बुई
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इरवा जवानिका
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हरियाणा
में विशेषकर दक्षिणी हरियाणा में बुई नामक पौधा भारी संख्या में खेतों में
पाया जाता है। दूर से सफेद रंग के फूलों से लदा नजर आता है। इसे अंग्रेजी भाषा में कपोक बुश नाम से जाना जाता है।
यह
जंगली पौधा है जो भारी संख्या में खरपतवार के रूप में देखने को मिलता है।
बंजर भूमि पर तो अपने आप उग जाता है और झाड़ी का रूप ले लेता है। धीरे-धीरे
बहुत अधिक मात्रा में फैल जाता है। आसपास सफेद फूल
बिखरे दिखाई देते हैं। कई वर्षों तक चलने वाला पौधा है ग्रामीण क्षेत्रों
में भेड़-बकरी चराने वाले लोगों के लिए अति लाभकारी है। इस पौधे को
खरपतवार के रूप में जाना जाता हैं।
यद्यपि भेड़ बकरियां भी इस पौधे को खा लेती है और चारे के रूप में काम में लाया जाता है। शुष्क क्षेत्र में अधिक
संख्या में मिलता है। बालू मिट्टी में खूब उग जाता है। यह एकलिंगी पौधा
होता है। इसके भारी संख्या में बीज बनते हैं। यह ग्रामीण क्षेत्रों में
उपले बनाने
के लिए पतवार के काम करता है वही इसको लोग जलाकर इंधन के रूप में भी काम
में लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां बुई नाम से यह पौधा जाना जाता है
वही वैज्ञानिक भाषा में इसे इरवा जवानिका नाम से जाना जाता है। यह पौधा
वायु और जल के मिट्टी कटाव को भी रोकता है, वहीं किसानों के लिए एक समस्या
बना रहता है। इसे ग्रामीण क्षेत्रों में जंगली रूई, सफेद फूल आदि नामों से
जानते हैं।
बुई जंगली चौलाई जाति के पौधों से संबंध रखता है। यह
पौधा खड़ा और भूमि पर लेटा दोनों रूपों में देखने को मिलता है। कुछ देशों
में जहां दवा के रूप में काम आता है वही पशु के पेट के कीड़े निकालने के
काम आता है। यह पशुओं के पेट को साफ करने डायरिया को दूर करने के काम आता
है।
यह
बकरियों की आंखों के दोष दूर करने के लिए काम में लाया जाता है, वही गद्दे
भरने के भी काम में लाया जाता है। इसकी जड़े टूथब्रश बनाने के काम में
लाई जाती है जिसे बर्फ झाड़ी नाम से भी जाना जाता है। पौधे की जड़े तना एवं
स्पाइक काम में लाए जाते हैं। यह गठिया,त्वचा
का टूटना रक्त संबंधी विकार, त्वचा का सूखापन आदि में भी काम में लाया
जाता है। इस पौधे से एस्कोरबिक एसिड पत्तों से ग्लूकोसाइड आदि निकाले जाते
हैं।
गुर्दे की बीमारियों को दूर करने में भी वही काम में लाया जाता है।
यह
पौधा सूखे क्षेत्रों में बहुत उपयोगी माना जाता है यद्यपि प्रमुख खरपतवार
है। गुर्दे के पथरी को दूर करने के भी काम आता है वही फूल और जड़े दवा में
काम आती है। इस पौधे में 21 फीसदी प्रोटीन पाई जाती है। इसकी 28 प्रजातियां
भारत में पाई जाती हैं जिसमें से कुछ दवा में काम आती है। बुई मलेरिया दूर क
रने,
गुर्दे के रोग भगाने में भी काम में लाई जाती है। इसके बीज सिरदर्द दूर
करने के काम आता है वहीं पौधे की जड़ों से गरारे करने से दांत दर्द दूर हो
जाता है।
**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**
बुई
( ईरवा जवानिका)
बुई नाम से जाना जाता
जंगली पौधा खड़ा हुआ
किसान निराई जब करते
करते बुई को तुरंत सुहा,
बार-बार खेत में पनपता
जहरीला पौधा कहलाता
खाना इसे महंगा पड़ता
कई दवा में काम आता,
जब जूतों में बदबू होती
बुई तोड़ जूतों में लगाओ
बदबू दूर तुरंत हो जाती
पैरों को कटने से बचाओ,
बुई तेल अति जहरीला
लिवर को कर दे खराब
पाचन तंत्र भी नष्ट होता
यह जहरीली एक शराब,
कुछ जहरीले पदार्थ मिले
घाव, ब्लीडिंग को रोकता
कई रोगों में काम आता है
शरीर के दर्द को शोखता,
डेजर्ट का कपास कहाए
बकरी इसे चाव से खाए
दांत दर्द अगर हो जाए तो
इसके कुल्ला करके भगाए,
जलन, घाव सभी मिटा दे
मिट्टी कटाव पर रोक लगाए
गुर्दे व गठिया रोगों जब हो
बुई पौधों का लाभ उठाए,
कपोक ब्रुस नाम पड़ा है
विभिन्न देशों में पाया जाए
इसके कोमल पत्ते देखकर
जीवों के मन को यह भाए।
***होशियार सिंह, लेखक, कनीना********
इंद्रायन
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गरबूंदा /
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गड़तुम्बा,गडूम्बा,
पापड़,
पिंदा
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क्यूक्युमिस
ट्रिगोनस
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इंद्रायन
भारत सहित कई देशों में बेल के रूप में पाया जाता है। यह तरबूज के पत्तों
के समान, फूल नर और मादा दो प्रकार के तथा गोल फल वाली बहुवर्षीय बेल होती
है। जब यह बेल सूख जाती है तो कुछ वर्षों के बाद फिर
से हरी हो जाती है। इसका हर भाग कड़वा होता है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में
इसे गरबूंदा नाम से जाना जाता है। इस बेल के फल ये फल कच्ची अवस्था में हरे
रेग के होते हैं और बाद में पकने के बाद पीले हो जाते हैं । फलो पर
श्वेत रंग की धारियां पाई जाती हैं। फल गुद्देदार होता है जिसमें बीज
भूरे, चिकने, चमकदार, लंबे, गोल तथा चिपटे होते हैं। इस बेल का प्रत्येक
भाग कड़वा होता है।
इंद्रायन को लोक भाषाओं में गड़तुम्बा,गडूम्बा,
पापड़,
पिंदा आदि नामों से जाना जाता है। अंग्रेजी में इसे कोलोसिंथ तथा बिटर
ऐपलनाम से जाना जाता है तथा वानस्पतिक नाम सिट्रलस कॉलोसिंथस हैं। इंद्रायन की कुल तीन प्रकार होती हैं तथा दो अन्य वनस्पतियों को भी इंद्रायन कहा जाता है।
गडूंबा
के फल के गुद्देदार होते हैं जिन्हें सुखाकर विभिन्न औषधियों के काम में
लाते हैं। आयुर्वेदिक भाषा में यह शीतल, रेचक, पित्त, पेट के रोग, कफ, कुष्ठ
तथा ज्वर को दूर करने वाला कहा गया है। यह जलोदर, पीलिया और मूत्र संबंधित
बीमारियों में प्रमुख रूप से काम में लाया जाता है वहीं श्वेत कुष्ठ
रोग,खां सी, मंदाग्नि, खून की कमी और श्लीपद में भी उपयोगी कहा गया है।
गरबूंदा
सूजन को उतारने वाला, वायु नाशक तथा स्नायु संबंधी रोगों जैसे लकवा,
मिरगी, विस्मृति आदि में लाभदायक होता है। यह तीव्र विरेचक तथा मरोड़ उत्पन्न
करने वाला होता है ऐसे में दुर्बल व्यक्ति को इसे नहीं देना चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में कभी से लोग अपने पेट के रोगों को दूर करने के लिए
फांकी बनाते आ रहे हैं वहीं पशुओं के विभिन्न रोगों को दूर करने के लिए काम
में लेते आ रहे हैं।
रासायनिक
दृष्टि से गडूंबा में ऐल्कलाड तथा कोलोसिंथिन नामक एक ग्लूकोसाइड पाए जाते
हैं। इससे ज्वर उतरता है। इसका उपयोग तीव्र कोष्ठबद्धता, जलोदर,
ऋतुस्त्राव तथा गर्भस्राव में भी किया जाता है।
लाल इंद्रायन की बेल बहुत लबी तथा पत्ते दो से छह इंच
के व्यास के, फूल नर और मादा तथा श्वेत रंग के, फल कच्ची अवस्था में
नारंगी रंग के, किंतु पकने पर लाल तथा 10 नांरगी धारियों वाले होते हैं। फल
का गूदा हरापन लिए काला होता है तथा फल में बहुत से बीज होते
हैं। इस पौधे की जड़ बहुत गहराई तक जाती है और इसमें गांठें होती हैं। इसे
श्वास और फुफ्फुस के रोगों में लाभदायक कहा बताया गया है।
जंगलों
में भी एक इंद्रायन मिलती है जिसे छोटी इंद्रायन को लैटिन में क्यूक्युमिस
ट्रिगोनस कहते हैं। इसकी बेल और फल छोटे होते हैं। इसके फल में भी
कॉलोसिंथिन से मिलते
जुलते तत्व होते हैं। इसका हरा फल स्वाद में कड़वा, अग्निवर्धक, स्वाद को
सुधारने वाला तथा कफ और पित्त के दोषों को दूर करने वाला बताया गया है।
रेगिस्तान में बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह गठिया मासिक धर्म, गर्भधारण, बालों की सुंदरता पेशाब
की जलन, पेट दर्द, खांसी, श्वास, सिर दर्द, योनि रोग, मिर्गी, जलोदर कारण
रोग, गांठ, बच्चों के रोग, महामारी, फोड़ा फुंसी, घाव, उपदंश, सांप के
काटने, बिच्छू के जहर, सूजन, मस्तक पीड़ा, दंत कृमि, सफेद बाल, बहरापन आदि
बीमारियों के काम में लाया जाता है। यह बहु औषधीय पौधा है। इस पौधे की 3 प्रजातियां पाई जाती है।
इंद्रायन
छोटी, बड़ी और लाल इंद्राय नाम से जाना जाता है। इंद्रायणी के बीजों में
तेल पाया जाता है। इंद्रायन की कली में एक तरह का गोंद जैसे पदार्थ पाया
जाता है। यह कई दवाओं में काम आता है। इंद्रायण का अधिक प्रयोग करने से कुछ स्थितियों में बचना चाहिए। यह बच्चों में, स्त्रियों में और गर्भवती स्त्रियों में नुकसानदायक साबित होता है।
इंद्रायन पशुओं में भी उतना ही लाभप्रद है जितना मानव के लिए लाभप्रद है। ग्रामीण क्षेत्रों में कभी से फांकी
बनाई जाती है और प्रयोग की जाती है। यह माना जाता है कि जब किसी रोगी को
इनके फलों को अच्छी तरह पैरों से कुचलने दिया जाए और उसका मुंह कड़वा हो
जाए तो उसके रोग दूर हो जाते हैं। यह पशुओं को पेट की बीमारियां दूर करने
के लिए ग्रामीण क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है। ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पशुओं को चारे में देते हैं ताकि उनको किसी प्रकार की
दिक्कत ना आए।
**होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़, हरियाणा***
गरबूंदा(इंद्रायण)
(सिट्रूलस कोलोसाइंथिस)
रेतीली भूमि पर पैदा हो
तरबूज, मतीरा जैसा फल
इंद्रायण, कड़वा खीरा भी
नाम इसी के सीधे सरल,
एशिया की उपज बेहतर
जड़, बीज, फल उपयोगी
प्रोटीन, फैट से भरे हुए हैं
रोग दूर हो खाए गर रोगी,
बेल जाति का पौधा होता
वटामिन व लवण मिलते
गर्मी को सहन कर सकता
इस पर पीले फूल खिलते,
फल होता है अति कड़वा
पशुओं के पेट रोग दूर करे
जन के पेट में अगर दर्द हो
इसकी फांकी लेने से न डरे,
अनेक औषधियां इससे बने
सांप,बिच्छू काटे में उपयोगी
बदहजमी को दूर करता यह
उपयोगी है अगर खाए रोगी,
अमाशय में हाता जब कैंसर
या फिर ब्रेस्ट कैंसर का रोग
शुगर मरीज के लिए औषधी
ल्युकिमिया में करते उपभोग,
महिलाओं में बिगड़ माहवारी
या फिर पेट में हो गैस बीमारी
मूत्र नली को रखता यह साफ
कट जाए रोग यह दुआ हमारी,
गर्भवती को नहीं लेना चाहिए
बच्चे और कमजोर भी न लेना
जंगल में यह खूब मिलता था
मिले कहीं तो रोगी को दे देना।।
*******होशियार सिंह, लेखक, कनीना***
बथुआ
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चिनोपोडियम एलबम
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बथुआ वास्तव में गर्मी और सर्दी दोनों में होता है। गर्मियों का बथुआ लंबा होता है ऊंचाई 20 फुट तक पहुंच जाती है। गर्मियों में जो बथुआ होता है उसके पत्ते भी चौड़े होते हैं लंबाई बहुत अधिक होती है। यद्यपि यह एक शाक है फिर भी बहुत बढ़ जाता है। कनीना जिला महेंद्रगढ़ हरियाणा में खुद लेखक के घर में प्रतिवर्ष 20 फुट तक पहुंचे जाता है हाल ही में इसकी ऊंचाई 18 फुट से अधिक पहुंच चुकी है। उसके पत्ते सब्जी में बेहतर होते हैं यद्यपि गर्मियों बथुआ लोग नहीं खाते। क्योंकि की तासीर गर्म होने के कारण पसंद नहीं करते। बाकी बथुआ शरीर के लिए बहुत जरूरी है। ऐसे में अक्सर लोग सर्दियों में बथुआ लोग पसंद करते हैं।
खरपतवार हरी सब्जियों को देता है मात--
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बथुआ एक खरपतवार होते हुए हरी सब्जियों को मात दे रही है। एक ओर जहां बाजार में पालक, धनियां एवं मेथी आ रहे किंतु उनको मात देने में बथुआ अग्रणी है। खेतों में खरपतवार के रूप में उगने वाले बाथू को सब्जी के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। बाथू गुणकारी औषधि के रूप में जानी जाती है।
किसान राजेंद्र सिंह, सूबे सिंह यादव, अजीत कुमार कनीना बताते हैं कि बाथू शाक सब्जी बनाने के काम है वहीं पशुओं के लिए भी उत्तम हरे चारे का काम करता है। सर्दियों में रबी फसल के साथ उगता है और आयुर्वेद में कई गुणों की खान व औषधियों में काम में लाया जाता है।
किसानों ने बताया बाथू का किसी जमाने में गरीब तबके के लोग ही प्रयोग में लाते थे जो महंगी बाजार की सब्जी खरीदने में असमर्थ थे किंतु आजकल बदलाव आ गया है और अमीर एवं रोगी जनों के लिए रामबाण दवा का काम कर रहा है विशेषकर पेट की बीमारी एवं रक्ताल्पता के शिकार पसंद करते हैं। उनका कहना है कि जब बाजार में अन्य सब्जियों आसमान छू रही है तो ऐसे में बाथू ही गुणकारी सब्जी का काम करेगा।
गृहणि रामा, आशा, संतरा आदि ने बताया कि बथुआ रायता, देसी सब्जी बनाने में प्रयोग कर रहे हैं वहीं आटे में मिलाकर रोटियां व पराठे भी बना रहे हैं।
बाथू आजकल किसानों के लिए आय का साधन बनता जा रहा है। अमीर जन इसे बाजार से खरीद कर लाते हैं और बड़े ही चाव से खाते हैं और बीते जमाने की गरीबों की सब्जी अब अमीरों का भोजन बनती जा रही है। बाजार में किसान इसे उखाड़कर बेच रहे हैं और आमदनी कर रहे हैं। एक ओर जहां सब्जी महंगी हो रही हैं और हरी सब्जियां तो आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती हैं।
वैद्य श्रीकिशन एवं बालकिशन ने बताया कि बथुआ गर्भवती महिला को छोड़कर सभी को खिलाया जा सकता है। पेट की बीमारियों एवं खून की कमी को छटपट पूरा करता है। उन्होंने बताया कि इसे किसी भी रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
हरी सब्जी का विकल्प बथुआ हो रहा है प्रयोग
**************************** सर्दियों में सब्जी महंगी होने के कारण किसान वर्ग न केवल खेतों में खरपतवार के रूप में उगने वाले बाथू को सब्जी के रूप में प्रयोग करते हैं वहीं खेतों से उखाड़कर दूसरों को भी खाने की प्रेरणा देते हैं। बाथू गुणकारी औषधि के रूप में जानी जाती है।
उल्लेखनीय है कि बाथू मानव के काम तो आता है वहीं पशुओं के लिए भी उत्तम हरे चारे का काम करता है। सर्दियों में रबी फसल के साथ अपने आप उगने वाले इस हरे भरे शाक को ग्रामीण परिवेश के लोग बाथू,बथुआ या हरा नाम से पुकारते हैं जिसे आयुर्वेद में कई गुणों की खान व औषधियों में काम में लाया जाता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे चिनोपाडियम कहते हैं।
किसान सूबे सिंह, राजेंद्र सिंह योगेश कुमार ने बताया बाथू का किसी जमाने में गरीब तबके के लोग ही प्रयोग में लाते थे जो महंगी बाजार की सब्जी खरीदने में असमर्थ थे किंतु आजकल बदलाव आ गया है और अमीर एवं रोगी जनों के लिए रामबाण दवा का काम कर रहा है विशेषकर पेट की बीमारी एवं एनिमिया के शिकार इसे ढूंढते फिरते हैं। उनका कहना है कि जब बाजार में अन्य सब्जियां महंगी हो रही है तो ऐसे में बाथू ही गुणकारी सब्जी का काम करेगा। ये किसान स्वयं भी इसे प्रयोग कर रहे हैं और दूसरों को भी इसे खाने की सलाह दे रहे हैं।
किसानों ने बताया कि वे इसे रायता, देसी सब्जी बनाने में प्रयोग कर रहे हैं वहीं आटे में मिलाकर रोटियां बना रहे हैं वहीं इससे जायकेदार पराठे भी बना रहे हैं। ये व्यंजन उनको बहुत अधिक भा रहे हैं। यही नहीं अपितु वे सरसों का साग व अन्य खेतों में पाई जाने वाली हरी सब्जियां प्रयोग में ला रहे हैं। खरपतवार के रुप में अपने आप खेतों में उगने वाला 'बाथूÓ ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण शाक माना जाता है। कई रूपों में मानव के काम आता है वहीं पशुओं के लिए भी उत्तम हरे चारे का काम करता है। सर्दियों में फसल के साथ अपने आप उगने वाले इस हरे भरे शाक को ग्रामीण परिवेश के लोग बाथू,बथुआ या हरा नाम से पुकारते हैं।
बाथू आजकल किसानों के लिए आय का साधन बनता जा रहा है। इसके गुणों को देखते हुए अमीर जन इसे बाजार से खरीद कर लाते हैं और बड़े ही चाव से खाते हैं जिससे सिद्ध होता है कि बीते जमाने की गरीबों की सब्जी अब अमीरों का भोजन बनती जा रही है। बाजार में किसान इसे उखाड़कर बेच रहे हैं और आमदनी कर रहे हैं। एक ओर जहां सब्जी महंगी हो रही हैं और हरी सब्जियां तो आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। ऐसे में बथुआ किसानों के लिए ही नहीं अपितु आम जन के लिए मुफ्त की हरी सब्जी बन गयी है।
सर्दियों का बथुआ-----
कभी-कभी
किसानों के खेतों में उगने वाली खरपतवार ही किसानों के लिए लाभप्रद साबित
हो जाती है जिसे न केवल किसान अपने पशुओं के चारे के रूप में अपितु सब्जी
के रूप में भी प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की खरपतवार बाजार में सब्जी के
स्थान पर भी अपना स्थान बना लेती है और लोग जीवन भर उसका स्वाद लेते हैं।
ऐसी ही एक खरपतवार दक्षिणी हरियाणा में बहुतायत में होती है जिसे बथुआ नाम से जाना जाता है।
दक्षिण हरियाणा के खेतों में अब बाथू नामक खरपतवार को भोजन के रूप में
प्रयोग करने का रिवाज बढ़ता ही जा रहा है। सब्जी के रूप में यह पौधा बेहद
पसंद किया जाता है। खेतों में भारी मात्रा में खड़े देखे जा सकते हैं।
किसान अपने पशुओं का पेट भरने के अलावा इसे हरी पत्तेदार सब्जी के रूप में
पसंद करने लगे हैं।
खरपतवार
के रूप में अपने आप खेतों में उगने वाला 'बाथू ग्रामीण क्षेत्रों में
महत्वपूर्ण शाक माना जाता है। कई रूपों में मानव के काम आता है वहीं पशुओं
के लिए भी उत्तम हरे चारे का काम करता है। सर्दियों में फसल के साथ अपने आप
उगने वाले इस हरे भरे शाक को ग्रामीण परिवेश के लोग बाथू,बथुआ या हरा नाम
से पुकारते हैं जिसे आयुर्वेद में कई गुणों की खान व औषधियों में काम में लाया जाता है।
बाथू
का किसी जमाने में गरीब तबके के लोग ही प्रयोग में लाते थे जो महंगी बाजार
की सब्जी खरीदने में असमर्थ थे किंतु आजकल बदलाव आ गया है और अमीर एवं
रोगी जनों के लिए रामबाण दवा का काम कर रहा है विशेषकर पेट की बीमारी एवं
एनिमिया के शिकार इसे ढूंढते फिरते हैं। किसानों के लिए विशेषकर दक्षिण
हरियाणा के किसानों के लिए बाथू एवं खरथू सिरदर्द बन जाते हैं।
कीटनाशकों के प्रयोग तथा आधुनिक कृषि के यंत्रों द्वारा जुताई के चलते
बाथू की मात्रा कम होती जा रही है। दिसंबर से जनवरी माह में किसान
खेतों में निराई करते हैं और इस शाक को उखाड़ फेंकते हैं क्योंकि यह
पैदावार में बाधक बन जाता है। डाक्टर और हकीम इसे खून की कमी वाले
व्यक्तियों और रक्त शोधक के रूप में उपयोग करने की सलाह देते हैं। इसके
पत्ते गहरे हरे तथा टहनियां भी हरी होती हैं। इसके पत्तों और टहनियों पर
सदा सफेद रंग का पाउडर पाया जाता है जिसके चलते इसे एलबम नाम से जाना जाता
है। इसे 'चिनोपोडियम एलबम वैज्ञानिक नाम से जाना जाता है।
किसान
निराई के वक्त खेतों से उखाड़कर घर लाते हैं और इससे रायता,भाजी तथा देशी
तरकारी बनाने के काम में लेते हैं। जायकेदार परांठें भी खाए जाते हैं।
बूढ़े-बुजुर्ग बथुआ के रायते को बेहद पसंद करते हैं वही भाजी एवं देशी
सब्जियां जायकेदार होती हैं। बाथू को उबालकर इसके निचोड़े हुए पानी को आटा
गूंथने में काम
में लेते हैं। इसी जल से स्नान करने से शरीर में चमक भी आती है और बाल
कोमल बनाने के रूप में भी प्रयोग करते हैं। कच्चे व पकाकर खाना दोनों ही
रूपों में यह लाभकारी माना जाता है। यही कारण है कि शहरों में हाटों पर
बिकता है। पेट की कितनी ही बीमारियां इसके नियमित कुछ दिनों तक प्रयोग करने
से समाप्त हो जाती हैं। यही कारण है कि बाथू को ग्रामीण क्षेत्रों का
अमूल्य उपहार माना जाता है।
बाथू जब बड़ा हो जाता है तो
उत्तम पशु आहार बन जाता है। इसे चारे के रुप में काम में लेते हैं। ग्रामीण
परिवेश में इसे हरा नाम से जाना जाता है। दुधारू पशुओं के लिए बाथू हरे
चारे के रूप में काम में लाया जाता है। बाथू में लोह,विटामिन बी एवं
सी,कैरोटीन तथा खनिज लवणों की भारी मात्रा पाई जाती है। यही कारण है कि कुछ
रोगों के इलाज में कारगर सिद्ध होता है विशेषकर शरीर
के हुकवॉर्म समाप्त करने के काम आता है। जब बदहजमी का रोग हो जाए तो इसका
उपयोग लाभप्रद होता है। बाथू के परांठें एवं रोटियां आजकल अति प्रसिद्ध
होती हैं। डाक्टर तथा वैद्य इसे बगैर निचोड़े ही प्रयोग करने की सलाह देते
हैं। किसान के खेतों में उगने वाली अनेकों खरपतवारों में बाथू का नाम ही
सर्वोपरि होता है जो भोजन का अंग बन चुका है।
बाथू आजकल किसानों के लिए आय का साधन बनता जा रहा है। इसके गुणों को देखते
हुए अमीर जन इसे बाजार से खरीद कर लाते हैं और बड़े ही चाव से खाते हैं
जिससे सिद्ध होता है कि बीते जमाने की गरीबों की सब्जी अब अमीरों का भोजन
बनती जा रही है। बाजार में किसान इसे उखाड़कर बेच रहे हैं और आमदनी कर रहे
हैं।
सब्जी महंगी होने के कारण किसान वर्ग न केवल खेतों
में खरपतवार के रूप में उगने वाले बाथू को सब्जी के रूप में प्रयोग कर रहे
हैं वहीं खेतों से उखाड़कर दूसरों को भी खाने की प्रेरणा दे रहे हैं। बाथू
गुणकारी औषधि के रूप में जानी जाती है।
उल्लेखनीय है कि बाथू मानव के
काम तो आता है वहीं पशुओं के लिए भी उत्तम हरे चारे का काम करता है।
सर्दियों में रबी फसल के साथ अपने आप उगने वाले इस हरे भरे शाक को ग्रामीण परिवेश के लोग बाथू, बथुआ या हरा नाम से पुकारते हैं जिसे आयुर्वेद में कई गुणों की खान व औषधियों में काम में लाया जाता है।
किसानों
का कहना है कि बाथू का किसी जमाने में गरीब तबके के लोग ही प्रयोग में
लाते थे जो महंगी बाजार की सब्जी खरीदने में असमर्थ थे किंतु आजकल बदलाव आ
गया है और अमीर एवं रोगी जनों के लिए रामबाण
दवा का काम कर रहा है विशेषकर पेट की बीमारी एवं रक्त की कमी(एनीमिया)के
शिकार इसे ढूंढते फिरते हैं। उनका कहना है कि जब बाजार में अन्य सब्जियों
आसमान छू रही है तो ऐसे में बाथू ही गुणकारी सब्जी का काम करेगा। ये किसान
स्वयं भी इसे प्रयोग कर रहे हैं और दूसरों को भी इसे खाने की सलाह दे रहे
हैं।
किसानों
ने बताया कि वे इसे रायता, देसी सब्जी बनाने में प्रयोग कर रहे हैं वहीं
आटे में मिलाकर रोटियां बना रहे हैं वहीं इससे जायकेदार पराठे भी बना रहे
हैं। ये व्यंजन उनको बहुत अधिक भा रहे हैं। यही नहीं अपितु वे सरसों का साग
व अन्य खेतों में पाई जाने वाली हरी सब्जियां प्रयोग में ला रहे हैं।
खून की सभी प्रकार की बीमारियों एवं खून की कमी वालों
के लिए बाथू गुणकारी है। इसके नियमित रूप से प्रयोग करने से पेट की
बीमारियां भी दूर हो जाती हैं। ऐसे में किसान एवं सभी लोगों को खेतों की इस
खरपतवार का उपयोग विभिन्न रूपों में करना चाहिए।
खरपतवार के रूप में अपने आप खेतों में उगने वाला 'बाथू ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण शाक माना जाता है। कई
रूपों में मानव के काम आता है वहीं पशुओं के लिए भी उत्तम हरे चारे का काम
करता है। सर्दियों में फसल के साथ अपने आप उगने वाले इस हरे भरे शाक को
ग्रामीण परिवेश के लोग बाथू, बथुआ या हरा नाम से पुकारते हैं जिसे
आयुर्वेद में कई गुणों की खान व औषधियों में काम में लाया जाता है।
बाथू का किसी जमाने में गरीब तबके के लोग ही प्रयोग
में लाते थे जो महंगी बाजार की सब्जी खरीदने में असमर्थ थे किंतु आजकल
बदलाव आ गया है और अमीर एवं रोगी जनों के लिए रामबाण दवा का काम कर रहा है
विशेषकर पेट की बीमारी एवं एनीमिया के शिकार इसे ढूंढते फिरते हैं। किसानों
के लिए विशेषकर दक्षिण हरियाणा के किसानों के लिए बाथू एवं खरथू सिरदर्द
बन जाते हैं। कीटनाशकों के प्रयोग तथा आधुनिक कृषि के यंत्रों द्वारा
जुताई के चलते बाथू की मात्रा कम होती जा रही है। दिसंबर से जनवरी माह में
किसान खेतों में निराई करते हैं और इस शाक को उखाड़ फेंकते हैं क्योंकि यह
पैदावार में बाधक बन जाता है। डाक्टर और हकीम इसे खून की कमी वाले
व्यक्तियों और
रक्त शोधक के रूप में उपयोग करने की सलाह देते हैं। इसके पत्ते गहरे हरे
तथा टहनियां भी हरी होती हैं। इसके पत्तों और टहनियों पर सदा सफेद रंग का
पाउडर पाया जाता है जिसके चलते इसे एलबम नाम से जाना जाता है। इसे
'चिनोपोडियम एलबम वैज्ञानिक नाम से जाना जाता है।
किसान निराई के वक्त खेतों से उखाड़कर घर लाते हैं और इससे रायता,भाजी तथा
देशी तरकारी बनाने के काम में लेते हैं। जायकेदार परांठे भी खाए जाते हैं।
बूढ़े-बुजुर्ग बथुआ के रायते को बेहद पसंद करते हैं वही भाजी एवं देशी
सब्जियां जायकेदार होती हैं। बाथू को उबालकर इसके निचोड़े हुए पानी को आटा
गुथने में काम में लेते हैं। इसी जल से स्नान करने से शरीर में चमक
भी आती है और बाल कोमल बनाने के रूप में भी प्रयोग करते हैं। कच्चे व
पकाकर खाना दोनों ही रूपों में यह लाभकारी माना जाता है। यही कारण है कि
शहरों में हाटों पर बिकता है। पेट की कितनी ही बीमारियां इसके नियमित कुछ
दिनों तक प्रयोग करने से समाप्त हो जाती हैं। यही कारण है कि बाथू को
ग्रामीण क्षेत्रों का अमूल्य उपहार माना जाता है।
बाथू
जब बड़ा हो जाता है तो उत्तम पशु आहार बन जाता है। इसे चारे के रूप में
काम में लेते हैं। ग्रामीण परिवेश में इसे हरा नाम से जाना जाता है। दुधारू
पशुओं के लिए बाथू हरे चारे के रूप में काम में लाया जाता है। बाथू में
लोह,विटामिन बी एवं सी,कैरोटीन तथा खनिज लवणों की भारी मात्रा पाई जाती है।
यही कारण है कि कुछ रोगों के इलाज में कारगर सिद्ध होता है विशेषकर शरीर के हुकवोर्म समाप्त करने के काम आता है। जब बदहजमी
का रोग हो जाए तो इसका उपयोग लाभप्रद होता है। बाथू के परांठे एवं रोटियां
आजकल अति प्रसिद्ध होती हैं। डाक्टर तथा वैद्य इसे बगैर निचोड़े ही प्रयोग
करने की सलाह देते हैं। किसान के खेतों में उगने वाली अनेकों खरपतवारों
में बाथू का नाम ही सर्वोपरि होता है जो भोजन का अंग बन चुका है।
बाथू आजकल किसानों के लिए आय का साधन बनता जा रहा है। इसके गुणों को देखते
हुए अमीर जन इसे बाजार से खरीद कर लाते हैं और बड़े ही चाव से खाते हैं
जिससे सिद्ध होता है कि बीते जमाने की गरीबों की सब्जी अब अमीरों का भोजन
बनती जा रही है। बाजार में किसान इसे उखाड़कर बेच रहे हैं और आमदनी कर रहे
हैं।
ग्रामीण ही नहीं अपितु शहरी क्षेत्रों में बथुआ को कई रूपों में प्रयोग किया जा रहा है। कुछेक पकवान, सब्जी निम्र बनाए जाते हैं-
परांठे-बथुआ को कच्चा ही काटकर आटे में मिलाकर परांठे बनाकर बड़े चाव से खाए जाते हैं। देसी घी में बनाए गए परांठे बथुआ की भाजी के संग खाने का लुत्फ ही अलग है।
भाजी-बारीक काटकर बथुआ को पहले उबाला जाता है और इसे निचोड़कर भाजी बनाई जाती है। निचोड़ा हुआ बथुआ जल आटा गुथने के काम आता है।
रायता-बथुआ काटकर, उबालकर, निचोड़कर दही या छाछ में डालकर व उसमें मसाले डालकर बेहतर एवं पौष्टिक रायता बनाया जाता है।
सब्जी-बथुआ को दाल में डालकर, आलू के संग तथा कई अन्य सब्जियों में मिलाकर पकाकर खाया जाता है।
बथुआ
के कई अन्य उपयोग भी हैं। रक्त की कमी को झटपट दूर करता है। पालक की भांति
इसमें भी पौष्टिक गुण होते हैं। न केवल इंसान के लिए अपितु किसान के पशुओं
के लिए भी उत्तम चारा बनता है। जो किसान अपने घर में पालक का प्रयोग नहीं
कर पाता है वह बथुआ प्रयोग कर सकता है।
**होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**
बथुआ
बथुआ
एक शाक है जिसमें विटामिन ए की अत्यधिक मात्रा पाई जाती है। बथुआ एक रबी
फसल के साथ उगने वाला शाक है जिसे चिनोपोडियम एल्बम नाम से जाना जाता है।
यह देखने में एक छोटा हरा पौधा दिखता है किंतु अति लाभकारी और बीमारियों
को दूर करता है। इसे चील भी का कहते हैं। बथुआ साग एवं सब्जी दोनों रूपों
में प्रयोग किया जाता है। इसकी पत्तियों में सुगंधित तेल, पोटाश तथा उपयोगी
पदार्थ पाए जाते जो वात, पित्त और कफ रोगों को शांत करते हैं। पेट के
कीड़ों का नाश करता है। आंखों की रोशनी बढ़ाता है। पाचन शक्ति लाभकारी है।
भोजन में रूचि बढ़ाने वाला, कब्ज मिटाने वाला यह हरे रंग का होता है किंतु
लाल रंग का भी मिलता है। पेशाब की तकलीफ है अथवा कम आता है तो है यह
लाभकारी है। गुर्दे संबंधित बीमारियों में लाभकारी है। पीलिया नामक रोग
खत्म कर देता है। बुखार के बाद कमजोरी में इसका साग खाना लाभप्रद माना जाता
है। ग्रामीण क्षेत्रों में खेतों में पर्याप्त मात्रा में इस समय उपलब्ध
है। इसे अब तो सब्जी की दुकानों पर भी देखा जा सकता है।
यह
एक खरपतवार है। कनीना जिला महेंद्रगढ़, हरियाणा में लेखिका आशा यादव के घर
में विगत चार वर्षों से हर वर्ष 18 से 20 फुट का बथुआ मिलता है जो लोगों
को चकित कर देता है।
***होशियार सिंह, लेखक,कनीना,हरियाणा**
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Bathua |
बथुआ या बाथू
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चिनोपोडियम एल्बम
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रबी फसल जब बोई जाए
बथुआ खुद उसमें उग जाए
बथुआ खरपतवार कहलाए
किसान उखाड़कर दूर गिराए,
आलगुड, गूजफूट, पिगविवड
बाथू, हरा, कई नाम कहलाए
पशुचारे में यह अति उपयोगी
जन कच्चा और पकाकर खाए,
अति उपयोगी यह एक शाक
पर गर्भवती का गर्भ गिर जाए
हर जन खाए चाव से इसे खाए
परंतु गर्भवती महिला नहीं खाए
मिलते हैं कितने ही विटामिन
कैल्शियम, फास्फोरस, पोटाश
आक्जालिक अमल का हैं स्रोत
ग्रामीण लोगों का भोजन खास,
गुर्दे की पत्थरी को कर देता दूर
सूजन अगर हो तो इसे लगाए
पीलिया रोग को झटपट भगाए
खून की कमी हो तो इसे खाए,
रक्त शुद्धता का यह एक टोनिक
नाइट्रोजन युक्त भूमि पर मिलता
पौधा दस हजार तक बीज देता
बीज भी दवाओं में काम आए,
रायता एवं साग इससे ही बनाते
अनियमित मासिक धर्म करे सही
भाजी व परांठे इससे जन बनाते
बुजुर्गों ने सभी को यह बात कही,
जंगल में उगता पर्याप्त मात्रा में
किसान ने इसका किया विनाश
हरे भरे पत्तों का कहलाता शाक
पशु और जन इसका बनता दास,
पेट की बीमारियों में काम आता
पूर ही विश्व में बथुआ पाया जाता
किसान खेत में निराई करने जाता
ला घर इसके बना सब्जी खााता,
गर्मी और सर्दी के अलग-अलग
बथुआ हर मौसम में अब मिलता
गहरे हरे रंग के पत्तों वाला शाक
चमकीले पत्तों से जग ही महकता।
*****होशियार सिंह, लेखक, कनीना**
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Bathua |
चौलाई
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अमरेंथस विर्डिज
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राजगिरी/रामदाना
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चौलाई एक बेहतर साग होता है। वास्तव
में
यह चौलाई एक शाक के रूप में मिलती है। इसे अंग्रेजी में अमारंथूस कहते
हैं। यह पूरे संसार में पाई जाती है। इसकी अब तक करीब 60 प्रजातियों की
पहचान की जा चुकी है।
जहां
छोटे पत्तों की, कांटो वाली, बड़े पत्तों की, बैंगनी फूलों वाली, लाल फूल
वाली कई रंगों में मिलती है। गर्मी और बरसात के मौसम में चौलाई हरी सब्जी
के रूप में काम में लाई जाती है। आमतौर पर साग और पत्तेदार सब्जियां बनाने
के काम में लाया जाता है।
इस
पौधे को गर्मी तथा वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है। चौलाई का सेवन
जहां भाजी के रूप में किया जाता है जो विटामिन-सी से लबालब होती है। इनमें
अनेकों औषधीय गुण पाए जाते हैं।
आयुर्वेद
के अनुसार शरीर के कई रोगों में लाभकारी है। लाल चौलाई में जहां सोना धातु
के कण पाए जाते है जो अन्य साग सब्जी हो नहीं पाया जाता। चौलाई के सभी भाग
अर्थात जड़, तना, फूल, पत्ते, फल काम में लाए जाते हैं।
उनकी पत्तियों में जहां प्रोटीन विटामिन-ए, सी तथा खनिज लवण पाए जाते हैं।
लाल
चौलाई खून की कमी को दूर करती है। पेट के रोगों बहुत लाभप्रद है। इसमें
रेशे पाए जाते हैं आंतों से चिपके हुए मला को बाहर निकालने में मदद करते
हैं तथा कब्ज को दूर कर देते हैं।
इसके
उपयोग से पाचन संस्थान को शक्ति मिलती है। जब छोटे बच्चों में कब्ज हो
जाती है तो चौलाई के पत्तों का रस दिया जाता है। जन्म के बाद दूध पिलाने
वाली माताओं
के लिए बहुत उपयोगी है। इसकी जड़ पीसकर मांड एवं शहद में मिलाकर पीने से
श्वेत प्रदर रोग ठीक होते हैं। इसलिए महिलाओं के लिए यह रामबाण औषधी है। यह भी माना जाता है कि जिन महिलाओं में बार बार गर्भपात होता है उनको इसका उपयोग करना चाहिए।
अनेकों
प्रकार के विष जैसे चूहे, बिच्छू आदि का चौलाई द्वारा दूर किया जा सकता
है। चौलाई का नित्य सेवन करने से अनेक विकार दूर होते हैं। जहां छोटी पत्ते
की चौड़ाई, बड़ी पत्ते की चौलाई, लाल चौलाई, मोरपंखी अनेकों प्रकार
प्रजातियां मिलती हैं। यहां तक कि जंगलों में मिलने वाली कांटेदार चौलाई
बहुत भारी मात्रा में फैलती है।
हर
प्रकार की चौलाई कुछ काम आती है। ग्रामीण क्षेत्रों में जंगली चौलाई जिसे
अमारंथूस विरिडिज नाम से जाना जाता है जिसके पत्ते पकाकर खाए जाते हैं जो
पाचन तंत्र की कमियों को दूर करते हैं। अमारंथूस स्पाइनोसस
एक चौलाई का प्रकार है जिसे कंटीली चौलाई कहते हैं। जो लीवर, मूत्र तंत्र
में विकारों को दूर करने के काम आती है वही घाव को भरने, जले हुए की जलन दूर करने के काम आती है।
जोड़ों
में दर्द सूजन आता है उन पर भी इसका लेप किया जाता है। खांसी, दमा दूर
करने के लिए इसकी कलियां काम में लाई जाती है। इस पौधे के जड़ों पर छाल को पीसकर
मलेरिया रोग में काम में लाया जाता है। यहां तक कि इसके पत्ते सरसों के
तेल में गर्म करके घाव एवं चोट के दर्द आदि को दूर करने के लिए काम में
लाया जाता है।
चौलाई की खेती भी की जाती है और किसान भी इसको उगा कर बाजार में बेचकर मुनाफा कमाते हैं।
चुौलाई
को कच्चे रूप में नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें आक्जलेट और नाइट्रेट पाए
जाते हैं जिन्हें उबालकर ही दूर किया जा सकता है। चौलाई में विटामिन और
खनिज पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। चौलाई जहां आंखों की रोशनी बढ़ाती
हैं वही चौलाई हड्डियों को मजबूत करने, बालों के लिए लाभप्रद, वजन कम
करने, मधुमेह और प्रोटीन का अच्छा स्रोत है। सूजन में भी चौलाई काम आती
है। कोलेस्ट्रोल कम करती है, रक्ताल्पता की बीमारी को तुरंत दूर करती है।
यही नहीं चौलाई के अनेकों लाभ है लेकिन शरीर में कुछ नुकसान भी करती है
खासकर छोटे बच्चे चौलाई में पाए जाने वाले प्रोटीन को सहन नहीं कर सकते
इसलिए पेट दर्द का कारण बनते हैं। इसी प्रकार कैल्शियम अवशोषण को भी बढ़ाता
है यह पशु रोगों में भी उतनी ही कारगर है जितनी इंसानों में। पशुओं के रोग
विशेषकर कब्ज, शारीरिक विकारों में लाभप्रद है।
ग्रामीण
क्षेत्रों में इससे खाटा का साग,कढ़ी तथा विभिन्न सब्जियों में प्रयोग में
लाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्ध साग बनता है। यहां तक
कि इनको भाजी बनाने के काम में भी लेते हैं। श्वास संबंधी समस्या, पाचन तंत्र संबंधी समस्या भी यह लाभप्रद है। जन को इसका उपयोग जरूर करना चाहिए।
चौलाई को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार के पौधों को खा लेते हैं। वास्तव में जंगली चौलाई, चौलावा, हरी पत्तेदार कोहेंद्रा आदि को भी लोग चौलाई समझ कर खा लेते हैं इनमें अंतर नहीं जानते। यद्यपि उनके खाने से कोई नुकसान नहीं हो सकता किंतु चौलाई का ज्ञान हो तो ज्यादा बेहतर होगा। बाजार में चौलाई के बीज मिलते हैं जो वास्तव में बड़े पत्तों की चौलाई की एक प्रकार है। ग्रामीण क्षेत्रों में जहां चौलावा बारिश के बाद स्वयं उग जाता है उन्हें भी लोग चौलाई के रूप में प्रयोग करते हैं।
एक बार मैं एक बड़े शहर में चला गया जहां कुछ दिन रुकना था। मेरे परिचित ने मुझसे कहा-आज आपको चौलाई का साग खिलाते हैं। मुझे खुशी हुई कि चलो जीवन भर चौलाई खाई है किंतु शहर की चौलाई भी कभी खाकर देखे। बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्होंने मुझे चौलाई दिखाई। ग्रामीण लोग पशुओं को चराते हैं जिसे कांटेदार चौलाई/जंगली चौलाई कहते हैं उसे ही चाव से खाने को मजबूर हैं।
चौलाई एक छोटे पत्तों वाला पौधा है जो जबकि कांटेदार चौलाई अर्थात चौलावा बड़े पत्तों वाला एक पौधा होता है। दोनों के बीच की एक और प्रकार बाजार में बीज के रूप में उपलब्ध होती है जिसे शहरी लोग बड़े चाव से खाते हैं। चौलाई भारत के हरियाणा क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में मिलती है। चौलई केवल बरसात के मौसम में ही उगती है और अपने आप बढ़ोतरी कर जाती है। यहां तक कि कई बार बहुत अधिक मात्रा में किसी जगह चौलाई खड़ी देखी जा सकती है। चौलाई हर रूप में लाभप्रद है। लोग इसे देसी सब्जी जैसे खाटा का साग एवं कढ़ी आदि में डालते हैं वहीं कुछ लोग इससे भाजी भी बनाकर खाते हैं। पराठे बनाकर खाने में भी लुत्फ उठाते हैं वही चौलाई को विभिन्न रूपों में प्रयोग करके खुशी का एहसास होता है। यद्यपि आधुनिक सभ्यता चौलाई से दूर भागती है किंतु सेहत की दृष्टि से चौलाई बहुत अधिक लाभप्रद है। एनीमिया की शिकार, खून की कमी, किसी काम में रुचि न होना, चेहरा पीला पडऩा सभी एनीमिया जैसे लक्षण हो सकते हैं। ऐसे व्यक्ति को अधिक से अधिक हरी पत्तेदार सब्जियां जिन में चौलाई आदि शामिल हो खिलानी चाहिए जिससे लोग आसानी से दूर हो सकता है। जिससे कामों में रुचि बढ़ेगी।
चौलाई ग्रामीण क्षेत्रों के लोग तो बहुत समय से प्रयोग करते आ रहे हैं। बारिश होती है तो जंगलों में अपने आप उग जाती है। अब जब जंगल ही समाप्त हो गए इसलिए चौलाई अपने आप ही समाप्त होती जा रही है। चौलाई वास्तव में एक हरी पत्तेदार सब्जी है और इसका प्रयोग जरूर करने का प्रयास करना चाहिए।
***होशियार सिंह, लेखक, कनीना, महेंद्रगढ़ हरियाणा***
चौलाई
खेत की एक खरपतवार
बारिश में पैदा हो हजार
अमरंथस नाम से जानते
बीमारों को इससे प्यार,
प्राचीन समय से पैदा हो
जंगल में पैदा हो आप
रामदाना इसे कहते सभी
प्रोटीन का अच्छा आधार,
गेहूं से जब होती एलर्जी
उस वक्त चौलाई रामबाण
सब्जी बेहतर हरा रंग है
कई रोगों में बचाए प्राण,
विटामिन ए, सी मिलता
कैल्शियम लोहा भरा है
खून शुद्ध कर देती जन
रंग इसका गहरा हरा है,
कढ़ी, दाल व खाटा साग
मिलकर स्वाद बढ़ाते हैं
खून के हानिकारक तत्व
चौलाई खाकर हटाते हैं,
शरीर की इमून कम होती
बदहजमी अगर सताती है
मूत्र विकार से हो परेशानी
चौलाई जड़ से मिटाती है,
घट रही खेतों से अब यह
नहीं मिलती इसकी बहार
चौलाई का हर भाग दवा
रोग दूर कर दे कई हजार,
बारिश में जब होती यह
कुछ दिनों तक चलती है
कवियों की कविताओं में
मन ही मन को लुभाती है।
******होशियार सिंह, लेखक, कनीना***
चौलावा
(अमरंथस स्पाइनोसस)
चौलाई से मिलता जुलता
खेतों में उगता एक शाक
अमेरिका से फैल गया है
तेजी से फैल जमाता धाक,
स्पाइनी, प्रिकी व थोरनी
अमरंथस इसके ही नाम
चावल में बन खरपतवार
उनको कर देता है बेदाम,
पिग विड परिवार का है
भोजन के रूप में खाते हैं
18 प्रकार के अमल मिले
शरीर को रोग से बचाते हैं,
हरे रंग की डाई बनती है
टूटी हड्डी में काम आता
आंतरिक घाव भर देता है
हैजा रोग से इंसान बचाता,
जड़ इसकी माहवार बढ़ाए
महिला ब्रेस्ट में दूध बढाता
गनोरिया, त्वचा के रोग हो
कई बीमारियों को घटाता,
जड़, बीज, तना और पत्ते
कितने ही रोगों में काम के
मूत्र विकार,पेट की बीमारी
इसके आगे लगते नाम के,
गर्भपात को प्रेरित करता है
बुखार, कैंसर, पेट अलसर
पेट की कई बीमारी हो जा
अमरंथस उनको लेता है हर,
कितने ही रोगों को दूर करे
अपार मात्रा में मिलता तैयार
तोड़कर ले आओ घर में तो
बढ़ जाएगा परिवार में प्यार,
पशु पक्षी इसको खा जाते
फिर भी हजारों फूल खिले
कांटेदार फल, बीज आते हैं
बंजर भूमि पर खड़ा मिले।।
***होशियार सिंह, लेखक, कनीना*******