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Saturday, October 4, 2025


 


गायों की नस्लें सुधारना है मुख्य उद्देश्य-भगत सिंह प्रधान
--प्रतिदिन दो लाख रुपये खर्च आ रहे हैं गौशाला पर
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कनीना की आवाज।
 कनीना की श्रीकृष्ण गौशाला में जब से भगत सिंह प्रधान ने कार्यभार संभाला है तब से जहां गायों को गोद लेने का सिलसिला बढ़ा है। वही गायों के लिए दान पुण्य भी बढ़ता ही जा रहा है।
 भगत सिंह प्रधान ने बताया कि उनका उद्देश्य श्री कृष्ण गौशाला में गायों की नस्लें सुधारना है। इसके लिए व्यापक प्रबंध कर रहे हैं ताकि अच्छी नस्ल के सांडों से संकरण करवा कर उन्नत नस्ल की गाये तैयार हो सके। जिससे कोई भी व्यक्ति इन गायों को अपना सके और घरों में पाल सके। उन्होंने बताया कि समय 1400 गाये हैं जिन पर 40 कर्मचारी उनकी सेवा में लगे हुए हैं जो डॉक्टर भी उनकी सेवा कर रहे हैं। वह गायों के लिए अलग-अलग बाड़े बनवा रहे हैं ताकि गाये अच्छी प्रकार पल सके। उनके बाहर घूमने का भी प्रबंध किया जा रहा है। उन्होंने बताया प्रतिदिन दो लाख रुपये गौशाला पर आ रहा है।
 उन्होंने बताया इस समय गौशाला में गिर एवं हरियाणवीं नस्ल की गायें हैं। 10000 मण कड़बी इकट्ठी की जा चुकी है। 13 ट्रैक्टर बाहर से लगाए गये। प्रत्येक ट्रैक्टर का किराया 900 रुपये प्रति ट्रैक्टर हिसाब से दिया गया जबकि तीन ट्रैक्टर गौशाला के रहे। इस प्रकार 7 लाख रुपये खर्च करके कड़बी का व्यापक प्रबंध किया है। अब उनकी गौशाला अच्छे ढंग से चल पाएगी। उन्होंने लोगों का आह्वान किया की गौशाला में आए और गायों की सेवा धर्म भी निभाये।
तीन गोग्रास गाडिय़ां लगाई है-
 भगत सिंह प्रधान ने बताया कि तीन गोग्रास गाडिय़ां लगी हुई है जो कनीना के अतिरिक्त गाहड़ा, कोटिया भडफ़ व करीरा आदि गांव से गोग्रास लाती है। भगत सिंह ने बताया कि लोग गाड़ी में गली सड़ी सब्जी एवं पालीथिन डाल देते हैं जिससे गाये बीमार हो रही और मरने का खतरा बन जाता है। ऐसे में उन्होंने लोगों से अपील की की गो ग्रास गाडिय़ों में किसी प्रकार की गली सड़ी सब्जी न डाले तथा पालीथिन डालने से बचे।
7 गाये ली गोद,दिया दान -
 कनीना की श्रीकृष्ण गौशाला में सात गाये अलग अलग लोगों ने गोद ली तथा दन दिया। इनमें जीविका गर्ग नानौल ने एक, हरिकिशन बंसल ने तीन, निशा शर्मा फरीदाबाद ने एक, कीर्ति मुदगिल ने एक, राज श्री शर्मा ने एक गाय गोद ली। उन्होंने गौशाला कुल 36 हजार रुपये दान दिया।  इस मौके पर अमित गर्ग, सतीश चंद्र शर्मा सहित भगत सिंह श्रीकृष्ण गौशाला प्रधान ने उनका अभिनंदन किया तथा इस कार्य की सराहना की।
  इस मौके पर रामपाल यादव, दिलावर सिंह यादव, बलवान सिंह आर्य, कृष्ण प्रकाश गुरुजी, मास्टर रामप्रताप, प्रवीन कुमार मुनीम आदि उपस्थित रहे।
 फोटो कैप्शन 09: भगत सिंह प्रधान एवं गौसेवक गायों की सेवा करते हुए





हैफेड के एमडी मुकुल कुमार ने कनीना मंडी का दौरा कर खरीद कार्यों का लिया जायजा
--किसानों की सुनी समस्याएं
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कनीना की आवाज।
हरियाणा स्टेट को-ऑपरेटिव सप्लाई एंड मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड (हैफेड) के प्रबंध निदेशक (एमडी) मुकुल कुमार ने आज कनीना मंडी का औचक दौरा कर खरीफ फसल के चल रहे खरीद कार्यों का बारीकी से निरीक्षण किया।
उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिए कि किसानों को किसी प्रकार की असुविधा न हो और सरकारी दिशानिर्देशों का पूर्णत: पालन हो।
इस अवसर पर हैफेड के जिला प्रबंधक (डीएम), प्रवीण भारद्वाज सहित अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी मौजूद थे।
एमडी श्री कुमार ने मंडी में खरीद प्रक्रिया का विस्तृत जायजा लिया।
उन्होंने उपस्थित किसानों और आढ़तियों से व्यक्तिगत रूप से बातचीत की और उनकी समस्याओं और सुझावों को सुना। उन्होंने किसानों को आश्वस्त किया कि खरीद प्रक्रिया में पारदर्शिता और गति बनाए रखी जाएगी।
उन्होंने अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दिए कि किसानों के लिए मंडी में पीने के पानी, बैठने की व्यवस्था और शौचालय सहित सभी प्रकार की मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित की जाएं।
श्री मुकुल कुमार ने कहा कि हरियाणा सरकार के निर्देशानुसार खरीफ फसल की खरीद प्रक्रिया सुचारू और व्यवस्थित तरीके से चलनी चाहिए। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि वे खरीद, उठान और भुगतान के कार्यों में तेजी और सटीकता बनाए रखें, ताकि किसानों को अपनी उपज बेचने में कोई विलंब न हो और उनका भुगतान समय पर हो सके। उन्होंने यह भी सुनिश्चित करने को कहा कि फसल खरीद के दौरान गुणवत्ता मानकों से कोई समझौता न किया जाए।
फोटो कैप्शन 10: कनीना अनाज मंडी में एमडी मुकुल कुमार किसानों से मिलते हुए



7 गाये ली गोद,दिया दान
-अब तक 200 से अधिक गाये ली जा चुकी हैं गोद
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कनीना की आवाज।
कनीना की श्रीकृष्ण गौशाला में सात गाये अलग अलग लोगों ने गोद ली तथा दन दिया। इनमें जीविका गर्ग नानौल ने एक, हरिकिशन बंसल ने तीन, निशा शर्मा फरीदाबाद ने एक, कीर्ति मुदगिल ने एक, राज श्री शर्मा ने एक गाय गोद ली। उन्होंने गौशाला कुल 36 हजार रुपये दान दिया।  इस मौके पर अमित गर्ग, सतीश चंद्र शर्मा सहित भगत सिंह श्रीकृष्ण गौशाला प्रधान ने उनका अभिनंदन किया तथा इस कार्य की सराहना की।
  इस मौके पर रामपाल यादव, दिलावर सिंह यादव, बलवान सिंह आर्य, कृष्ण प्रकाश गुरुजी, मास्टर रामप्रताप, प्रवीन कुमार मुनीम आदि उपस्थित रहे।
 फोटो कैप्शन: भगत सिंह प्रधान






दीये बनाने में व्यस्त है प्रजापति समाज के लोग
-दीपावली पर बिकते विभिन्न प्रकार के मिट्टी के दीपक
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कनीना की आवाज।
दीपावली पर खुशियों को व्यक्त करने के लिए परम्परागत रूप से जलाए जाने वाले दीयों को बनाने में प्रजापति जाति के लोग व्यस्त हैं। ये दीये बनाकर अपनी रोटी रोजी कमाने के लिए दीपावली पर बेचते हैं।
     दीपावली के आगमन से करीब एक माह पूर्व ही प्रजापति जाति के लोग मिट्टी लाकर चाक पर दीपक बनाते हैं। तत्पश्चात उन्हें पकाकर घर-घर उपलब्ध कराते हैं। एक वक्त था जब दीपावली के शुभ दिन पर घी के दीये जलाते थे किंतु अब दीयों के प्रति रुझान भी बदल गया है। श्रीराम के 14 वर्षों का वनवास पूरा करके, रावण पर विजय पाकर जब सीता सहित राम, लक्ष्मण व हनुमान अयोध्या लौटे थे तो लोगों ने खुशी के मारे घरों में घी के दीये जलाए थे और तत्पश्चात प्रति वर्ष उसी याद को दिलों में संजोकर प्रतिवर्ष घी के दीये जलाते आ रहे हैं। परंतु अब तो लोग तेल के दीये भी नहीं जलाते अपितु मोमबत्ती जलाकर ही खुशी व्यक्त करते हैं। प्रजापति जाति के लोगों ने बताया कि एक वक्त था जब दीपावली के दिन इतने दीये बिकते थे कि उनके परिवार का गुजर बसर आसानी से हो जाता था। लेकिन अब तो रोटी रोजी के भी लाले पड़ गए हैं।  अब तो दीये बनाकर पकाने का काम भी धीमा पड़ गया है। अनेक प्रजापति समाज के लोगों ने तो अपना यह व्यवसाय ही बदल लिया है या फिर दीये खरीदकर लाते हैं और उन्हें घरों में बेचते हैं।
   गृहणियों आशा, शकुंतला, नीलम ने बताया कि दीयों को देशी घी से जला पाना कठिन हो गया है क्योंकि देशी घी का भाव भी 1200 रुपये किलो तक पहुंच गया है वहीं रुई की बाती बनानी पड़ती हैं और दीपकों को पानी में भीगोकर रखना पड़ता है ताकि वे घी कम चूसे। बाद में तेल के दीये जलाने की प्रथा चली क्योंकि तेल का भाव भी 200 रुपये किलो से कम नहीं होता है। ऐसे में तेल के दीये जलाना भी आसान काम नहीं है।  अब तो दीपावली के दिन मोमबत्तियां ही जलाई जा रही है।
  मोमबत्तियां ने चौपट कर दिया दीये बनाने वालों का रोजगार-
 दीपावली पर खुशियों को व्यक्त करने के लिए परम्परागत रूप से जलाए जाने वाले दीयों का स्थान मोमबत्तियों ने ले लिया है। प्रजापति समाज  के लोगों द्वारा दीये बनाकर अपनी रोटी रोजी कमाने वालों का तो मानो धंधा ही चौपट हो गया है।
कनीना में दीये बनाने वाले आधा दर्जन लोग--
 अब तो कनीना में महज आधा दर्जन लोग ही दीये बनाने का काम कर रहा है। घड़े बनाने का काम भी इतने ही लोग कर रहे हैं। अमित कुमार ,उमेश कुमार, मनोहर लाल प्रजापति ने बताया कि मिट्टी के लिए उन्हें दूसरे गांवों में जाना पड़ता है वहां से मिट्टी बहुत मंहगी मिलती है। उस पर ईंधन के रेट भी बहुत ऊंचे हो गए और बनाने के लिए खुला स्थान चाहिए और पकाने के लिए भी खुली जगह चाहिए जो कि उनके पास नहीं है। जिससे बड़ी परेशानी होती है। वे इस रोजगार को छोडऩे के लिए मजबूर हो रहे हैं परंतु क्या करें ?
उन्होंने दर्द झलकाते हुए बताया कि साथ ही जब वे भट्ठी पकाते हैं तो उससे निकलने वाले धुएं से पड़ोसी बहुत परेशान होते हैं जो की बार-बार शिकायत करते हैं। परंतु वे मजबूर हैं इसलिए सरकार से मांग है कि उन्हें बर्तन बनाने के लिए उचित जगह दी जाए और मिट्टी की व्यवस्था की जाए ताकि वे अपना जीवन गुजर बसर कर सकें।
फोटो कैप्शन 07 व 08: कनीना में मिट्टी के दीपक बनाते हुए प्रजापति समाज के लोग।






किसानों ने एमडी हैफेड के समक्ष रखी अपनी मांगे
-सरकार को प्रेषित करने का दिया आश्वासन
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कनीना की आवाज।
 कनीना की नई अनाज मंडी स्थित चेलावास में जहां बाजरे की खरीद 23 सितंबर से शुरू हो चुकी है किंतु एक दाना भी सरकारी तौर पर नहीं खरीदा गया है। अब तक करीब 20,000 क्विंटल बाजरा अनाज मंडी में आया है। जिसमें से निजी तौर पर 10000 क्विंटल बाजरा खरीदा जा चुका है तथा 10000 क्विंटल के करीब फड़ों पर पड़ा हुआ है। आज तक 769 गेट पास काटे जा चुके हैं लेकिन अभी तक सरकारीतौर पर बाजरे की खरीद नहीं हो पाई है। क्योंकि सरकारी रेट पर जो गुणवत्ता चाहिए वह बाजरे में उपलब्ध नहीं है।
 इस संबंध में सचिव मार्केट कमेटी मनोज मनोज पाराशर से बात हुई उन्होंने बताया कि किसानों के गेट पास काटे जा रहे हैं। अब तक कुल 750 गेट पास काटे जा चुके हैं। सरकारी तौर पर बाजार 2775 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब खरीदने के आदेश हैं किंतु जिन मानदंडों पर बाजरा खरीदा जाना चाहिए, जो गुणवत्ता होनी चाहिए वो बाजरे में नहीं है। जिसके कारण सरकारी तौर पर बाजरा नहीं खरीदा गया है। निजी स्तर पर बाजरे की खरीद कम से कम 1950 रुपये तथा अधिकतम 2200 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से की गई है। यह बाजरा करीब 10000 क्विंटल खरीदा गया है। इसमें भावांतर भरपाई सरकार द्वारा की जाएगी। एमडी पहुंचे कनीना कनीना अनाज मंडी--
कनीना की नई अनाज मंडी में एमडी हैफेड मुकुल कुमार पहुंचे। इस मौके पर अनेक किसान उनसे मिले और किसानों ने अपना दर्द उनके समक्ष प्रस्तुत किया। किसानों ने कहा कि उनके बाजरे की सरकारी तौर पर खरीद की जानी चाहिए। मुकुल कुमार ने बताया कि जो निर्धारित मानदंड/मानक रखे गए हैं उन पर बाजरा खरा नहीं उतर रहा है। वर्षा द्वारा खराब हो चुका है, इसलिए यह सरकारी तौर पर नहीं खरीदा जा रहा है। इस पर किसानों ने कुछ नियमों में ढील देने की मांग की, जिस पर मुकुल कुमार ने उनसे लिखित लिखित बयान मांगा। उन्होंने किसानों को आश्वस्त किया कि वे सरकार तक उनकी बात पहुंचाएंगे। किसानों ने लिखित रूप से मुकुल कुमार को अपना ज्ञापन दिया।
 इस मौके पर खरीद एजेंसी हैफेड मैनेजर वीरेंद्र कुमार ने बताया कि किसानों की समस्या है कि सरकारी तौर पर बाजरा खरीदा जाए किंतु सरकारी तौर पर जो मानक रखे हैं उन पर खरानहीं उतर पा रहा। बाजरे का रंग खराब हो गया है हुआ है। जिसके चलते सरकारी तौर पर नहीं खरीद पा रही है। उन्होंने बताया कि प्रतिदिन बाजरे के सैंपल रेवाड़ी भेजे जा रहे हैं किंतु एक भी अब तक पास नहीं हुआ है।
 फोटो कैप्शन 6: एमडी मुकुल कुमार नई अनाज मंडी बाजरे का निरीक्षण करते हुए
 साथ में मनोज पाराशर सचिव मार्केट कमेटी





सरकार के आदेश पर बाल रामलीला आयोजित
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कनीना की आवाज।
शनिवार को शिक्षा विभाग हरियाणा के निर्देश अनुसार  राजकीय प्राथमिक पाठशाला अगिहार में बाल रामलीला का आयोजन किया गया। विद्यालय की कक्षा ग्यारहवीं की छात्रा अर्चना ने बाल कलाकारों को अभिनय के लिए तैयार किया। विद्यालय के मुख्य शिक्षक रतनलाल ने बाल कलाकारों के अभिनय की तारीफ की तथा उन्हें रामायण के विभिन्न पात्रों से प्रेरणा ग्रहण करने की अपील की। बाल रामलीला में कल्पना,कंचन, पूर्व, प्रिंस, इशिका, साक्षी, देविका, प्रियांशी मुस्कान सोफिया, प्रीति तथा साहिल आदि बाल कलाकारों ने उत्कृष्ट अभिनय का प्रदर्शन किया।
   इस अवसर पर विद्यालय की प्राचार्या पूनम यादव मदन मोहन कौशिक, राजेंद्र कटारिया, अजय कुमार  बंसल, धर्मेंद्र डीपीई, कैलाश देवी, निशा जांगड़ा, शशि कुमारी,सुरेंद्र सिंह चंद्रशेखर, प्रमोद कुमार सहित विद्यालय के समस्त स्टाफ एवं विद्यार्थी उपस्थित रहा।
फोटो कैप्शन 04: बाल रामलीला में भाग लेने वाले पात्र



















जागरण प्रभाव
खबर प्रमुखता से प्रकाशित करते ही
 शिक्षा विभाग ने दो अस्थाई भेजे
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कनीना की आवाज।
शहीद हनुमान सिंह राजकीय माध्यमिक विद्यालय कोटिया का समाचार दैनिक जागरण ने ज्यों ही प्रमुखता से प्रकाशित किया त्यों ही शिक्षा विभाग ने दो असथायी तौर पर शिक्षक भेजे हैं। इससे पढ़ाई प्रभावित नहीं हो पाएगी।  भेजे गये शिक्षकों में पीटीआई तथा संस्कृत प्रमुख हैं।
विस्तृत जानकारी देते हुए एसएमसी सदस्य देशराज यादव ने बताया कि शिक्षक तो भेज दिए किंतु मुख्य विषय गणित एवं विज्ञान का कोई शिक्षक नहीं भेजा है। उन्होंने सरकार से मांग की है की गणित या विज्ञान विषय में से एक शिक्षक जरूर भेजें ताकि विद्यार्थी की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके। उन्होंने साथ में कहा कि जब तक स्थायी शिक्षक नहीं आते तब तक कोई विज्ञान या गणित का प्रतिनियुक्ति या अस्थाई तौर पर भेजा जाए।
 फोटो कैप्शन 5: दैनिक जागरण में प्रकाशित समाचार


Saturday, December 21, 2024


गरीबों के बादाम

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किसान की आय का स्रोत

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--कितने ही लोग रोटी रोजी कमाते हैं मूंगफली से     

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मूंगफली गरीब लोगों का बादाम नाम से विख्यात हो रही है। इस फसल की पैदावार जो देश के कुछ ही हिस्सों में प्रसिद्ध थी वो अब देश के प्रत्येक भाग में बखूबी से उगाई जाने लगी है। खासतौर से रेतीले क्षेत्रों में और वो भी मूंगफली उगा पाना कठिन होता था किंतु अब रेतीले क्षेत्रों में भी इसकी पैदावार अच्छी खासी ली जाने लगी है। मूंगफली उगाकर किसान को अपने खेत में लाभ ही लाभ मिलता है। आमदनी भी कम नहीं होती है।
    यूं तो किसान किसी फसल पैदावार को लेने के लिए अनेकों प्रयोग करने के उपरांत ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। यूं कहा जाए कि किसान खेत पर प्रयोग करने से नहीं चुकता तो अतिश्योक्ति  नहीं होगा। विशेषकर महेंद्रगढ़ जैसे रेतीले क्षेत्र का किसान तो बड़ी ही सूझबूझ से काम लेता है। उसकी हर फसल पैदावार ही उसके भरण पोषण का आधार होती है। अगर किसान एक फसल पैदावार लेने से भी वंचित रह जाए तो उसके सामने  कर्जा लेने के अलावा कुछ भी विकल्प नहीं बचता है। ऐसे में कठिन एवं दुर्गम कार्य करने से किसान सदा ही कतराता रहता है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी रेतीले क्षेत्र का किसान गरीबों के बादाम मूंगफली उगाने से नहीं चूकता है। किसान के लिए मूंगफली उगाना बहुत ही लाभप्रद साबित हो रहा है। यह सत्य है कि किसान को इस नई फसल की पैदावार लेने में अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है विशेषकर कई रोग लग जाते हैं और उसकी फसल पैदावार में खलल डाल उसे आगे इस प्रकार की फसल पैदावार लेने से रोकते हैं।
सर्दियों के मौसम में मूंगफली को भूनकर कुछ गरीब जन न केवल अपनी रोटी रोजी कमाते हैं अपितु गरीब लोगों को उनका प्रमुख बादाम देते हैं। लोग भी इसे बड़ चाव से खाते हैं। किसान यदा कदा ही मूंगफली बोने का साहसिक कार्य करते रहे हैं किंतु अब महेंद्रगढ़ जिला में भी मूंगफली की अच्छी पैदावार ली जाने लगी है। किसानों के खेतों से ही मूंगफली की पैदावार को खरीददार ले जाते हें और अच्छी आय का स्रोत बनती जा रही है। किसान मूंगफली उगाकर न केवल खेत की उर्वरा शक्ति को बनाए रखता है अपितु उसकी आय में अन्य फसल के मुकाबले कम इजाफा नहीं होता है। कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि मूंगफली की जड़ों से ही नहीं अपितु इसके पत्तों से भी उत्तम खाद बनकर खेत की उर्वरा शक्ति को बनाया जा सकता है। ऐसे में किसान के लिए मूंगफली उगाना बेहतर साबित हो रहा है।
   हरियाणा के जिला महेंद्रगढ़ में जहां पानी की कमी है और राजस्थान की सीमा से सटा होने के कारण नरम एवं रेतीली मिट्टी मिलती है किंतु यहां पर रेतीली मिट्टी में भूमिगत सब्जियां एवं फसल बेहतर पैदावार दे रहे हैं। आलू, शकरकंदी, लहसुन, प्याज एवं मूंगफली जैसी फसलें जो भूमि के नीचे फैलती एवं फूलती हैं, के लिए नरम एवं रेतीली जमीन ही कारगर साबित हो रही है। धीरे-धीरे किसानों का रुझान अब इन फसलों के अलावा मूंगफली उगाने की ओर बढ़ता ही जा रहा है। किसान इस क्षेत्र में मूंगफली की फसल के नया होने के कारण इसमें लगने वाले रोगों से अनभिज्ञ हैं और कृषि परामर्श कर पाना ग्रामीण किसानों के लिए आसान काम नहीं रहा है।
   इतना कुछ होने के बावजूद भी अब किसान इतनी मूंगफली उगाने लग गए हें कि किसी बाहरी प्रदेश से नहीं मंगवानी पड़ रही है। किसान अपनी पैदावार का उचित दाम घर बैठे बिठाए ही ले लेता है। किसान को ऐसे में मंडियों में जाने की ही जरूरत नहीं हे। उधर किसान अपने खेत में मूंगफली उगाकर लाभ भी उठा रहा है क्योंकि प्रति वर्ष किसान को अपने खेत में भारी मात्रा में खाद एवं उर्वरक डालना पड़ता हे। मूंगफली की फसल उगाकर हजारों रुपये के उर्वरक डालने से बच जाता हे क्योंकि मूंगफली जब तक खेत में खड़ी होती है तब तक इसकी जड़े गहराई में जाती हैं और वहां पर पोषक तत्वों की आपूर्ति करती ही है वहीं जब पत्ते गिरते हैं तो उनका खाद भी बनता है। यह खाद बेहतर खाद माना जाता है।
  किसान तीन प्रकार का खाद प्रयोग करता है जिसमें गोबर का खाद, हरा खाद एवं कंपोस्ट खाद प्रयोग में लाता है वहीं नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाशियम उर्वरक भी काम में लाता है। जहां तक उर्वरकों का सवाल है उसे खरीदकर लाने पड़ते हैं वहीं खाद अपने घर पर भी पशुओं के मलमूत्र से तैयार कर लेता है। इनमें हरा खाद बेहतर खादों में से एक माना जाता हे। हरा खाद मूंगफली से भी तैयार करता हे। यह भी उल्लेखनीय है कि मूंगफली के पत्ते भारी संख्या में गिरते हें जो खाद का काम करते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि मूंगफली पैदावार के बाद कोई भी फसल पैदावार ली जाती है वह बेहतर पैदावार देती है। ऐसे में मूंगफली के गुणों से किसान धीरे-धीरे परिचित होता जा रहा है। इस प्रकार गरीबों के बादाम किसान का बेहतर काम बनते जा रहे हैं।
  सर्दी के मौसम में मूंगफली की मांग अधिक रहती है जिसके चलते उन्हें घर बैठे ही खरीददार मिल जाते हैं। किसानों की ये मूंगफली उन्हें अच्छी आय प्रदान करती हैं। यही कारण है कि किसानों का रुझान इस ओर बढऩे लगा है। वैसे भी गरीबों के बादाम को बाजार में भूनकर बेचने वाले भी गरीब तबके के अधिक लोग होते हैं। अत: गरीबों के लिए मूंगफली एक वरदान साबित हो सकती है। किसान के लिए भी लाभकारी है तो गरीब के लिए भी लाभकारी है। उच्च ऊर्जा प्रदान करने वाली मूंगफली खाने में अति स्वादिष्ट होती है।
समय बीताने, दोस्तों के साथ गपशप करने तथा टे्रेन एवं बसों के सफर में लोग मूंगफली खाते देखे जा सकते हैं। किसी भी भीड़ वाले स्थान पर तो भारी मात्रा में मूंगफली भूनकर देते या रेहडिय़ों पर बेचते देखे जा सकते हैं।
                                                  


डा. होशियार सिंह यादव
                                                      मोहल्ला-मोदीका
                                                      कनीना-123027
                                                  जिला-महेंद्रगढ (हरियाणा)
                                                      फोन-9416348400

Friday, July 8, 2022

 
          गरीबों के आम
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दुनिया का सबसे छोटा आम
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निंबोरी
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अजारिचटा इंडिका
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दुनिया का सबसे छोटा और सस्ता आम निबोरी कहलाता है। गरीबों के लिए भी भगवान ने हर चीज खाने के लिए उपलब्ध करवाने का भरसक प्रयास किया है। जहां गर्मियों के दिनों में अमीर व्यक्ति आम का स्वाद बेहतर ढंग से ले सकता है परंतु गरीब तबके के लोग अपने क्षेत्र में और प्रकृति में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध दुनिया के सबसे छोटे आम और सबसे सस्ते आम, नीम की निंबोरी खा सकते हैं। वास्तव में नीम को गरीबों का आम कहा जाता है।
नीम की निबोरी पुराने समय से बच्चे बहुत चाव से खाते आ रहे हैं। एक वक्त था जब लोग निबोरी तोड़कर खाने के लिए लालायित रहते थे। नीम के पेड़ पर दिनभर चढ़े रहते थे और अच्छी-अच्छी निबोरी खाते थे। यहां तक कि नीम की निबोरी तोडऩे के लिए सरकंडे का एक यंत्र भी बनाते थे जिससे अच्छे दर्जे की निबोरी तोड़कर पेड़ के नीचे खड़े होकर ही खा लेते थे। वह जमाना था जब लोग पीपल की बंटी,जाटी की झींझ, कैर के पीचू ,जाल के पील तथा नीम की निंबोरी चाव से खाते थे। लंबे समय तक इनको खाया जाता था। वैसे तो आम और निंबोरी सबसे स्वादिष्ट बारिश के समय पैदा होते हैं। जब बारिश होती है तो निबोरी पक जाती है वही आम भी पक जाते हैं। वैसे तो नीम को घर का वैद्य कहा गया है। इससे अनेकों दवाइयां प्राप्त होती है जिनका इंसान लंबे समय से प्रयोग करता रहा है। परंतु आज भी इन निंबोरी की तरफ कुछ लोगों का आकर्षण देखने को मिलता है। यह सत्य है कि इन चीजों को लोग आधुनिक युग में भुलाते जा रहे हैं। यही कारण है कि नीम के प्रति उनका व्यवहार भी बदल गया है। नीम सबसे अधिक औषधियों में प्रयोग होने वाला ग्रामीण क्षेत्रों का एक पेड़ होता है।
 हर घर दरवाजे तथा संस्थान एवं खेतों में नीम खड़ा देखा जा सकता है। इसे अजारिचटाइंडिका होली ट्री, इंडियन लीलाक, मेलिया अजारिचटा,नीम, निंबा आदि नामों से जाना जाता है। पुराने समय से जब मोटे अन्न घरों में सुरक्षित रखते थे तो इसके पत्ते ही काम में लाए जाते थे। नीम की दातुन सैकड़ों वर्षों से आज तक इंसान करता आ रहा है। नीम की कच्ची कोपल भी विभिन्न रोगों को दूर करने के लिए लोग प्रयोग करते आ रहे हैं। ऐसे में नीम को किसी भी सूरत में भुला नहीं सकते परंतु नीम एक बड़ा पेड़ होता है जिसके पत्ते, बीज एवं छिलका दवाओं में काम आता है। इसकी जड़, फूल और फल भी अक्सर काम में लाए जाते हैं।
  नीम के पत्तों का उपयोग कुष्ठ रोग, नेत्र रोग, आंतों के कीड़े, पेट खराब होने पर, भूख न लगना, त्वचा के अल्सर, हृदय रक्त वाहिनियों के रोग, बुखार, मधुमेह, मसूड़ों की बीमारी, यकृत आदि अनेक दवाओं में काम में लाया जाता है वही पत्ती का उपयोग जन्म नियंत्रण और गर्भपात के लिए भी किया जाता रहा है।
 नीम की छाल का उपयोग मलेरिया, त्वचा रोग, दर्द, बुखार आदि में किया जाता है। पुराने समय से पत्तों और छाल आदि को उबालकर स्नान करवाने के काम में लाते थे ताकि रोगाणुरहित शरीर बन जाए। फूल का उपयोग पित्त कफ का नियंत्रण, आंतों के कीड़ों के इलाज में काम में लेते हैं किंतु फल का उपयोग बवासीर आंतों के कीड़े, मूत्र विकार, खूनी नाक, नेत्र विकार, मधुमेह,कुष्ठ रोग घाव के इलाज के काम में लेते हैं।

 नीम की कच्ची कोपलों का उपयोग खांसी, दमा, बवासीर, आंतों के कीड़े, मूत्र विकार, मधुमेह शुक्राणु संबंधित बीमारियों के इलाज में काम लेते हैं। टूथब्रश के रूप में तो बहुत से लोग प्रयोग करते हैं। नीम की टहनियों को कच्ची टहनियों को जब खाते हैं तो सावधानी से खाना चाहिए।
 बीज और बीज का तेल उपयोग कुष्ठ रोग और आंतों के कीड़े जान नियंत्रण, गर्भपात आदि में किया जाता है। जड़ ,छाल एवं फल कैा तेल सिर की जू, त्वचा रोग, घाव आदि के इलाज में भी इसका उपयोग किया जाता है। मच्छर से बचने की क्रीम के रूप में और साबुन आदि में रूप में भी किया जाता है। 

  ऐसे में नीम एक बहुत गुणकारी पौधा है जिसका हर भाग किसी ने किसी काम में और उपयोग में लेते हैं। नीम के पत्तों का प्रयोग  लगातार 6 सप्ताह प्रयोग करने से जीवाणुओं की संख्या घट जाती है।  शोध भी हो चुका है कि जड़ एवं पत्ती कीटों को दूर भगाते हैं। अल्सर आदि में काम आते हैं। सोरायसिस, पेट की खराबी, सांस न लेने की स्थिति में, मलेरिया, कीड़े ,सिर की जूं त्वचा रोग दिल की बीमारी, मधुमेह आदि में भी काम में लाया जाता है।
नीम को अधिक मात्रा में या लंबे समय तक रहने से गुर्दे और लीवर को नुकसान हो सकता है। नीम की निंबोरी वास्तव में बहुत मधुर लगती है जो आने को बीमारियों की ठीक करने में लाभप्रद है। शरीर में क्षार की मात्रा को बढ़ा देती है जिससे एसिडिटी संबंधित विकार कम हो जाते हैं।  यह देखने में आम जैसे लगते हैं इसलिए नीम की निंबोरी को गरीबों का आम कहा जाता है। वैसे भी दुनिया के सबसे छोटे आम है तथा आसानी से ग्रामीण क्षेत्रों में मुफ्त में उपलब्ध हो जाते हैं। शहरी क्षेत्रों में नीम कम होने से इनकी सुलभता स्वाभाविक है।






आज भी बुजुर्गों को गरीबों के आम खाने के दिन याद आते हैं।

Wednesday, July 6, 2022


 पुराने वक्त से प्रयोग करते आ रहे हैं टींट एवं बाडिय़ा
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चेतावनी-किसी प्रकार की लेख की कापी करना दंडनीय अपराध एवं कापीराइट एक्ट के खिलाफ होगा।
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**************** पुराने समय से बुजुर्ग एक कहावत कहते आए हैं कि -
                होल़ो   पूच्छै   होल़ी  तैं , के  रांधागी  होल़ी  नै ।
                टींट बाडिय़ा सब दिन रांधू, चावल़ रांधू होल़ी नै।।

 यह कहावत बहुत पुरानी है जो सिद्ध करती है टींट एवं बाडिय़ा पुराने समय से इंसान प्रयोग करता आ रहा है। शरीर के लिए बेहद लाभप्रद ये फल एवं फूल कैर पौधे से प्राप्त होते हैं। पुराने समय में हर गांव में हर जगह बणियां होती थी। कैर इन बणियों में पाए जाते है। कैर ऐसे पौधे होते हैं जो सूखे में भी लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं। पानी की बहुत कम आवश्यकता होती है, वास्तव में आंधी एवं बारिश आदि के तेज बहाव को राोक देते हैं। इन पौधों के अंदर अनेकों सरीसृप निवास करते हैं। कैर की लकड़ी बहुत शुभ मानी जाती है। और पुराने वक्त में घरों में दही बिलोते समय मथनी इसी के सहारे चलती थी। वह जमाना बदल गया फिर मधानी भी अनेकों प्रकार की आने लगी। आजकल के बच्चे यह भी नहीं जानते होंगे कि किसी समय दही से मक्खन बनाने की मधानी कैसे प्रयोग करते थे। कै र की लकड़ी बहुत कारगर मानी जाती है। कैर का नाम लेते ही एक ऐसे पौधे का चित्र मन में भरता है जिसके पत्ते नहीं दिखाई देते। पत्ते तो होते हैं किंतु बहुत बहुत सुई जैसे होते हैं। सुई जैसेे पत्ते वाष्पोत्सर्जन क्रिया कम करने के लिए होते हैं। कैर का तना स्वयं ही पत्ती का  कार्य करते हैं। प्राय मार्च-अप्रैल तथा अगस्त एवं सितंबर ,वर्ष में दो बार फूल एवं फल प्रदान करते हैं। कैर के फूल जो अभी खिले नहीं है उनको बाडिय़ा नाम से जाना जाता है। ये फूल खिल जाते हैं उनको भी कुछ लोग प्रयोग में लाते हैं।
  फूल से फल बनते हैं जिन्हें टींट कहते हैं जो सेहत के लिए बहुत लाभप्रद होते हैं। पेट की कई रामबाण औषधियां इसी से बनती है। वास्तव में पुराने समय में बाडिय़ां तोड़कर लाये जाते थे तोड़कर होने छाछ में डालकर कुछ दिनों के लिए रख देते है।। कुछ दिनों पर रखा देने के बाद उसे उठना बोलते हैं। छाछ में रखने से इनमें खटास आ जाता था। उन्हें साफ पानी में धोकर कई प्रकार से प्रयोग किया जाता है। विशेषकर इन की सूखी सब्जी बनाई जाती थी जो बड़े चाव से खाई जाती है। आज भी बुजुर्ग पुराने जमाने की सब्जी को नहीं भूल पाए हैं।  इसके फूल भी इसी प्रकार सब्जी बनाने के काम आते हैं। इनके फल होते हैं उनको भी ऐसे ही प्रयोग किया जाता है। जहां टींट में अंदर कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन एवं लिपिड पाए जाते हैं वही एंटीऑक्सीडेंट और एंटी डायबिटिक औषधि के रूप में जाना जाता है। शुगर की बीमारी में भी अच्छे होते हैं। मधुमेह को दूर कर देते हैं। फूलों में एस्कार्बिक अमल पाया जाता है तथा इनको ग्रामीण क्षेत्रों में जमकर सब्जी बनाने के काम लेते हैं। राजस्थान जैसे क्षेत्रों में तो कैर एक बहु औषधीय पौधा बन गया है। इसके टींट जहां हरे रूप में होते हैं। बाद में वे लाल बन जाते हैं। ये पीचू नाम से जाने जाते हैं और पीचू को बड़े चाव से खाते हैं। फलों को पक्षी और पशु खाते हैं। जिनका स्वाद मीठा होता है। जिसमें काले बीज पाए जाते हैं। वास्तव में टींट को सूखा लिया जाता है जहां वे देसी सब्जियां बनाने में बहुत कारगर होते हैं। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों के लोग टीट का अचार प्रयोग करते हैं। कैर की ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पूजा भी करते हैं क्योंकि इसके औषधि गुण होते हैं। मेलों के अफसरों पर इसके पीछे कांटो में चने आदि भी पिरोए जाते हैं जो एक सगुन माना जाता है। कैर का रंग इतना गहरा और हरा होता है कि दूर से दिखाई देता है लेकिन जब इस पर फूल लगते हैं तो दूर से लोग आकर्षित करते है। कैर में सरीसृप निवास करते हैं और कैर उनका सुरक्षा भी करता है। कैर अधिक ऊंचा नहीं होता लेकिन कभी कबार इसकी लकड़ी मोटी हो जाती है तो काट कर घरों में प्रयोग करते हैं। परंतु कर जब खत्म हो जाते हैं दोबारा से पनपने में लंबा समय लेते हैं।
टींट का अचार जब कोई एक बार खा लेता है तो वह इसकी और आकर्षित होता चला जाता हैं। अचार का वो इतना दीवाना बन जाता है कि टींट के अचार के बगैर वह खाना तक नहीं खाता।
 बुजुर्ग आज भी बताते हैं पुराने समय में अधिक संघर्ष करके टींट को तोड़ कर लाते थे और थैलों में भरकर घर तक पहुंचाते थे। घरों में छाछ भी अधिक मात्रा में होने से टींट को छाछ में कुछ दिनों तक डाले रखते है। जब उनका कड़वाहट कम हो जाता है तो उन्हें तलकर या भूनकर प्रयोग करते है। आज कभी पेट में दर्द हो जाए तो इसका पिसा हुआ पाउडर लिया जाता है। टींट का प्रारंभ में रंग हरा होता है वहीं बाडिया भी हरे रंग का होता है। यदि टींट को न तोड़ा जाए तो बाद में यह लाल रंग रूप धारण कर लेता है जिसे पीचू कहते हैं तथा लोग चाव से खाते हैं। जिसका स्वाद मीठा होता है परंतु इनके बीजों को फेंक दिया जाता है। कुछ पक्षी तो बड़े अधिक लुभाते हैं और उसके फलों को खाते हैं और अपना पेट भरते हैं। टींट एवं बाडिय़ा आदि वर्तमान में पुरानी बात होती जा रही है किंतु लंबे अरसे तक अचार के रूप में टींट को आज भी प्रयोग किया जाता है। बाजार में टेंटी/टींट आदि नामों से आचार मिल जाता है जो सिद्ध करता है कि बुजुर्ग जिस फल का प्रयोग करते थे सबसे अधिक प्रयोग करते थे वह आज भी उपलब्ध है।

क्योंकि कहावत है टींट बाडिय़ा सब दिन सब दिन रांधू का अर्थ है कि टींट एवं बाडिय़ा की सब्जी तो प्रतिदिन बनती है लेकिन चावल होली जैसे पर्व  के दिन बनाऐ जाते थे। इसे सिद्ध होता कि चावल बुजुर्ग कम खाते थे ये कम मिलते थे वही टींट एवं बाडिय़ा प्रतिदिन प्रयोग करते थे। अब भी बड़े-बड़े शहरों में बाजार में कुछ गरीब जाति के लोग टींट बडिय़ा आदि बाजार में बेचते देखे जा सकते हैं। वे ढेर लगाए इनको बेेचते हैं।
 टींट खाने की आदत डाली जाएगी और बढिय़ा की सब्जी बनाई जाए तो आज भी पुराने समय का स्वाद फिर से हाजिर हो सकता है। अभी टींट पर बहुत से शोध चल रहे हैं। यह भी हो सकता है कि भविष्य में कैर बड़े स्तर पर औषधि के रूप में प्रयोग किया जाए। पुराने वक्त में सांगर, चौलाई, श्रीआई, बथुआ एवं हरी मेथी आदि अधिक प्रयोग करते थे।




Friday, June 17, 2022

                            उच्च रक्तचाप
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पांच फल जो आसानी से मिलते हैं खाने चाहिए
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उच्च रक्तचाप के हैं कई खतरें
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उच्च रक्तचाप से बचने के लिए खाए फल
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प्राय: आधुनिक भागदौड़ की जिंदगी में इंसान अनेक रोगों से पीडि़त होता चला जा रहा है जिनमें सबसे बड़ी समस्या उच्च रक्तचाप यानी हाई ब्लड प्रेशर की है। न जाने कितने रोगों का कारण उच्च रक्तचाप बनता है।
- हार्ट फेल
-हृदय की असामान्य धड़कन
- ब्रेन हेमरेज
-गुर्दे खराब होना
- धमनियों में कोलस्ट्रोल बढऩा
-दृष्टि पर प्रभाव
-अपंगता/हवा लगना
-गैंगरिन का भी इसी से कुछ जुड़ाव है।
जैसे कितने ही कारण दिखाई देते हैं। जब उच्च रक्तचाप हो जाता है तो हृदय को प्रतिदिन की बजाय अधिक काम करना पड़ता है। एक स्वस्थ व्यक्ति का रक्तचाप 80/120 होना चाहिए किंतु इससे ऊपर होना
नुकसानदायक है। अक्सर यह कह कर टाल दिया जाता है की रक्तचाप में उम्र भी जोड़ दी जाए लेकिन हकीकत यह नहीं है। विज्ञान यह कहता है कि रक्तचाप चाहेउम्र कितनी भी हो अधिक प्रभाव नहीं डालता, उम्र जोडऩे का कोई तात्पर्य नहीं बनता। उच्च रक्तचाप एक बड़ी समस्या बनती जा रही है।

 अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों में हर जगह समस्या देखने को मिलती है।  कई बार अपंग बनकर रह जाता है और  पूरी जीवन अपंगता में जीवन यापन करता है। ऐसे समय इंसान कई बार सोचता है कि जिंदगी से बेहतर है मर जाना लेकिन विज्ञान की भाषा में उच्च रक्तचाप के पीछे अनेकों कारण हो सकते हैं। अक्सर लोग शराब अधिक पीते हैं, तला भुना खाना एक आम बात बन गई है। वैसे भी इंसान तनाव में जीता है और दूसरों को देख देखकर जल भुन जाता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। चिकनाई युक्त भोजन नुकसानदायक है ऐसे में रक्त धमनियों की हालात वही होती है जो नाली में किसी प्रकार का अवरोध आ जाता है। नसों में भी अवरोध बन जाता है जिससे रक्त अपनी गति से नहीं बह सकता और इसे उच्च रक्तचाप नाम दिया गया है क्योंकि रक्त का दाब बढ़ जाता है। इ
ऐसे समय में गर्मी गर्मियों में अनेक फल मिलते हैं इनको खाने से इंसानउच्च रक्तचाप पर कुछ हद तक काबू पा सकता है। उच्च रक्तचाप को कम करने के लिए लोग अक्सर जीवन भर गोलियां लेते हैं परंतु यदि समय से गौर किया जाए तो रक्तचाप को बढऩे से रोका जा सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में गर्मियों के दिन बहुत से फल आते हैं इनको खाने से रक्तचाप को घटाया जा सकता है। इनमें
सबसे महत्वपूर्ण है कि है केला।
केला----
केला हर समय उपलब्ध होता है। दुनिया में सबसे अधिक खाया जाने वाला फल भी केला ही है। केला गर्मी सर्दी हर मौसम में उपलब्ध होता है क्योंकि उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने में पोटेशियम तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और केले में पोटैशियम के अलावा ओमेगा-3, फैटी एसिड अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। केला सुबह-शाम आ सकता हो खाया जा सकता है यद्यपि कुछ डॉक्टर केले को खाली पेट में खाने की सलाह नहीं देते हैं परंतु केला खाना कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश के लिए लाभप्रद होता है ।वैसे भी केला ग्रामीण क्षेत्रों में विवाह शादियों, उत्सव तथा बंधुता भावना को लेकर भी लेनदेन किया जाता है। हर जगह आसानी से उपलब्ध हो जाता है। मीठा केला पका हुआ केला खाना अधिक लाभप्रद होता है।
आम----
 गर्मियों के दिनों में सबसे मशहूर फल आम खाया जाता है जो उच्च रक्तचाप को रोकता है।  वैसे तो कहावत है जो आम नहीं खाते वो गधे होते हैं लेकिन कवि का यह कथन कहां तक सत्य है यह कहना उचित नहीं। वैसे भी आम रसीला फल होता है आम की 500 से अधिक किसमें पाई जाती हैं। आम में फाइबर पाया जाता है यही नहीं बीटा ककैरोटिन भी मिलता है जो उच्च रक्तचाप को रोकता है।  गर्मियों में मीठे रसीले फलों का स्वाद लेना चाहिए उच्च रक्तचाप को रोकने में मदद करते हैं। वैसे भी आम फलों का राजा है इसीलिए कहते आम का मधुर स्वाद हर किसी को पसंद आ जाता है।
 तरबूज-

तरबूज गर्मियों का बेहतर तोहफा है। ग्रामीण क्षेत्रों में उगाया जाता है और हर जगह लगभग उपलब्ध हो जाता है। गर्मियों के दिनों में जगह-जगह तरबूज को ढेर लगाकर बेचा जाता है। उच्च रक्तचाप वालों के लिए बेहतर फल है जिस में पानी की मात्रा अधिक पाई जाती है। इस तरबूज में पोटेशियम, विटामिन, लाइकोपीन, अमीनो एसिड आदि पाए जाते हैं जो उच्च रक्तचाप को रोकने में पोटाशियम आम में मिलता है। इसके अलावा कुछ महंगे फल भी विटामिनों के स्रोत होते हैं जो न भी उपलब्ध हो तो आम, केला और तरबूज से भी उच्च रक्तचाप को रोका जा सकता है।
स्ट्रॉबेरी---
 स्ट्रॉबेरी एंटीऑक्सीडेंट, विटामिन-सी ओमेगा-3 फैटी एसिड से भरपूर होता है इसमें भी पोटैशियम पाया जाता है जो उच्च रक्तचाप को रोकता है लेकिन स्ट्रॉबेरी ग्रामीण और गरीब व्यक्ति के लिए पहुंच से बाहर होते हैं। इसी प्रकार कीवी उच्च रक्तचाप को रोकने के लिए फायदेमंद फल है जिसमें पोटैशियम एवं मैग्निशियम तत्व पाए जाते हैं।  

कीवी-

कीवी का सेवन करने से दिल के दौरे ,अन्य खतरे कम हो जाता है। यहां तक कि डॉक्टर सलाह देते हैं कि उच्च रक्तचाप के रोगियों को रोजाना कीवी का जूस पीना चाहिए किंतु यह फल गरीबों की पहुंच से कुछ महंगे होते हैं। परंतु तरबूज आम और केला आम व्यक्ति आसानी से खा सकता है। जिससे इन लोगों से भयंकर रो






ग से छुटकारा मिल सकता है। ऐसे में जब भी प्यास लगी हो तो तरबूज का फल खाया जा सकता है। यदि भूख लगी हो केले का फल खाया जा सकता है। मधुर रस लेने का मन हो तो आम का फल खाया जा सकता है। खट्टी चीजें खाने का मन करे तो कीवी और स्ट्रॉबेरी महंगे दामों पर लाकर खाए जा सकते हैं।

Saturday, June 11, 2022

                                 तुरही
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आरेंज ट्रंपेट वाइन
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 येलो रेड वाइन
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 कॉउ ईच वाइन
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हमिंगबर्ड वाइन
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आमतौर पर किसी बाग बगीचे झाड़ बोझे के आसपास अमेरिकन पौधा ऑरेंज ट्रंपेट आसानी से देखने को मिल सकता है जिसके फूलों को आप देख कर ही पता लगता है कि यह बैंड बाजे वाला पौधा है। जिस प्रकार पुराने समय में बैंड बाजा बजाते थे ठीक उस जैसा आकार फूलों का होता है इसलिए सिर्फ ट्रंपेट वाइन नाम से जाना जाता है। ये फूल देने वाले पौधे होते हैं जो भारत देश की उत्पत्ति नहीं है। यह यह बेल से लेकर पेड़ तक बन जाते हैं। इसके पत्ते गहरे हरे होते हैं एक दूसरे के लीफलेट पर विपरीत दिशाओं में लगे होते हैं। इसके इस पौधे के फूल बहुत आकर्षक होते हैं इसलिए दुनिया का सबसे छोटा पक्षी हमिंग बर्ड भी इन फूलों पर देखने को मिल सकता है।
 इसके फूलों से बड़ी-बड़ी पोड बनती है जिनमें बीज पाए जाते हैं क्योंकि  कुछ व्यक्तियों में यह पौधे संपर्क में आकर खुजली पैदा कर सकते हैं इसलिए इनको आउ इच वाइन नाम से भी जाना जाता है। बाग बगीचे की शोभा यहां तक की किसी बाग बगीचे के चारों ओर देखने को मिल सकते हैं। प्राय यह फूलों से लदे होते हैं और बेल के रूप में पाए जाते हैं।
इस पौधे की पत्तियां बड़ी होती है। फूल अनेकों रंगो के पाये जाते हैं जिनमें लाल, पीला, संतरी आदि के मिलते हैं। इस बेल की ओर चिडिय़ा और जीव जंतु आसानी से आकर्षित होते हैं। इसे  अधिक सूर्य का प्रकाश नहीं चाहिए इसलिए आसानी से उगाई जा सकती है और इसे अधिक पानी की भी जरूरत नहीं होती है। इसकी अनेक प्रजातियां पाई जाती है। त्वचा पर जलन पैदा करती है। वास्तव में तुरही का पौधा कोई विशेष लाभ नहीं देता सुंदरता के रूप में तो जाना जाता है किंतु आयुर्वेदिक औषधियों के रूप में इसे बहुत कम प्रयोग किया जाता है।










घरों में यह पौधा सजावट के लिए उगाया जाता है। अप्रैल महीने में इस पर फूल आने आरंभ हो जाते हैं सर्दी आने पर फूल आने बंद हो जाते हैं। सर्दियों में पत्ते झड़ जाते हैं। इसकी और कीट बहुत आकर्षित होते हैं।



Wednesday, June 8, 2022

                              नेपियर घास
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सेंचरस पर्पूरियस
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 पेनिसेटम पर्पूरियस
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 हाथी घास/युगांडा घास
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 हाथी घास/युगांडा घास कहने को तो नेपियर एक घास है किंतु यह घास कुल का पौधा नहीं होता। इसे वैज्ञानिक भाषा में सेंचरस पर्पूरियस/ पेनिसेटम पर्पूरियस नाम से जाना जाता है। यह पोएसी कुल का पौधा होता है जो भारत की उत्पत्ति नहीं है अपितु अफ्रीका की पैदावार है। इसके पैदा करने में पानी एवं खाद आदि की बहुत मक जरूरत होती है। इसके तनों की मदद से इसे आसानी से उगाया जा सकती है जो बहुत कम और बहुत अधिक ताप को सहन कर सकती है। अफ्रीका में अपने आप उग जाती है।
 नेपियर घास वर्तमान में किसानों के लिए योगदान नहीं अपितु वैज्ञानिकों के लिए भी अनेक शोध का कारण बनी हुई है। घास इसलिए कहते हैं कि पशुओं के हरे चारे के रूप में काम में लाई जाती है किंतु यह बाजरे से बिल्कुल मिलती-जुलती तथा इसके तने को देखें तो गन्ने और बाजरे जैसा ही होता है। कभी-कभी झुंडे एवं बांस जैसा भी पौधा बन जाता है किंतु यह बार-बार काटी जा सकती है। एक बार में ही एक पौधे से 50 से 60 किलो हरा चारा प्राप्त हो सकता है। इसलिए किसानों के लिए अधिक लाभप्रद है। सबसे बड़ी विशेषता इस पौधे पर बीजी बनते हैं बिल्कुल बाजरे जैसे भुट्टे भी लगते हैं किंतु इसकी पैदावार बढ़ानी हो तो इसके पके हुए तने को काटकर गन्ने की भांति भूमि में दबा दिया जाता है और यह घास उत्पन्न हो जाती है। हरा भरा पौधा दूर से लुभा लेता है। यह पौधा बहुत भारी हो जाता है जिसको देखकर ही लगता है कि यह हाथी घास है।
वैज्ञानिकों के लिए यह शोध का विषय बना हुआ है क्योंकि एक बार लगा देने के बाद कई सालों चलती रहती है। बार-बार काटी जाती है तथा एक बार में एक पौधे से 50 से 60 किलो चारा आसानी से प्राप्त हो जाता है और घास को देखकर ही पता लग जाता है कि यह नेपियर घास है। जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बहने से रोकती है। हवा के दबाव को कम करती है, कागज उद्योग में काम आती है तथा बायोगैस, बायो तेल एवं चारकोल आदि के निर्माण में भी काम में लाते हैं।
 कभी-कभी इस घास को देखकर ऐसा लगता है जैसे बांस का पौधा है। बांस के पौधे की भांति बहुत तेज गति से बढ़ती है। यह एक बीजपत्री पौधा है जिसके बीज में केवल एक दल पाया जाता है परंतु बीजों की बजाय इसके तने से ही दूसरा पौधा तैयार किया जा सकता है।
प्रतिवर्ष पशुओं के लिए सूखा चारा, हरा चारा तथा सांद्र चारे की जरूरत होती है जो इसी पौधे से प्राप्त किया जाता है। साल में कई बार उगाई जा सकती है ,पर एक बार उगाए जाने पर कई सालों तक चलती है। इसलिए भी किसानों के लिए घास वरदान बन गई है। गन्ने की भांति इस में अनेक पोरियां होती है जो अंदर से मीठी होती है इसलिए पशु इसको चाव से खा लेते हैं।




 नेपियर घास को बीजों से भी पैदा किया जा सकता है। नेपियर के ताने को काटकर ही तैयार की जाती है क्योंकि किसान पशु पालता है पशुओं के लिए सूखा, हरा चारा तथा सांद्र चारे की जरूरत होती है जिसमें से दो चारों की पूर्ति नेपियर घास कर सकती है। धीरे-धीरे लोगों का किसानों का रुझान इस घास की ओर बढ़ गया है। उद्योगों की दृष्टि से पशु का दूध बढ़ाती है क्योंकि यह पौष्टिक चारा होता है।
 नेपियर घास चारे के रूप में अधिक उगाई जाती है इसलिए डेयरी उद्योगों में बहुत प्रसिद्ध है। अफ्रीका में डेयरी उद्योगों के लिए यह घास अधिक उगाई जाती है। गाय एवं भैंस आदि इसे आसानी से खाते हैं दूसरे पशु देश को खा लेते हैं। युगांडा में उगाई जाने वाली घास बाल रहित होती है अधिक पैदावार देती है। सबसे बड़ी विशेषता है कि कम पानी और कम तत्वों से उगाई जा सकती है।
 किसान विशेषकर पशु पाल कर दूध प्राप्त करते हैं। दूध प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के चारे पैदा करते हैं या बाजार से खरीद कर लाते हैं ताकि दूध पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके। परंतु किसानों की नजरें लगातार नेपियर घास की ओर बढ़ी है ताकि सुधार से अधिक लाभ कमाया जा सके। इस पर खर्चा बहुत कम आता है तथा लाभ अधिक देती है। किसान इस घास को देखकर अधिक खुश है।