाया जाता है जिसे बकव्हीट कहते हैं इसका वैज्ञानिक नाम है फेगोपाइरम एस्कुलेंटम है, एक पौधा होता है इसके तिकोने बीज प्राप्त होते हैं।
वास्तव में कुट्टू एक कवर क्राप अर्थात जो भूमि को ढकने के काम आता है ताकि किसी प्रकार का मिट्टी कटाव या पोषक तत्व मिट्टी के न बह सके। इसलिए खेतों में उगाया जाता है किंतु यह फसल के रूप में नहीं उगाया जाता। कुछ लोग इसे गेहूं की तुलना देते हैं परंतु यह गेहूं से कोई संबंध नहीं रखता और ना ही गेहूं की तरह यह घास कुल का पौधा होता अर्थात यह घास कुल का पौधा नहीं होता। इसे नकली अनाज नाम से जाना जाता है जिसमें कार्बोहाइड्रेट मिलता है। यह सत्य है कि कुट्टू एक आटे की तरह प्रयोग किया जाता है।  परंतु यह अन्न नहीं माना जाता। यूनान और चीन आदि देशों में बहुत अधिक मात्रा में प्राचीन समय से मिलता था। यह थोड़े समय के लिए ही पैदा होता है जिसके गुच्छे के रूप में फूल आते हैं और इसकी मूसला जड़ पाई जाती है, इसके फूलों का रंग अक्सर सफेद, नीला, पीला आदि मिलता है।
रूस आज के दिन सबसे अधिक मात्रा में कुट्टू पैदा करता है।  वास्तव में कुट्टू में कार्बोहाइड्रेट वसा, प्रोटीन, कई विटामिन साथ में कैल्शियम, तांबा, लोहा, मैग्नीशियम, मैंगनीज, फास्फोरस, पोटैशियम, सेलेनियम, सोडियम, जिंक आदि मिलता है तथा इसमें विटामिन बी-1, बी-2,बी-3,बी-5,बी-9 और विटामिन-सी पाई जाती है।  सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें ग्लूटन अर्थात चेप नहीं पाया जाता है अर्थात इसके आटे को यदि गूथना चाहे तो गूंधने में बहुत परेशानी आती है । इसके आटे में यद्यपि सामान्य रूप से प्रयोग किया जाए और ताजा रूप में प्रयोग किया जाए तो नुकसान नहीं करता वरना अधिक मात्रा में और इसमें पुराने आटे को प्रयोग करने से शरीर को नुकसान दे सकता है। लोग व्रत के समय इसे अनेक रूपों में प्रयोग करते हैं। लोग इसकी चाय, व्हिस्की, बियर ,पराठे, रोटी, पकोड़ा तथा विभिन्न रूपों में प्रयोग करते हैं। मगर व्रतों में सावधानी से कुट्टू प्रयोग करना चाहिए वरना जान को भी जोखिम हो सकता है। कुट्टू के आटे से हर वर्ष अनेकों लोग बीमार पडऩे और यहां तक की कुछ घटनाएं मौत







की भी सामने आती है। ऐसे में कुट्टू आटे को ताजा और सावधानीपूर्वक ही प्रयोग करें वरना कुट्टू से बचकर साबूदाना प्रयोग कर सकते हैं।
        लेखक-डा होशियार सिंह यादव
  फोटो साभार-विभिन्न स्रोत