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Sunday, February 9, 2020

झोझरू
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शरपुंखा/शरफोंक
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मासा/जंगली नील/मच्छली का जहर
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टेफ्रोशिया परपुरिया
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झोझरू  का पौधा झाड़ीनुमा होता है जो एक र्वाीय होता है। हर वर्ष उत्पन्न होता है। इसे शरपुंखा नाम से जाना जाता है। हरेभरे जटिल पत्ते होते हैं। एक ही पत्ते के डंठल पर कई छोटे पत्रक रहते हैं। फूल लाल/बैंगनी रंग के डंठल पर लगते हैं। फूलों से फली बनती है जो सूख जाने पर तीन चार बीजोंयुक्त बन जाती है। पौधा सूख जाने पर बीज धरा पर गिर जाते हैं जो पुन: उग जाते हैं।
झोझरू को जहां अंग्रेजी में टेफ्रोशिया नाम से जाना जाता है वहीं इसे शरपुंखा, सरफोंका,  शरपंखी,शरपुंखा/शरफोंक,मासा/जंगली नील/मच्छली का जहर कहते हैं वहीं इसका वानस्पतिक नाम टेफ्रोशिया परपुरिया है।

  इस पौधे की लाल तथा सफेद रंग के फूलों वाली दो प्रजातियां होती हैं। यह समस्त भारत में अधिकतर पथरीली भूमि में उत्पन्न होता है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी पाया जाता है।
इसमें क्लोरोफिल, राल, मोम, गोंद, कुछ एल्ब्यूमिन, राख आदि पाए होते हैं।
  झोझरू स्वाद में कड़वा, कसैला, तीक्ष्ण और गर्म होता है। इसका मुख्य प्रभाव पाचन-संस्थान पर यकृत, प्लीहा के रोग दूर करने के रूप में जाना जाता है। यह चर्मरोग, कीटाणुनाशी, घाव भरने वाला, रक्तशोधक, कफ निवारक, मूत्र जनक, बुखार मिटानेवाला, पेट की जलन नाशी तथा विष हरने वाला होता है।
शरपुंखा का मूल उदरशूल दूर करने,
झोझरू की जड़ को छाछ









के साथ पीसकर लेने से बढ़ी हुई तिल्ली ठीक करने, जड़ की दातुन करने पर दांतों का कोई रोग नहीं होता। किसी शस्त्र से कट जाने पर झेाझरू का मूल बहते रक्त को बन्द करने, चूहे के जहर को बीजों से दूर किया जाता है। इसके बीजों का लेप करने से चेहरे के दाग समाप्त हो जाते हैं।
  झोझरू की पत्तियों के रस से खून साफ होता है और त्वचा की विभिन्न समस्याएं दूर हो जाती हैं।
झोझरू की जड़ को पीसकर करने से स्तन की गांठ ठीक होती है वहीं इसका रस से दांत धोने पर दांतों का पायरिया और दर्द भी दूर हो जाते हैं। कभी कभी झोझरू के प्रयोग करने से उल्टी, जी मचलाना, दस्त की समस्या झेलनी पड़ सकती है।
झोझरू जिसे टेफ्रोसिया नाम से जाना जाता है। इसे शरपुंखा नाम से भी जाना जाता है। सरपोंख भी कहते हैं जिसके अनेकों नाम है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह झोझरू नाम से जाना जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां बंजर भूमि पड़ी होती है उसमें भारी मात्रा में स्वयं उग जाते हैं। यह खरपतवार के रूप में जाना जाता है जिसकी दो प्रकार है। एक के जहां लाल फूल आते हैं वही एक के सफेद फूल आते हैं। हरियाणा प्रदेश में लाल/बैंगनी फूलों से लदी झाड़ी मिलती है जिसका ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत उपयोग किया जाता है।
झोझरू पौधे को उखाड़ पाना बहुत कठिन होता है। क्योंकि यह कठोर भूमि में पाया जाता है और गहराई तक जड़े मिट्टी को जकड़े रखती है। वास्तव में इसके पौधे के पत्तों को तोड़ते समय ऐसा लगता है जैसे बाण/तीर का आगे का भाग टूट गया हो इसलिए शरपुंखा कहते हैं। यह अति औषधि पौधा है जो हरा भरा मिलता है। गर्मियों में बहुत अधिक मात्रा में हरा भरा होता है। यह द्विबीजपत्री पौधा है जो दलहन जाति से संबंध रखता है। मटर/चने/सेम जैसे फूल आते हैं इसलिए इसे मटर चना आदि कुल में शामिल किया गया है। झोझरू धात रोग, खांसी,सांस की तकलीफ में काम आता है वही पेट की जलन ,अफारा आदि में काम आता है। यदि दस्त लग जाए या पेट में कीड़े हो तो उस समय भी इसका उपयोग किया जाता है।
  यदि प्लीहा बढ़ जाने की समस्या हो तो इससे दूर किया जाता है। मूत्र रोग, कुष्ठ रोग फोड़े फुंसी, अपची आदि में काम में लाया जाता है वही खून से संबंधित बीमारी तथा चूहे आदि के जहर को हटाने के भी काम आता है। बाजार में इसका चूर्ण भी मिलता है।
 झोझरू मछली पकडऩे के लिए मछली के जहर के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसकी पत्तियों और बीजों में टेफ्रोसिन होता है, जो मछली को अपंग बनाता है। बड़ी खुराकें मछली के लिए घातक हैं, लेकिन स्तनधारी और उभयचर पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
झोझरू का उपयोग पारंपरिक रूप से लोक चिकित्सा के रूप में भी किया जाता है। आयुर्वेद के अनुसार, यह पौधा कृमिनाशक, विषनाशी और बुखार दूर करने के काम आता है। इसका उपयोग कुष्ठ रोग, अल्सर, अस्थमा और कैंसर के उपचार के साथ-साथ यकृत, प्लीहा, खून के विकार, हृदय के रोगों में किया जाता है। इसकी जड़ों का काढ़ा अपची, दस्त, गठिया, अस्थमा और मूत्र विकारों में दिया जाता है। दांतों को ब्रश करने के लिए
रूट पाउडर नमकीन होता है, जहां यह कहा जाता है कि यह दांतों के दर्द को जल्दी से दूर करता है और रक्तस्राव को रोकता है।  यह ऊंट तथा बकरियों जैसे जानवरों को चारा उपलब्ध कराने तथा खेतों में एक अच्छी हरी खाद भी बनाता है। इसकी जड़ कृमि बाहर निकालती है वहीं जड़ पोषक का काम करती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में यह पौधा बहुत महत्वपूर्ण है। जहां इस पौधे को काटकर पतवार के काम में करते हैं। इसी पर गोबर के उपले थापे जात हैं वहीं इस पौधे को ऊंट उवं बकरी बड़े चाव से खाती है। इस पौधे की दातुन ग्रामीण क्षेत्रों में मशहूर है जिस भी किसी के दांत में विभिन्न प्रकार के रोग किस की जड़ की दातुन बेहद लाभप्रद है। खेत का अन-उपजाऊ होने भी इसका प्रयोग किया जाता है। वैसे भी इस पौधे पर भारी मात्रा में हरे रंग की फलियां आती हैं जो पक जाने पर पीली पड़ जाती है। इसलिए फलीदार पौधा है इसकी जड़ों में सूक्ष्म जीव निवास करते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। इसलिए यह पौधा उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए भी काम में लाया जाता है। जिस जमीन पर पौधा उगता है वहां अपने आप ही नाइट्रोजन की आपूर्ति हो जाती है। नाइट्रोजन की आपूर्ति विभिन्न प्रकार के रासायनिक खादों से प्राप्त होती है वह यह पौधा उत्पन्न कर देता है। देखने में इसके फूल बिल्कुल और चने जैसे लगते हैं। यद्यपि मटर में फूलों का रंग सफेद होता है और चने में रंग इससे बिल्कुल मिलता-जुलता होता है। इसी प्रकार का फूल खरसनी पौधे में भी पाए जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं के इलाज में भी इस पौधे का उपयोग किया जाता है। पशु के पेट के रोग के लिए इस की फली इसके बीज का खिलाए जाते हैं। वहीं उत्तम चारे के रूप में भी यह पौधा काम में लाया जाता है। यह बेहतरीन हरा चारा है। ऊंट इसे खाकर अपनी ताकत पा सकता है। कुछ विशेष प्रकार के सेंट आदि बनाने में काम में लेते हैं वहीं अफ्रीका में जंगलों में पशुओं को जहरीले कीटों के काटने पर झोझरू से पेय बनाकर पशुओं को बचाया जाता है।
**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**

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